August 27, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय 42 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः बयालीसवाँ अध्याय भगवान् शिव का देवता आदिपर अनुग्रह, दक्षयज्ञ-मण्डप में पधारकर दक्ष को जीवित करना तथा दक्ष और विष्णु आदि द्वारा शिव की स्तुति ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] मुझ ब्रह्मा, लोकपाल, प्रजापति तथा मुनियोंसहित विष्णु के अनुनय-विनय करने पर परमेश्वर शिव प्रसन्न हो गये । विष्णु आदि देवताओं को आश्वासन देकर उनपर परम अनुग्रह करते हुए करुणानिधान परमेश्वर शिवजी हँसकर कहने लगे — ॥ १-२ ॥ शिवमहापुराण श्रीमहादेवजी बोले — हे श्रेष्ठ देवताओ ! आप दोनों सावधान होकर मेरी बात सुनें, मैं सच्ची बात कह रहा हूँ, हे तात ! मैं आप दोनों का क्रोध सर्वदा सहता रहता हूँ । बालकों अर्थात् अज्ञानियों के द्वारा किये गये अपराध का मैं न तो वर्णन करता हूँ और न चिन्तन ही करता हूँ । इसपर भी मेरी माया से भ्रान्त प्राणियों के शिक्षणार्थ ही मैं दण्ड धारण करता हूँ ॥ ३-४ ॥ दक्ष के यज्ञ का विध्वंस मैंने कभी नहीं किया है । दक्ष स्वयं ही दूसरों से द्वेष करते हैं । दूसरों के प्रति जैसा व्यवहार किया जायगा, वह अपने लिये ही फलित होगा । अतः दूसरों को कष्ट देनेवाला कार्य कभी नहीं करना चाहिये, जो दूसरों से द्वेष करता है, वह द्वेष अपने लिये ही होता है ॥ ५-६ ॥ परं द्वेष्टि परेषां यदात्मनस्तद्भविष्यति ॥ ५ ॥ परेषां क्लेदनं कर्म न कार्यं तत्कदाचन । परं द्वेष्टि परेषां यदात्मनस्तद्भविष्यति ॥ ६ ॥ दक्ष का मस्तक जल गया है, इसलिये इनके सिर के स्थान में बकरे का सिर जोड़ दिया जाय । भग देवता मित्र की आँख से यज्ञ का भाग देखें । हे तात ! पूषा नामक देवता, जिनके दाँत टूट गये हैं, यजमान के दाँतों से भली-भाँति पिसे हुए अन्न का भक्षण करें । यह मैंने सच्ची बात बतायी है । मेरा विरोध करनेवाले भृगु की दाढ़ी के स्थान में बकरे की दाढ़ी लगा दी जाय । शेष सभी देवताओं के, जिन्होंने मुझे यज्ञ का उच्छिष्ट भाग दिया, सारे अंग पहले की भाँति ठीक हो जायँ । याज्ञिकों में से जिनकी भुजाएँ टूट गयी हैं, वे अश्विनीकुमारों की भुजाओं से और जिनके हाथ नष्ट हो गये हैं, वे पूषा के हाथों से अपना काम चलायें । यह मैंने आपलोगों के प्रेमवश कहा है ॥ ७–१० ॥ ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] इस प्रकार कहकर वेद का अनुसरण करनेवाले सुरसम्राट् चराचरपति दयालु परमेश्वर महादेवजी चुप हो गये । भगवान् शंकर का वह वचन सुनकर श्रीविष्णु और ब्रह्मासहित सम्पूर्ण देवता सन्तुष्ट हो गये । वे तत्काल साधुवाद देने लगे । तदनन्तर भगवान् शम्भु को आमन्त्रित करके मुझ ब्रह्मा और देवर्षियों के साथ भगवान् विष्णु अत्यन्त हर्षित हो पुनः दक्ष की यज्ञशाला की ओर चले ॥ ११-१३ ॥ इस प्रकार उनकी प्रार्थना से भगवान् शम्भु विष्णु आदि देवताओं के साथ कनखल में स्थित प्रजापति दक्ष की यज्ञशाला में गये । उस समय रुद्रदेव ने वहाँ यज्ञ का और विशेषतः देवताओं तथा ऋषियों का विध्वंस, जो वीरभद्र के द्वारा किया गया था, उसे देखा ॥ १४-१५ ॥ स्वाहा, स्वधा, पूषा, तुष्टि, धृति, सरस्वती, अन्य समस्त ऋषि, पितर, अग्नि तथा अन्यान्य बहुत-से यक्ष, गन्धर्व और राक्षस वहाँ पड़े थे । उनमें से कुछ लोगों के अंग तोड़ डाले गये थे । कुछ लोगों के बाल नोंच लिये गये थे और कितने ही उस समरांगण में मरे पड़े थे ॥ १६-१७ ॥ उस यज्ञ की वैसी दुरवस्था देखकर भगवान् शंकर ने अपने गणनायक पराक्रमी वीरभद्र को बुलाकर हँसते हुए कहा — हे महाबाहु वीरभद्र ! यह तुमने कैसा काम किया ? हे तात ! थोड़ी ही देर में देवता तथा ऋषि आदि को बड़ा भारी दण्ड दे दिया ! हे तात ! जिसने ऐसा [द्रोहपूर्ण] कार्य किया तथा इस विलक्षण यज्ञ का आयोजन किया और जिसे ऐसा फल मिला, उस दक्ष को तुम शीघ्र यहाँ ले आओ ॥ १८-२० ॥ भगवान् शंकर के ऐसा कहने पर वीरभद्र ने शीघ्रतापूर्वक दक्ष का धड़ लाकर उन शम्भु के समक्ष डाल दिया ॥ २१ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! उसे सिररहित देख लोककल्याणकारी भगवान् शंकर ने आगे खडे हुए वीरभद्र से हँसकर पूछा — दक्ष का सिर कहाँ है ? तब प्रभावशाली वीरभद्र ने कहा — हे शंकर ! मैंने तो उसी समय दक्ष के सिर को आग में होम कर दिया था ॥ २२-२३ ॥ वीरभद्र की यह बात सुनकर भगवान् शंकर ने देवताओं को प्रसन्नतापूर्वक वैसी ही आज्ञा दी, जो पहले से दे रखी थी । भगवान् भव ने उस समय जो कुछ कहा, उसकी मेरे द्वारा पूर्ति कराकर श्रीहरि आदि सब देवताओं ने भृगु आदि सबको शीघ्र ही ठीक कर दिया ॥ २४-२५ ॥ तदनन्तर शम्भु के आदेश से प्रजापति दक्ष के धड़ के साथ सवनीय पशु-बकरे का सिर जोड़ दिया गया । उस सिर के जोड़े जाते ही शम्भु की कृपादृष्टि पड़ने से प्रजापति दक्ष प्राण प्राप्त करके तत्क्षण सोकर जगे हुए पुरुष की भाँति उठकर खडे हो गये ॥ २६-२७ ॥ उठते ही दक्ष ने प्रसन्नचित्त होकर प्रेमपूर्वक अपने सामने करुणानिधि भगवान् शंकर को देखा । पहले महादेवजी से द्वेष करने के कारण उनका अन्तःकरण मलिन हो गया था, परंतु उस समय शिवजी के दर्शन से वे तत्काल शरद् ऋतु के चन्द्रमा की भाँति निर्मल हो गये ॥ २८-२९ ॥ यद्यपि वे [प्रेमके वशीभूत होकर] मन में शिवजी की स्तुति करने की इच्छा कर रहे थे, किंतु उन्हें उसी समय सती के शरीरत्याग का स्मरण हो गया, इसलिये वे उत्कण्ठा से व्याकुल होने के कारण स्तुति नहीं कर सके ॥ ३० ॥ तदनन्तर लज्जित होकर दक्ष प्रजापति प्रसन्नचित्त हो विनम्रतापूर्वक लोक का कल्याण करनेवाले शंकर की स्तुति करने लगे ॥ ३१ ॥ दक्ष बोले — वरदानी, श्रेष्ठ, महेश्वर, ज्ञाननिधि, सनातन देव को नमस्कार करता हूँ । देवाधिदेवों के भी ईश्वर, सुखरूप एवं संसार के एकमात्र बन्धु भगवान् शंकरजी को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ३२ ॥ हे विश्वेश्वर! [आप] विश्वरूप, पुरातन, ब्रह्मा तथा आत्मस्वरूप को मैं नमस्कार करता हूँ । मैं शर्व को नमस्कार करता हूँ । मैं संसार के भावों का चिन्तन करनेवाले परात्पर शंकर को नमस्कार करता हूँ ॥ ३३ ॥ हे देवदेव ! हे महादेव ! आपको नमस्कार है, मुझपर कृपा कीजिये । हे कृपानिधे ! हे शम्भो ! आज मेरे अपराध को क्षमा कीजिये । हे शंकर ! आपने दण्ड के बहाने ही मुझपर अनुग्रह किया है । मैं खल और मूर्ख हूँ; हे देव ! मुझे आपके तत्त्व का ज्ञान नहीं था ॥ ३४-३५ ॥ हे प्रभो ! आप विष्णु एवं ब्रह्मादि देवों के भी सेव्य, वेदों से जाननेयोग्य तथा महेश्वर हैं । आज मुझे आपके तात्त्विक स्वरूप का ज्ञान हुआ है, आप सभी लोगों में श्रेष्ठ माने गये हैं । आप सत्पुरुषों के लिये कल्पवृक्ष हैं और दुष्टों को सदा दण्ड प्रदान करनेवाले हैं । आप सर्वथा स्वतन्त्र परमात्मा हैं एवं भक्तों को अभीष्ट वर प्रदान करनेवाले हैं ॥ ३६-३७ ॥ आप परमेश्वर ने ही अपने मुख से विद्या, तप तथा व्रत धारण करनेवाले इन ब्राह्मणों को तत्त्व का साक्षात्कार करने के लिये उत्पन्न किया है ॥ ३८ ॥ समस्त गोरूप पशुओं की रक्षा जिस प्रकार गोपति द्वारा की जाती है, उसी प्रकार आप सभी विपत्तियों से रक्षा करते हैं । आप मर्यादा के परिपालक तथा दुर्जनों के लिये दण्ड धारण करते हैं । हे भगवन् ! मैंने अनेक प्रकार के कटु वचनरूपी बाणों से आप परमेश्वर को बींध डाला था, फिर भी अत्यन्त क्षीण आशावाले इन देवताओं सहित मुझ पर आपने दया ही की है ॥ ३९-४० ॥ इसलिये हे शम्भो ! हे दीनबन्धो ! हे भक्तवत्सल ! आप परात्पर भगवान् मेरे द्वारा की गयी पूजा से सन्तुष्ट हो जाइये ॥ ४१ ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार लोक का कल्याण करनेवाले महाप्रभु महेश्वर की विनम्रतापूर्वक स्तुति कर प्रजापति मौन हो गये । उसके बाद भगवान् विष्णु प्रसन्नचित्त होकर दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करके गद्गद वाणी से वृषभध्वज शिव की स्तुति करने लगे — ॥ ४२-४३ ॥ विष्णु बोले — हे महादेव ! हे महेशान ! लोक पर अनुग्रह करनेवाले हे दीनबन्धो ! हे दयानिधे ! आप परब्रह्म परमात्मा हैं । हे प्रभो ! आप सर्वव्यापी स्वतन्त्र हैं, आपका यश वेदों से ही जाना जा सकता है । आपने हमलोगों पर कृपा की है, उससे हमलोग कृतकृत्य हो गये ॥ ४४-४५ ॥ हे महेश्वर ! इस मेरे भक्त दुष्ट दक्ष ने पूर्व में आपकी जो निन्दा की है, उसे आप आज क्षमा कीजिये; क्योंकि आप निर्विकार हैं । हे शंकर ! मैंने भी मूर्खतावश आपका अपराध किया है, जो दक्ष के पक्ष से आपके गण वीरभद्र के साथ युद्ध किया ॥ ४६-४७ ॥ हे सदाशिव ! आप मेरे स्वामी हैं, आप परब्रह्म हैं, मैं आपका दास हूँ, आप सभी के पिता हैं । इसलिये आपको हम सबका पालन करना चाहिये ॥ ४८ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे देवदेव ! हे महादेव ! हे करुणासागर ! हे प्रभो ! आप स्वतन्त्र, परमात्मा, परमेश्वर, अद्वय तथा अविनाशी हैं ॥ ४९ ॥ हे ईश्वर ! हे देव ! आपने मेरे इस पुत्र पर अनुग्रह किया है, अब आप अपना अपमान भूलकर दक्ष के यज्ञ का उद्धार कीजिये । हे देवेश ! अब आप प्रसन्न हो जाइये और अपने सभी प्रकार के शापों से इसका उद्धार कीजिये; आप ज्ञानवान् ही मुझे प्रेरणा देनेवाले हैं और आप ही निवारण करनेवाले हैं ॥ ५०-५१ ॥ हे महामुने ! इस प्रकार परमात्मा महेश्वर की स्तुति करके दोनों हाथ जोड़कर मैंने अपने मस्तक को झुकाकर उन्हें प्रणाम किया । तदनन्तर इन्द्र आदि देवतागण एवं लोकपाल सावधान होकर प्रसन्न मुखकमलवाले शंकरजी की स्तुति करने लगे ॥ ५२-५३ ॥ उसके बाद अन्य सभी देवता, सिद्ध, ऋषि एवं प्रजापतिगण भी प्रसन्नता के साथ शिवजी की स्तुति करने लगे । तत्पश्चात् उपदेवता, नाग, सदस्य तथा ब्राह्मणलोग भी सद्भक्ति से प्रणामकर अलग-अलग स्तुति करने लगे ॥ ५४-५५ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में दक्ष के दुःखनिराकरण का वर्णन नामक बयालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४२ ॥ Please follow and like us: Related