शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 08
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
आठवाँ अध्याय
नारद मुनि का हिमालय के समीप गमन, वहाँ पार्वती का हाथ देखकर भावी लक्षणों को बताना, चिन्तित हिमवान् को शिवमहिमा बताना तथा शिव से विवाह करने का परामर्श देना

ब्रह्माजी बोले — हे नारद ! एक समय की बात है, आप शिवजी से प्रेरित होकर प्रसन्नतापूर्वक हिमालय के घर गये । आप शिवतत्त्व के ज्ञाता और शिव की लीला के जानकारों में श्रेष्ठ हैं । हे मुने ! गिरिराज हिमालय ने आपको देखकर प्रणाम करके आपकी पूजा की और अपनी पुत्री को बुलाकर उनसे आपके चरणों में प्रणाम करवाया ॥ १-२ ॥ हे मुनीश्वर ! तत्पश्चात् स्वयं नमस्कार करके हिमाचल अपने सौभाग्य की सराहना करके मस्तक झुकाकर हाथ जोड़कर आपसे कहने लगे — ॥ ३ ॥

शिवमहापुराण

हिमालय बोले — हे मुने ! हे नारद ! हे ज्ञानिन् ! हे ब्रह्मा के पुत्रों में श्रेष्ठ ! हे प्रभो ! आप सर्वज्ञ हैं, दयामय हैं और दूसरों के उपकार में लगे रहनेवाले हैं । गुण-दोष को प्रकट करनेवाले आप मेरी पुत्री के जन्मफल का वर्णन कीजिये, मेरी सौभाग्यवती पुत्री किसकी पत्नी होगी ? ॥ ४-५ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुनिश्रेष्ठ ! हे तात ! गिरिराज हिमालय के ऐसा कहने पर कालिका के हाथ और विशेष रूप से उसके सम्पूर्ण अंगों को देखकर कौतुकी, बोलने में चतुर, ज्ञानी और सभी वृत्तान्तों को जाननेवाले आप नारद प्रसन्नचित्त होकर पर्वतराज से कहने लगे — ॥ ६-७ ॥

नारद बोले — हे शैलराज ! हे मेने ! आपकी यह पुत्री चन्द्रमा की आदि कला के समान बढ़ रही है, यह समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न है ॥ ८ ॥ यह अपने पति के लिये अत्यन्त सुखदायिनी, माता-पिता की कीर्ति को बढानेवाली, समस्त नारियों में परम साध्वी और [स्वजनों को] सदा महान् आनन्द देनेवाली होगी ॥ ९ ॥ हे गिरे ! आपकी पुत्री के हाथ में उत्तम लक्षण विद्यमान हैं, केवल एक रेखा विलक्षण है, उसका फल यथार्थरूप से सुनिये । इसे ऐसा पति प्राप्त होगा, जो योगी, नग्न, निर्गुण, निष्काम, माता-पिता से रहित, मानविहीन और अमंगल वेषवाला होगा ॥ १०-११ ॥

ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] आपकी इस बात को सुनकर और सत्य मानकर वे मेना तथा हिमालय—दोनों पति-पत्नी बहुत दुखी हुए ॥ १२ ॥ परंतु हे मुने ! जगदम्बा शिवा आपके उस प्रकार के वचन को सुनकर और इन लक्षणों से युक्त उन शिव को मानकर मन-ही-मन अत्यन्त हर्षित हुईं ॥ १३ ॥ नारदजी की बात कभी झूठ नहीं हो सकती — यह सोचकर वे शिवा शिव के युगलचरणों में सम्पूर्ण हृदय से अत्यन्त स्नेह करने लगीं ॥ १४ ॥ हे नारद ! उस समय मन-ही-मन दुखी हो हिमवान् ने आपसे कहा — मुने ! [उस रेखा का फल सुनकर] मुझे बड़ा दुःख हुआ है, मैं क्या उपाय करूँ ? ॥ १५ ॥ हे मुने ! यह सुनकर महान् कौतुक करनेवाले और वार्तालाप-विशारद आप मंगलकारी वचनों द्वारा हिमाचल को हर्षित करते हुए कहने लगे — ॥ १६ ॥

नारदजी बोले — हे गिरिराज ! आप स्नेहपूर्वक सुनिये । मेरी बात सच्ची है, वह झूठ नहीं होगी । हाथ की रेखा ब्रह्माजी की लिपि है । निश्चय ही वह मिथ्या नहीं होती है ॥ १७ ॥ हे शैल ! इसका पति वैसा ही होगा, इसमें संशय नहीं है, परंतु आप इसके उपाय को प्रेमपूर्वक सुनिये, जिसे करके आप सुख प्राप्त करेंगे ॥ १८ ॥ उस प्रकार के वर तो लीलारूपधारी प्रभु शिव ही हैं, उनमें समस्त कुलक्षण सद्गुणों के समान ही हैं ॥ १९ ॥ समर्थ पुरुष में दोष दुःख का कारण नहीं होता, असमर्थ ही वह दुःखदायक होता है । इस विषय में सूर्य, अग्नि और गंगा का दृष्टान्त जानना चाहिये ॥ २० ॥

इसलिये आप विवेकपूर्वक अपनी कन्या शिवा को शिव को अर्पण कीजिये । भगवान् शिव सर्वेश्वर, सबके सेव्य, निर्विकार, सामर्थ्यशाली और अविनाशी हैं । विशेषतः वे तपस्या से वश में हो जाते हैं । अतः यदि शिवा तप करे, तो शीघ्र ही प्रसन्न होनेवाले वे शिव उसे अवश्य ग्रहण कर लेंगे ॥ २१-२२ ॥ सर्वेश्वर शिव सब प्रकार से समर्थ तथा वज्र [-लेख]-का भी विनाश करनेवाले हैं । ब्रह्माजी उनके अधीन हैं तथा वे सबको सुख देनेवाले हैं ॥ २३ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे तात ! हे ब्रह्मवित् ! हे मुने ! ऐसा कहकर कौतुक करनेवाले आपने शुभ वचनों से गिरिराज को हर्षित करते हुए पुनः कहा — ॥ २४ ॥

पार्वती भगवान् शंकर की पत्नी होगी और वह सदा रुद्रदेव के अनुकूल रहेगी; क्योंकि यह महासाध्वी और उत्तम व्रत का पालन करनेवाली है तथा माता-पिता के सुख को बढ़ानेवाली है ॥ २५ ॥ यह तपस्विनी भगवान् शिव के मन को अपने वश में कर लेगी और वे भी इसके सिवा किसी दूसरी स्त्री से विवाह नहीं करेंगे ॥ २६ ॥ इन दोनों का जैसा प्रेम है, वैसा प्रेम न तो किसी का हुआ है, न इस समय है और न आगे होगा ॥ २७ ॥ हे गिरिश्रेष्ठ ! इन्हें देवताओं के कार्य करने हैं, उनके जो-जो कार्य नष्टप्राय हो गये हैं, उन सबका इनके द्वारा पुनः उद्धार होगा ॥ २८ ॥ हे गिरे ! आपकी इस कन्या से भगवान् हर अर्धनारीश्वर होंगे, इन दोनों का पुनः हर्षपूर्वक मिलन होगा ॥ २९ ॥

आपकी यह पुत्री तपस्या के प्रभाव से सर्वेश्वर महेश्वर को सन्तुष्ट करके उनके शरीर के आधे भाग को अपने अधिकार में कर लेगी ॥ ३० ॥ यह आपकी कन्या अपनी तपस्या से उन शिव को सन्तुष्टकर विद्युत् तथा सुवर्ण के समान गौरवर्ण की होगी ॥ ३१ ॥ इसीलिये यह कन्या गौरी नाम से विख्यात होगी और ब्रह्मा, विष्णु तथा समस्त देवगण इसका पूजन करेंगे ॥ ३२ ॥ हे गिरिश्रेष्ठ ! आप इस कन्या को किसी दूसरे के लिये नहीं देना और इस रहस्य को देवताओं से कभी प्रकट नहीं करना ॥ ३३ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे देवर्षे ! हे नारद ! हे मुने ! आपका यह वचन सुनकर वाक्यविशारद हिमालय आपसे यह वाक्य कहने लगे — ॥ ३४ ॥

हिमालय बोले — हे मुने ! हे नारद ! हे प्राज्ञ ! मैं आपसे कुछ निवेदन कर रहा हूँ, आप उसे प्रेमपूर्वक सुनिये और आनन्द का अनुभव कीजिये ॥ ३५ ॥ सुना जाता है कि वे महादेवजी आसक्तियों का त्याग करके अपने मन को संयम में रखते हुए नित्य तपस्या करते हैं और देवताओं की भी दृष्टि में नहीं आते ॥ ३६ ॥ हे देवर्षे ! ध्यानमार्ग में स्थित हुए वे [भगवान् शंकर] परब्रह्म में लगाये हुए अपने मन को किस प्रकार विचलित करेंगे, इस विषय में मुझे महान् संशय है ॥ ३७ ॥ दीपक की लौ के समान प्रकाशमान, अविनाशी, प्रकृति से परे, निर्विकार, निर्गुण, सगुण, निर्विशेष और निरीह जो परब्रह्म है, वही उनका अपना सदाशिव नामक स्वरूप है, अतः वे उसी का सर्वत्र साक्षात्कार करते हैं । किसी बाह्य वस्तु पर दृष्टिपात नहीं करते ॥ ३८-३९ ॥

हे मुने ! यहाँ आये हुए किन्नरों के मुख से उनके विषय में नित्य ऐसा सुना जाता है, क्या यह बात मिथ्या ही है ॥ ४० ॥ विशेषतः यह बात भी सुनने में आती है कि उन भगवान् हर ने पूर्व समय में [सती के समक्ष] प्रतिज्ञा की थी, उसे मैं कहता हूँ, आप सुनें ॥ ४१ ॥ [उन्होंने कहा था-] हे दाक्षायणि! हे सति ! हे प्रिये ! मैं तुम्हारे अतिरिक्त दूसरी स्त्री का न तो वरण करूँगा और न तो उसे पत्नीरूप में ग्रहण करूँगा, यह मैं तुमसे सत्य कहता हूँ ॥ ४२ ॥ इस प्रकार सती के साथ उन्होंने पहले ही प्रतिज्ञा कर ली है । अब सती के मर जाने पर वे स्वयं दूसरी स्त्री को कैसे ग्रहण करेंगे ? ॥ ४३ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे देवर्षे ! यह कहकर उन गिरि ने आपके सामने मौन धारण कर लिया, तब इसे सुनकर आप तत्त्वपूर्वक यह बात कहने लगे — ॥ ४४ ॥

नारदजी बोले — हे गिरिराज ! हे महामते ! आपको चिन्ता नहीं करनी चाहिये, आपकी यह कन्या काली पूर्व समय में दक्ष की पुत्री थी ॥ ४५ ॥ उस समय उसका नाम सती था, जो सदा मंगल प्रदान करनेवाला है । वह सती दक्षकन्या होकर रुद्र की प्रिया बनी थी ॥ ४६ ॥ उस सती ने अपने पिता के यज्ञ में अनादर पाकर तथा भगवान् शंकर का भी अपमान हुआ देखकर कोप करके अपने शरीर को त्याग दिया था ॥ ४७ ॥ वे ही अम्बिका शिवा आपके घर में उत्पन्न हुई हैं । यह पार्वती भगवान् शंकर की पत्नी होगी, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४८ ॥

[ब्रह्माजी ने कहा —] हे मुने ! उस समय आपने पार्वती का यह सब प्रीतिवर्धक पूर्वजन्म तथा चरित्र विस्तारपूर्वक गिरिराज से कहा था ॥ ४९ ॥ मुनि के मुख से काली के सम्पूर्ण पूर्व वृत्तान्त को सुनकर पुत्र-स्त्रीसहित वे गिरि सन्देहरहित हो गये ॥ ५० ॥ तत्पश्चात् काली ने नारदजी के मुख से उस कथा को सुनकर लज्जा से मुख नीचे कर लिया और उनके मुख पर मुसकान छा गयी ॥ ५१ ॥ उसके चरित्र को सुनकर, हाथ से उसका स्पर्श करके और बार-बार उसका मस्तक सूंघकर हिमालय ने उसे अपने आसन के पास बैठाया ॥ ५२ ॥

तब हे मुने ! आप वहाँ बैठी हुई उस काली को देखकर पुत्रोंसहित गिरिराज एवं मेना को प्रसन्न करते हुए कहने लगे — हे शैलराज ! इस पार्वती के बैठने के लिये यह सिंहासन क्या है ? इसका आसन तो सदा शम्भु का ऊरुदेश होगा । यह तुम्हारी तनया शिवजी के ऊरु का आसन प्राप्त करेगी, जहाँ किसी की दृष्टि अथवा मन तक नहीं जा सकेगा ॥ ५३–५५ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे नारद ! इस प्रकार आप गिरिराज से उदार वचन कहकर वहाँ से स्वर्ग चले गये और वे गिरिराज भी चित्त में प्रसन्न होकर सम्पूर्ण समृद्धियों से युक्त अपने घर चले गये ॥ ५६ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में नारदहिमालयसंवादवर्णन नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८ ॥

 

 

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