August 31, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 07 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः सातवाँ अध्याय पार्वती का नामकरण तथा उनकी बाललीलाएँ एवं विद्याध्ययन ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] तदनन्तर मेना के सामने महातेजस्वी कन्या होकर वे लौकिक गति का आश्रय लेकर रोने लगीं । हे मुने ! उस समय प्रसूति गृह की शय्या के चारों ओर फैले हुए उनके महान् तेज से रात्रि के दीपक शीघ्र ही कान्तिहीन हो गये ॥ १-२ ॥ उनका मनोहर रुदन सुनकर घर की सब स्त्रियाँ प्रसन्न हो गयीं और शीघ्र ही प्रेमपूर्वक वहाँ चली आयीं ॥ ३ ॥ शिवमहापुराण तब अन्तःपुर के दूत ने देवकार्य सम्पन्न करनेवाले, कल्याणकारक तथा सुख देनेवाले पार्वती-जन्म को शीघ्र ही पर्वतराज को बताया । पुत्री-जन्म का समाचार सुनानेवाले अन्तःपुर के दूत को [न्योछावर रूप में] देने हेतु उन पर्वतराज के लिये श्वेतछत्र तक अदेय नहीं रहा । तत्पश्चात् पुरोहित और ब्राह्मणों के साथ गिरिराज वहाँ गये और उन्होंने अपूर्व कान्ति से सुशोभित हुई उस कन्या को देखा ॥ ४-६ ॥ नीलकमल के समान श्यामवर्ण, सुन्दर कान्ति से युक्त तथा अत्यन्त मनोरम उस कन्या को देखकर ही गिरिराज अत्यन्त प्रसन्न हो गये ॥ ७ ॥ नगर में रहनेवाले समस्त स्त्री एवं पुरुष परम प्रसन्न हुए । इस समय नगर में अनेक प्रकार के बाजे बजने लगे और बहुत बड़ा उत्सव होने लगा । मंगलगान होने लगा और वारांगनाएँ नृत्य करने लगीं । गिरिराज ने [कन्या का] जातकर्म संस्कार कर द्विजातियों को दान दिया ॥ ८-९ ॥ उसके बाद दरवाजे पर आकर हिमाचल ने महान् उत्सव मनाया और प्रसन्नचित्त होकर भिक्षुकों को बहुत-सा धन दिया ॥ १० ॥ तदनन्तर हिमवान् ने शुभ मुहूर्त में मुनियों के साथ उस कन्या के काली आदि सुखदायक नाम रखे ॥ ११ ॥ उन्होंने उस समय ब्राह्मणों को प्रेम तथा आदरपूर्वक बहुत-सा धन प्रदान किया और गानपूर्वक अनेक प्रकार का उत्सव कराया । इस प्रकार उत्सव मनाकर बार-बार काली को देखते हुए सपत्नीक हिमालय अनेक पुत्रोंवाले होने पर भी बहुत आनन्दित हुए ॥ १२-१३ ॥ देवी शिवा गिरिराज के घर में वर्षा के समय गंगा के समान तथा शरद् ऋतु की चाँदनी के समान बढ़ने लगीं । इस प्रकार परम सुन्दरी तथा दिव्य दर्शनवाली कालिका देवी प्रतिदिन चन्द्रकला के समान शोभायुक्त हो बढ़ने लगीं ॥ १४-१५ ॥ सुशीलता आदि गुणों से संयुक्त तथा बन्धुजनों की प्रिय उस कन्या को कुटुम्ब के लोग अपनी कुलपरम्परा के अनुसार ‘पार्वती’ इस नाम से पुकारने लगे ॥ १६ ॥ हे मुने ! माता ने उन कालिका को ‘उमा’ कहकर तपस्या करने से मना किया था, अतः बाद में वे सुमुखी लोक में उमा नाम से विख्यात हुईं ॥ १७ ॥ पुत्रवान् होते हुए भी पर्वतराज हिमालय सर्वसौभाग्ययुक्त उस पार्वती नामक अपनी सन्तान को देखते हुए तृप्त नहीं होते थे, क्योंकि हे मुनीश्वर ! वसन्त ऋतु में नाना प्रकार के पुष्पों में रस होने पर भी भ्रमरावली आम के बौर पर ही विशेष रूप से आसक्त होती है ॥ १८-१९ ॥ वे पर्वतराज हिमालय उस पार्वती से उसी प्रकार पवित्र तथा विभूषित हुए, जिस प्रकार संस्कार से युक्त वाणी से विद्वान् पवित्र तथा विभूषित होता है ॥ २० ॥ जिस प्रकार महान् प्रभावशाली शिखा से भवन का दीपक एवं त्रिमार्गगामिनी गंगा से सन्मार्ग शोभित होता है, उसी प्रकार पार्वती द्वारा पर्वतराज सुशोभित हुए ॥ २१ ॥ वे पार्वती बचपन में अपनी सहेलियों के साथ कन्दुक (गेंद), कृत्रिम पुत्रों [पुतला] तथा गंगा की बालुका से बनायी गयी वेदियों द्वारा क्रीड़ा करती थीं ॥ २२ ॥ उसके अनन्तर हे मुने ! वे शिवा देवी उपदेश के समय एकाग्रचित्त होकर सदगुरु से अत्यन्त प्रीतिपूर्वक सभी विद्याएँ पढ़ने लगीं । जिस प्रकार शरद् ऋतु में हंसपंक्ति गंगा को तथा रात्रि में अमृतमयी चन्द्र किरणें औषधियों को प्राप्त होती हैं, उसी प्रकार उन पार्वती को पूर्वजन्म की विद्याएँ स्वयं प्राप्त हो गयीं । हे मुने ! इस प्रकार मैंने शिवा की कुछ लीला का ही आपसे वर्णन किया, अब अन्य लीला का भी वर्णन करूँगा, आप प्रेमपूर्वक सुनें ॥ २३–२५ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में पार्वती की बाल्यलीला का वर्णन नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe