शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय 37
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
सैंतीसवाँ अध्याय
गणों सहित वीरभद्र द्वारा दक्षयज्ञ का विध्वंस, दक्षवध, वीरभद्र का वापस कैलास पर्वत पर जाना, प्रसन्न भगवान् शिव द्वारा उसे गणाध्यक्ष पद प्रदान करना

ब्रह्माजी बोले — सभी शत्रुओं के विनाशक, महाबलवान् वीरभद्र भगवान् विष्णु के साथ युद्ध में सभी प्रकार के दुःखों को दूर करनेवाले भगवान् शंकर का अपने हृदय में ध्यान करके दिव्य रथ पर आरूढ़ होकर बड़े महान् अस्त्रों को लेकर सिंह के समान गर्जन करने लगे ॥ १-२ ॥ बलशाली विष्णु भी अपने योद्धाओं को उत्साहित करते हुए महान् शब्द करनेवाले अपने पांचजन्य नामक शंख को बजाने लगे ॥ ३ ॥ उस शंख की ध्वनि को सुनकर जो देवता पहले युद्धभूमि छोड़कर भाग खड़े हुए थे, वे तत्क्षण लौटकर आ गये ॥ ४ ॥

शिवमहापुराण

तब सेनासहित समस्त इन्द्र आदि लोकपाल सिंहगर्जना करके वीरभद्र के गणों के साथ युद्ध करने लगे ॥ ५ ॥ उस समय सिंहनाद करते हुए गणों एवं लोकपालों के बीच भयंकर घनघोर द्वन्द्वयुद्ध छिड़ गया ॥ ६ ॥ इन्द्र नन्दी के साथ युद्ध करने लगे, अग्नि अश्मा के साथ और बलशाली कुबेर कूष्माण्डपति के साथ युद्ध करने लगे । तब इन्द्र ने सौ पर्ववाले वज्र से नन्दी पर प्रहार किया । नन्दी ने भी त्रिशूल से इन्द्र की छाती में प्रहार किया ॥ ७-९ ॥ बलवान् इन्द्र और नन्दी दोनों एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से अनेक प्रकार के प्रहार करते हुए परस्पर प्रीतिपूर्वक लड़ने लगे ॥ १० ॥

अत्यन्त क्रोधयुक्त अग्नि ने अपनी शक्ति से अश्मा पर प्रहार किया तथा उसने भी अग्नि पर बड़े वेग से तीक्ष्ण धारवाले त्रिशूल से प्रहार किया ॥ ११ ॥ गणों में श्रेष्ठ यूथपति महालोक प्रीतिपूर्वक शिवजी का ध्यान करते हुए यमराज के साथ घनघोर युद्ध करने लगे ॥ १२ ॥ महान् बलशाली चण्ड आ करके निर्ऋति को तिरस्कृत करते हुए बड़े-बड़े अस्त्रों से उनके साथ युद्ध करने लगे ॥ १३ ॥ महाबलवान् मुण्ड भी त्रिलोकी को विस्मित करते हुए अपनी उत्तम शक्ति से वरुण के साथ युद्ध करने लगे ॥ १४ ॥ वायु ने अपने परम तेजस्वी अस्त्र से भृंगी को आहत कर दिया और प्रतापी भृंगी ने भी त्रिशूल से वायु पर प्रहार किया ॥ १५ ॥

वीर कूष्माण्डपति ने पहुँचकर हृदय में आदरपूर्वक शिवजी का ध्यान करके कुबेर के साथ युद्ध करना प्रारम्भ किया ॥ १६ ॥ महान् भैरवीपति योगिनियों के समूह को साथ लेकर समस्त देवताओं को विदीर्ण करके विचित्र रूप से उनका रक्त पीने लगे ॥ १७ ॥ क्षेत्रपाल श्रेष्ठ देवताओं का भक्षण करने लगे और काली भी उन देवताओं को विदीर्णकर रक्त पीने लगीं ॥ १८ ॥ तब शत्रुओं का संहार करनेवाले भगवान् विष्णु उनके साथ युद्ध करने लगे और उन्होंने दसों दिशाओं को दग्ध करते हुए वेगपूर्वक [अपना] चक्र फेंका ॥ १९ ॥

चक्र को वेगपूर्वक आते हए देखकर बलवान् क्षेत्रपाल ने सहसा वहाँ पहुँचकर उस चक्र को ग्रसित कर लिया ॥ २० ॥ शत्रुओं के नगर को जीतनेवाले भगवान् विष्णु ने अपने चक्र को ग्रसित हुआ देखकर उसके मुख को मसलकर उस शत्रु के मुख से चक्र को उगलवा लिया ॥ २१ ॥ तब संसार के एकमात्र स्वामी, महानुभाव तथा महाबलवान् भगवान् विष्णु अत्यन्त कुपित हो उठे । वे क्रोधित होकर अपने चक्र तथा अनेक प्रकार के अस्त्रों को लेकर उन अस्त्रों से उन महावीर गणों के साथ युद्ध करने लगे ॥ २२ ॥

विष्णु ने प्रचण्ड पराक्रम के साथ भयंकर महायुद्ध किया । वे अनेक प्रकार के अस्त्र चलाकर प्रसन्नतापूर्वक उनके साथ युद्ध कर रहे थे ॥ २३ ॥ वे भैरव आदि गण भी अत्यधिक क्रोध में भरकर महान् ओज से अनेक प्रकार के अस्त्रों को छोड़ते हुए उनके साथ युद्ध करने लगे ॥ २४ ॥ इस प्रकार अतुलनीय तेजवाले विष्णु के साथ होते हुए उनके युद्ध को देखकर बलवान् वीरभद्र लौटकर उनके पास पहुँचकर विष्णु के साथ स्वयं युद्ध करने लगे ॥ २५ ॥ उसके बाद महातेजस्वी माधव भगवान् विष्णु अपने चक्र को लेकर कुपित हो उन वीरभद्र के साथ युद्ध करने लगे ॥ २६ ॥

हे मुने ! [उस समय] अनेक प्रकार के अस्त्र धारण करनेवाले महावीर वीरभद्र तथा सागरपति विष्णु — उन दोनों का रोमांचकारी घनघोर युद्ध होने लगा ॥ २७ ॥ विष्णु के योगबल से उनके शरीर से शंख, चक्र और गदा हाथों में धारण किये हुए असंख्य वीरगण प्रकट हो गये ॥ २८ ॥ विष्णु के समान ही बलशाली तथा नाना प्रकार के अस्त्रों को धारण किये हुए वे वीरगण वार्तालाप करते हुए वीरभद्र के साथ युद्ध करने लगे ॥ २९ ॥ वीरभद्र ने भगवान् शंकर का स्मरण करके विष्णु के समान तेजस्वी उन सभी को अपने त्रिशूल से मारकर भस्म कर दिया ॥ ३० ॥ तत्पश्चात् उन महाबली वीरभद्र ने युद्धभूमि में ही लीलापूर्वक विष्णु की छाती पर त्रिशूल से प्रहार किया ॥ ३१ ॥

हे मुने ! पुरुषोत्तम श्रीहरि त्रिशूल के प्रहार से घायल होकर सहसा भूमि पर गिर पड़े और अचेत हो गये ॥ ३२ ॥ तब प्रलयाग्नि के समान तीनों लोकों को जला देनेवाला और वीरों को भयभीत करनेवाला अद्भुत तेज उत्पन्न हुआ ॥ ३३ ॥ पुरुषश्रेष्ठ श्रीमान् भगवान् विष्णु पुनः उठकर क्रोध से नेत्रों को लाल किये हुए अपने चक्र को उठाकर [वीरभद्रको] मारने के लिये खड़े हो गये ॥ ३४ ॥ तब दीनतारहित चित्तवाले शिवस्वरूप वीरभद्र ने प्रलयकालीन आदित्य के समान महातेजस्वी उस चक्र को स्तम्भित कर दिया ॥ ३५ ॥

हे मुने ! मायापति महाप्रभु शंकर के प्रभाव से विष्णु के हाथ में स्थित चक्र चल नहीं पाया, वह निश्चितरूप से स्तम्भित हो गया था ॥ ३६ ॥ तब भाषण करते हुए उन गणेश्वर वीरभद्र ने विष्णु को भी स्तम्भित कर दिया और वे शिखरयुक्त पर्वत के समान खड़े रह गये ॥ ३७ ॥ हे नारद ! वीरभद्र ने जब भगवान् विष्णु को स्तम्भित कर दिया, तब यह देखकर याज्ञिकों ने स्तम्भन से मुक्त करानेवाले मन्त्र का जप करके उन्हें स्तम्भन से मुक्त कर दिया ॥ ३८ ॥

हे मुने ! तदनन्तर स्तम्भन से मुक्त होनेपर शार्ङ्ग नामक धनुष धारण करनेवाले रमापति ने कुपित होकर बाणसहित अपने धनुष को उठा लिया ॥ ३९ ॥ हे तात ! हे मुने ! उन वीरभद्र ने तीन बाणों से विष्णु के शार्ङ्ग धनुष पर प्रहार किया और वह उसी क्षण तीन टुकड़ों में विभक्त हो गया ॥ ४० ॥ तब महावाणी द्वारा बोधित हुए विष्णु ने उन महागण वीरभद्र को असह्य तेज से सम्पन्न जानकर अन्तर्धान होने का मन में विचार किया ॥ ४१ ॥ सती के द्वारा किये गये आत्मदाह के समस्त परिणाम को, जो शत्रुओं के लिये असह्य था, जानकर सभी लोग सबके स्वामी स्वतन्त्र शिवजी का स्मरण करके अपने गणों के साथ अपने-अपने लोक को चले गये ॥ ४२ ॥

मैं भी पुत्र के शोक से पीड़ित हो सत्यलोक चला आया और अत्यन्त दुःख से व्याकुल होकर विचार करने लगा कि मुझे अब क्या करना चाहिये ॥ ४३ ॥ मेरे तथा श्रीविष्णु के चले जानेपर जो भी यज्ञोपजीवी देवता थे, मुनियोंसहित उन सबको शिवगणों ने जीत लिया । उस उपद्रव को और महायज्ञ को विध्वस्त हुआ देखकर यज्ञदेव अत्यन्त भयभीत हो मृग का रूप धारण करके भागने लगे ॥ ४४-४५ ॥ मृगरूप में आकाश की ओर भागते हुए उन यज्ञ को वीरभद्र ने पकड़कर सिरविहीन कर दिया ॥ ४६ ॥

उसके बाद महागण वीरभद्र ने प्रजापति, धर्म, कश्यप, अनेक पुत्रोंवाले मुनीश्वर अरिष्टनेमि, मुनि अंगिरा, कृशाश्व तथा महामुनि दत्त के सिर पर पैर से प्रहार किया ॥ ४७-४८ ॥ प्रतापी वीरभद्र ने सरस्वती तथा देवमाता अदिति की नासिका के अग्रभाग को अपने नखाग्र से विदीर्ण कर दिया । तत्पश्चात् क्रोध के कारण चढ़ी हुई आँखोंवाले उन वीरभद्र ने अन्यान्य देवताओं को भी विदीर्णकर उन्हें पृथिवी पर गिरा दिया ॥ ४९-५० ॥ मुख्य-मुख्य देवताओं और मुनियों को विदीर्ण कर देनेपर भी वे शान्त नहीं हुए । महान् क्रोध से भरे हुए वे नागराज की भाँति सुशोभित हो रहे थे ॥ ५१ ॥

जैसे सिंह वन के हाथियों की ओर देखता है, उसी प्रकार शत्रुओं को मारकर भी वे वीरभद्र सभी दिशाओं में देखने लगे, कौन शत्रु कहाँ है ॥ ५२ ॥ उसी समय प्रतापी मणिभद्र ने भृगु को पटक दिया और उनकी छाती पर पैर से प्रहार करके उनकी दाढ़ी नोंच ली ॥ ५३ ॥ चण्ड ने बड़े वेग से पूषा के दाँत उखाड़ लिये; जो पूर्वकाल में महादेवजी को [दक्ष द्वारा] शाप दिये जाने पर दाँत दिखाकर हँस रहे थे ॥ ५४ ॥ नन्दी ने भग को रोषपूर्वक पृथ्वी पर गिरा दिया और उनकी दोनों आँखें निकाल ली; जिन्होंने [शिव को] शाप देते हुए दक्ष की ओर नेत्र से संकेत किया था ॥ ५५ ॥ गणेश्वरों ने स्वधा, स्वाहा, दक्षिणा, मन्त्र, तन्त्र तथा अन्य जो भी वहाँ उपस्थित थे, सबको तहस-नहस कर दिया ॥ ५६ ॥

उन गणों ने क्रोधित होकर वितानाग्नि में विष्ठा की वर्षा कर दी । इस प्रकार वीर गणों ने यज्ञ की ऐसी दुर्गति कर दी, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता ॥ ५७ ॥ ब्रह्मपुत्र दक्ष उनके भय के मारे अन्तर्वेदी के भीतर छिप गये थे, वीरभद्र पता लगाकर बलपूर्वक उन्हें खींच लाये ॥ ५८ ॥ उनका गाल पकड़कर उन्होंने उनके मस्तक पर तलवार से आघात किया, परंतु योग के प्रभाव से उनका सिर फटा नहीं, अभेद्य ही रह गया ॥ ५९ ॥ तब उनके सिर को अस्त्र-शस्त्रों से अभेद्य समझकर उन्होंने पैरों से दक्ष की छाती को दबाकर हाथ से सिर को तोड़ दिया ॥ ६० ॥ तदनन्तर गणों में श्रेष्ठ वीरभद्र ने उन शिवद्रोही दुष्ट दक्ष के उस सिर को अग्निकुण्ड में डाल दिया ॥ ६१ ॥

उस समय वीरभद्र अपने हाथ में त्रिशूल घुमाते हुए इस प्रकार शोभित हो रहे थे, मानो युद्धभूमि में संवर्ताग्नि सबको जलाकर क्रोध में भरी हुई पर्वत के समान स्थित हो ॥ ६२ ॥ जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि पतिंगों को जला डालती है, उसी प्रकार वीरभद्र ने क्रोधित होकर बिना परिश्रम किये ही इन सबको मारकर अग्नि से जला डाला ॥ ६३ ॥

तत्पश्चात् दक्ष आदि को जलाकर वीरों की शोभा से युक्त, त्रिलोकी को गुंजित करते हुए वीरभद्र ने भयानक अट्टहास किया । तदनन्तर वहाँ गणोंसहित वीरभद्र के ऊपर नन्दनवन की दिव्य पुष्पवृष्टि होने लगी ॥ ६४-६५ ॥ शीतल, सुगन्धित तथा सुखदायक हवाएँ धीरे-धीरे बहने लगीं और उसीके साथ देवताओं की दुन्दुभियाँ बजने लगीं ॥ ६६ ॥ तदनन्तर घोर अन्धकार का नाश करनेवाले सूर्य की भाँति वे वीरभद्र दक्ष और उनके यज्ञ का विनाश करके कृतकार्य हो तुरंत कैलासपर्वत पर चले गये ॥ ६७ ॥ कार्य को पूर्ण किये हुए वीरभद्र को देखकर परमेश्वर शिवजी मन-ही-मन प्रसन्न हुए और उन्होंने वीरभद्र को गणों का अध्यक्ष बना दिया ॥ ६८ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में यज्ञविध्वंसवर्णन नामक सैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३७ ॥

 

 

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