August 25, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय 34 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः चौंतीसवाँ अध्याय दक्ष तथा देवताओं का अनेक अपशकुनों एवं उत्पातसूचक लक्षणों को देखकर भयभीत होना ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार गणोंसहित वीरभद्र के प्रस्थान करने पर दक्ष तथा देवताओं को अनेक प्रकार के अशुभ लक्षण दिखायी पड़ने लगे ॥ १ ॥ गणोंसहित वीरभद्र के चल देने पर वहाँ अनेक प्रकार के उत्पात होने लगे और हे देवर्षे ! यज्ञविध्वंस की सूचना देनेवाले तीनों प्रकार (आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक)-के अपशकुन होने लगे ॥ २ ॥ हे तात ! दक्ष की बाँयीं आँख, बाँयीं भुजा और बाँयी जाँघ फड़कने लगी, जो अनेक प्रकार के कष्ट देनेवाली तथा सर्वथा अशुभ की सूचक थी ॥ ३ ॥ शिवमहापुराण उस समय दक्ष के यज्ञस्थल में भूकम्प उत्पन्न हो गया । दक्ष को दोपहर में अनेक अद्भुत नक्षत्र दीखने लगे । दिशाएँ मलिन हो गयीं, सूर्य चितकबरा हो गया । सूर्य पर हजारों घेरे पड़ गये, जिससे वह भयंकर दिखायी पड़ने लगा ॥ ४-५ ॥ बिजली तथा अग्नि के समान दीप्तिमान् तारे टूटकर गिरने लगे । नक्षत्रों की गति टेढ़ी और नीचे की ओर हो गयी । हजारों गीध दक्ष के सिर को छूकर उड़ने लगे और उन गीधों के पंखों की छाया से यज्ञमण्डप ढंक गया ॥ ६-७ ॥ यज्ञभूमि में सियार तथा उल्लू शब्द करने लगे । [आकाशमण्डल से] श्वेत बिच्छुओं की उल्कावृष्टि होने लगी । धूलि की वर्षा के साथ तेज हवाएँ चलने लगीं और विवर्त [घूमती हुई] वायु से कम्पित होकर टिड्डियाँ सब जगह उड़ने लगीं ॥ ८-९ ॥ दक्ष ने देवताओं के साथ जिस नवीन तथा अद्भुत यज्ञमण्डप का निर्माण किया था, उसे वायु ने ऊपर की ओर उड़ा दिया । दक्ष आदि सभी लोग अद्भुत प्रकार से रक्त का वमन करने लगे और हड्डी से समन्वित मांस-खण्ड बार-बार उगलने लगे ॥ १०-११ ॥ वे सभी लोग वायु के झोंके से हिलते हुए दीपक के समान काँपने लगे और शस्त्रों से आहत हुए प्राणियों के समान दुःखित हो गये । जिस प्रकार वन में प्रातःकाल के समय कमल पुष्पों पर तुषार (ओस)-की वर्षा हुई हो, उसी प्रकार शब्द करते हुए वाष्प की वर्षा होने लगी ॥ १२-१३ ॥ जिस प्रकार रात्रि में कमल तथा दिन में कुमुद बन्द हो जाते हैं, उसी प्रकार दक्ष आदि की विशाल आँखें भी अचानक बन्द हो गयीं ॥ १४ ॥ आकाश से रक्त की वर्षा होने लगी, दिशाएँ अन्धकार से ढंक गयीं तथा सभी प्राणियों को सन्त्रस्त करता हुआ दिग्दाह होने लगा ॥ १५ ॥ हे मुने ! जब विष्णु आदि देवताओं ने इस प्रकार के उत्पात देखे, तब वे अत्यन्त भयभीत हो उठे ॥ १६ ॥ हाय, अब हमलोग मारे गये — इस प्रकार कहते हुए वे मूर्च्छित होकर पृथिवी पर इस प्रकार गिर पड़े, जैसे नदी के वेग से किनारे पर वृक्ष गिर जाते हैं ॥ १७ ॥ वे पृथिवी पर इस प्रकार गिरकर अचेत हो जाते थे जैसे काटने के बाद विषैला सर्प अचेत हो जाता है और कभी गेंद के समान पृथिवी पर गिरकर पुनः उठ जाते थे । तदनन्तर वे ताप से व्याकुल होकर कुररी पक्षी की भाँति विलाप करते थे एवं उक्ति तथा प्रत्युक्ति का शब्द करते हुए रो रहे थे ॥ १८-१९ ॥ उस समय विष्णुसहित सभी लोगों की शक्ति कुण्ठित हो गयी और वे आपस में एक-दूसरे के समीप कण्ठपर्यन्त कछुए के समान लोटने लगे ॥ २० ॥ इसी बीच वहाँ समस्त देवताओं और विशेषकर दक्ष को सुनाते हुए आकाशवाणी हुई ॥ २१ ॥ आकाशवाणी बोली — हे दक्ष ! तुम्हारे जन्म को धिक्कार है । तुम महामूढ़ और पापात्मा हो । शिवजी के कारण आज तुम्हें महान् दुःख प्राप्त होगा, जिसका निवारण नहीं हो सकता ॥ २२ ॥ यहाँ जो तुम्हारे सहायक मूर्ख देवता उपस्थित हैं, उन्हें भी महान् दुःख होगा, इसमें संशय नहीं है ॥ २३ ॥ ब्रह्माजी बोले — [हे मुने!] उस आकाशवाणी को सुनकर और उन उपद्रवों को देखकर दक्ष तथा अन्य देवता आदि भी अत्यन्त भयभीत हो उठे ॥ २४ ॥ उस समय दक्ष मन-ही-मन अत्यन्त व्याकुल हो काँपने लगे और अपने प्रभु लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु की शरण में गये ॥ २५ ॥ भयभीत तथा बेसुध वे दक्ष उन स्वजन-वत्सल देवाधिदेव विष्णु को प्रणाम करके तथा उनकी स्तुति करके कहने लगे — ॥ २६ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में अपशकुन-दर्शन नामक चौंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३४ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe