August 27, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय 40 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः चालीसवाँ अध्याय देवताओं सहित ब्रह्मा का विष्णुलोक में जाकर अपना दुःख निवेदन करना, उन सभी को लेकर विष्णु का कैलासगमन तथा भगवान् शिवसे मिलना नारदजी बोले — हे विधे ! हे महाप्राज्ञ ! हे शिवतत्त्व के प्रदर्शक ! आपने अत्यन्त अद्भुत एवं रमणीय शिवलीला सुनायी है । हे तात ! पराक्रमी वीरभद्र जब दक्ष के यज्ञ का विनाश करके कैलास पर्वत पर चले गये, तब क्या हुआ ? अब उसे बताइये ॥ १-२ ॥ शिवमहापुराण ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] समस्त देवता और मुनि रुद्र के सैनिकों से पराजित तथा छिन्न-भिन्न अंगोंवाले होकर मेरे लोक को चले गये । वहाँ मुझ स्वयम्भू को नमस्कार करके और बार-बार मेरा स्तवन करके उन्होंने अपने विशेष क्लेश को पूर्णरूप से बताया ॥ ३-४ ॥ तब उसे सुनकर मैं पुत्रशोक से पीड़ित हो गया और अत्यन्त व्यग्र हो व्यथितचित्त से विचार करने लगा ॥ ५ ॥ इस समय मैं कौन-सा कार्य करूँ, जो देवताओं के लिये सुखकारी हो और जिससे देव दक्ष जीवित हो जायँ तथा यज्ञ भी पूरा हो जाय ॥ ६ ॥ हे मुने ! इस प्रकार बहुत विचार करने पर जब मुझे शान्ति नहीं मिली, तब भक्तिपूर्वक विष्णु का स्मरण करते हुए मैंने उचित ज्ञान प्राप्त कर लिया ॥ ७ ॥ तदनन्तर देवताओं और मुनियों के साथ मैं विष्णुलोक में गया और उन्हें नमस्कार करके तथा अनेक प्रकार के स्तोत्रों से उनकी स्तुति करके अपना दुःख उनसे कहने लगा — हे देव ! जिस तरह भी यज्ञ पूर्ण हो, यज्ञकर्ता [दक्ष] जीवित हों और समस्त देवता तथा मुनि सुखी हो जायँ, आप वैसा कीजिये । हे देवदेव ! हे रमानाथ ! हे देवसुखदायक विष्णो ! हम देवता और मुनिलोग निश्चय ही आपकी शरण में आये हैं ॥ ८-१० ॥ ब्रह्माजी बोले — मुझ ब्रह्मा की यह बात सुनकर शिवस्वरूप लक्ष्मीपति विष्णु शिवजी का स्मरण करके दुखीचित्त होकर इस प्रकार कहने लगे — ॥ ११ ॥ विष्णु बोले — हे देवताओ ! परम समर्थ तेजस्वी पुरुष से कोई अपराध बन जाय, तो भी उसके बदले में अपराध करनेवाले मनुष्यों के लिये उनका वह अपराध मंगलकारी नहीं हो सकता । हे विधे ! समस्त देवता परमेश्वर शिव के अपराधी हैं; क्योंकि इन्होंने उन शम्भु को यज्ञ का भाग नहीं दिया ॥ १२-१३ ॥ अब आप सभी लोग शुद्ध हृदय से शीघ्र ही प्रसन्न होनेवाले भगवान् शिव के पैर पकड़कर उन्हें प्रसन्न कीजिये ॥ १४ ॥ जिन भगवान् के कुपित होने पर यह सारा जगत् नष्ट हो जाता है तथा जिनके शासन से लोकपालोंसहित यज्ञ का जीवन शीघ्र ही समाप्त जाता है, उन प्रियाविहीन तथा अत्यन्त दुरात्मा दक्ष के दुर्वचनों से बिंधे हुए हृदयवाले देव शंकर से आपलोग शीघ्र ही क्षमा माँगिये ॥ १५-१६ ॥ हे विधे ! उन शम्भु की शान्ति तथा सन्तुष्टि के लिये केवल यही महान् उपाय है —ऐसा मैं समझता हूँ । यह मैंने सच्ची बात कही है ॥ १७ ॥ हे विधे ! न मैं, न तुम, न अन्य देवता, न मुनिगण और न दूसरे शरीरधारी ही जिनके बल तथा पराक्रम के तत्त्व तथा प्रमाणों को जान पाते हैं, उन स्वतन्त्र परमात्मा परमेश्वर को विरुद्धकर प्रसन्न करने का [प्रणिपात करने के अतिरिक्त] कोई दूसरा उपाय नहीं हो सकता ॥ १८-१९ ॥ हे ब्रह्मन् ! आपलोगों के साथ मैं भी शिवालय चलूँगा और शिव के प्रति स्वयं अपराधी होने पर भी उनसे क्षमा करवाऊँगा ॥ २० ॥ ब्रह्माजी बोले — देवता आदि के साथ मुझ ब्रह्मा को इस प्रकार आदेश देकर भगवान् विष्णु ने देवताओं के साथ कैलासपर्वत पर जाने का विचार किया ॥ २१ ॥ देवता, मुनि, प्रजापति आदि को साथ लेकर वे विष्णु शिवजी के स्वप्रकाशस्वरूप शुभ तथा श्रेष्ठ कैलास पर्वत पर पहुँच गये ॥ २२ ॥ कैलास भगवान् शिव को सदा ही प्रिय है, वह मनुष्यों के अतिरिक्त किन्नरों, अप्सराओं तथा योगसिद्ध महात्माओं से सेवित था और बहुत ऊँचा था ॥ २३ ॥ वह चारों ओर से अनेक मणिमय शिखरों से सुशोभित था, अनेक धातुओं से विचित्र जान पड़ता था और अनेक प्रकार के वृक्ष तथा लताओं से भरा हुआ था ॥ २४ ॥ अनेक प्रकार के पशुओं-पक्षियों तथा अनेक प्रकार के झरनों से वह परिव्याप्त था । उसके शिखर पर सिद्धांगनाएँ अपने-अपने पतियों के साथ विहार करती थीं । वह अनेक प्रकार की कन्दराओं, शिखरों तथा अनेक प्रकार के वृक्षों की जातियों से सुशोभित था । उसकी कान्ति चाँदी के समान श्वेतवर्ण की थी ॥ २५-२६ ॥ वह पर्वत बड़े-बड़े व्याघ्र आदि जन्तुओं से युक्त, भयानकता से रहित, सम्पूर्ण शोभा से सम्पन्न, दिव्य तथा अत्यधिक आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला था ॥ २७ ॥ वह सभी को पवित्र कर देनेवाली तथा अनेक तीर्थों का निर्माण करनेवाली विष्णुपदी सती श्रीगंगाजी से घिरा हुआ तथा अत्यन्त निर्मल था ॥ २८ ॥ शिवजी के परम प्रिय कैलास नामक इस प्रकार के पर्वत को देखकर मुनीश्वरोंसहित विष्णु आदि देवता आश्चर्यचकित हो गये ॥ २९ ॥ उन देवताओं ने उस कैलास के सन्निकट शिव के मित्र कुबेर की अलका नामक परम दिव्य तथा रम्य पुरी को देखा ॥ ३० ॥ उन्होंने उसके पास ही सौगन्धिक नामक दिव्य वन भी देखा, जो अनेक प्रकार के दिव्य वृक्षों से शोभित था और जहाँ [पक्षियों की] अद्भुत ध्वनि हो रही थी ॥ ३१ ॥ उससे बाहर नन्दा एवं अलकनन्दा नामक दिव्य तथा परम पावन सरिताएँ बह रही थीं, जो दर्शनमात्र से ही [मनुष्योंके] पापों का विनाश कर देती हैं ॥ ३२ ॥ देवस्त्रियाँ प्रतिदिन अपने लोक से आकर उनका जल पीतीं और स्नान करके रति से आकृष्ट होकर पुरुषों के साथ विहार करती हैं ॥ ३३ ॥ उसके बाद उस अलकापुरी तथा सौगन्धिक वन को छोड़कर आगे की ओर जाते हुए उन देवताओं ने समीप में ही शंकरजी के वटवृक्ष को देखा ॥ ३४ ॥ वह [वटवृक्ष] उस पर्वत के चारों ओर छाया फैलाये हुए था, उसकी शाखाएँ तीन ओर फैली हुई थीं, उसका घेरा सौ योजन ऊँचा था, वह घोंसलों से विहीन था और ताप से रहित था । उसका दर्शन [केवल] पुण्यात्माओं को ही होता है । वह अत्यन्त रमणीय, परम पावन, शिवजी का योगस्थल, दिव्य योगियों के निवास के योग्य तथा अत्युत्तम था ॥ ३५-३६ ॥ विष्णु आदि सभी देवताओं ने महायोगमय तथा मुमुक्षुओं को शरण प्रदान करनेवाले उस वटवृक्ष के नीचे बैठे हुए शिवजी को देखा ॥ ३७ ॥ शान्त स्वभाववाले, अत्यन्त शान्त विग्रहवाले, शिवभक्ति में तत्पर तथा महासिद्ध [सनक आदि] ब्रह्मपुत्र प्रसन्नता के साथ उनकी उपासना कर रहे थे ॥ ३८ ॥ गुह्यकों एवं राक्षसों के पति उनके मित्र कुबेर अपने गणों तथा कुटुम्बीजनों के साथ विशेषरूप से उनकी सेवा कर रहे थे । वे परमेश्वर शिव तपस्वीजनों को प्रिय लगनेवाले सुन्दर रूप को धारण किये हुए थे, वात्सल्य के कारण वे सम्पूर्ण विश्व के मित्ररूप प्रतीत हो रहे थे और भस्म आदि से उनके अंगों की बड़ी शोभा हो रही थी ॥ ३९-४० ॥ हे मुने ! आपके पूछने पर कुशासन पर बैठे हुए वे शिव सभी सज्जनों को सुनाते हुए आपको ज्ञान का उपदेश दे रहे थे । वे अपना बायाँ चरण अपनी दायीं जाँघ पर और बायाँ हाथ बायें घुटने पर रखे कलाई में रुद्राक्ष की माला डाले सुन्दर तर्कमुद्रा में विराजमान थे ॥ ४१-४२ ॥ इस प्रकार के स्वरूपवाले शिव को देखकर उस समय विष्णु आदि सभी देवताओं ने शीघ्रता से नम्रतापूर्वक दोनों हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया । तब सज्जनों के शरणदाता प्रभु रुद्र ने मेरे साथ आये हुए विष्णु को देखकर उठ करके सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया ॥ ४३-४४ ॥ विष्णु आदि देवताओं ने जब भगवान् शिवजी के चरणों में प्रणाम किया, तब उन्होंने भी उसी प्रकार मुझे नमस्कार किया, जिस प्रकार लोकों को सद्गति प्रदान करनेवाले भगवान् विष्णु कश्यप को प्रणाम करते हैं ॥ ४५ ॥ तब शिवजी ने देवताओं, सिद्धों, गणाधीशों और महर्षियों से नमस्कृत तथा वन्दित विष्णु से आदरपूर्वक वार्तालाप किया ॥ ४६ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में शिव के दर्शन का वर्णन नामक चालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४० ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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