शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 10
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
दसवाँ अध्याय
शिवजी के ललाट से भौमोत्पत्ति

नारदजी बोले — हे विष्णुशिष्य ! हे महाभाग ! हे विधे ! हे शिवभक्तों में श्रेष्ठ ! हे प्रभो ! आप शिवजी की इस लीला को प्रीतिपूर्वक विस्तार से मुझसे कहिये ॥ १ ॥ सती के विरह से युक्त होकर शिवजी ने कौन-सा चरित्र किया और वे उत्तम हिमालय पर्वत पर तप करने के लिये कब आये ? ॥ २ ॥ शिवा और शिवजी का विवाद और कामदेव का विनाश किस प्रकार हुआ ? पार्वती ने तपस्या करके किस प्रकार कल्याणकारी शम्भु को प्राप्त किया ? ॥ ३ ॥ हे ब्रह्मन् ! इन सब बातों को तथा महान् आनन्द देनेवाले अन्य सुन्दर शिवचरित्रों को मुझसे कहिये ॥ ४ ॥

शिवमहापुराण

सूतजी बोले — नारदजी के इस प्रश्न को सुनकर लोकाधिपतियों में श्रेष्ठ ब्रह्माजी शिवजी के चरणकमल का ध्यान करके अति प्रसन्नतापूर्वक कहने लगे — ॥ ५ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे देवर्षे ! हे शैववर्य ! मंगल करनेवाले, उत्तम भक्ति को बढ़ानेवाले पावन शिवचरित्र को आदरपूर्वक सुनिये ॥ ६ ॥ अपने पर्वत पर आकर प्रिया के विरह से दुखी शम्भु ने प्राणों से भी बढ़कर अपनी प्रिया सती देवी का हृदय से स्मरण किया ॥ ७ ॥ वे [अपने] गणों को बुलाकर उन सती के लिये शोक प्रकट करते हुए, लौकिक गति दिखाते हुए उनके प्रेमवर्धक गुणों का अत्यन्त प्रेमपूर्वक वर्णन करने लगे ॥ ८ ॥ लीलाविशारद वे शिवजी गृहस्थोचित उत्तम आचरण को छोड़कर दिगम्बर हो गये और पुनः सभी लोकों में भ्रमण करने लगे ॥ ९ ॥

सती के विरह से दुखी हुए भगवान् शंकर को कहीं भी सती का दर्शन प्राप्त नहीं हुआ, तब भक्तों का कल्याण करनेवाले शिवजी पुन: [कैलास] पर्वत पर आ गये ॥ १० ॥ उसके बाद उन्होंने यत्नपूर्वक मन को एकाग्रकर दुःख दूर करनेवाली समाधि लगायी और अपने अविनाशी स्वरूप का दर्शन किया ॥ ११ ॥ इस प्रकार मायाधीश, त्रिगुणातीत, विकाररहित परब्रह्म स्वयंप्रभु सदाशिव स्थायी होकर समाधि में बहुत दिनों तक लीन रहे ॥ १२ ॥ जब [समाधि लगाये हुए उनको] बहुत वर्ष बीत गये, तब उन्होंने अपनी समाधि का त्याग किया । उस समय जो चरित्र हुआ, उसे मैं आपसे शीघ्र कह रहा हूँ ॥ १३ ॥

प्रभु के ललाटस्थल से जो पसीने की बूंदें पृथ्वी पर गिरी, उनसे शीघ्र ही एक बालक उत्पन्न हुआ ॥ १४ ॥ हे मुने ! वह चार भुजाओं से युक्त, अरुणवर्णवाला, अत्यन्त मनोहर रूपवाला, अलौकिक तेज से सम्पन्न, श्रीमान्, तेजस्वी तथा शत्रुओं के लिये दुःसह था ॥ १५ ॥ वह बालक उन लोकाचाररत परमेश्वर शिव के सामने समीप जाकर साधारण पुत्र की भाँति रोने लगा ॥ १६ ॥ उसी समय भगवान् शंकर से भयभीत हुई पृथ्वी बुद्धि से विचारकर अत्यन्त सुन्दर स्त्री का शरीर धारण करके प्रकट हो गयी । उसने शीघ्रता से उस सुन्दर बालक को अपनी गोद में उठाकर रख लिया और प्रेम से उसे अपना दूध पिलाने लगी ॥ १७-१८ ॥

इस प्रकार वह परमेश्वर के हित-साधन के लिये सत्यभाव से बालक की माता बनी और प्रेमपूर्वक हँसते हुए बालक का मुख चूमने लगी ॥ १९ ॥ तब कौतुकी, सृष्टिकर्ता तथा अन्तर्यामी शम्भु इस चरित्र को देखकर उसे पृथ्वी जानकर हँस करके उससे बोले — ॥ २० ॥

हे धरणि ! तुम धन्य हो, तुम मेरे पुत्र का प्रेम से पालन करो । यह श्रेष्ठ [बालक] मेरे महातेजस्वी पसीने से तुममें उत्पन्न हुआ है ॥ २१ ॥ हे क्षिते ! यद्यपि मेरे श्रमजल (पसीने)-से उत्पन्न हुआ यह बालक मुझे बड़ा प्रिय है, फिर भी यह तुम्हारे नाम से विख्यात होगा और सदा तीनों तापों से रहित होगा । यह बालक भूमिदान करनेवाला, गुणों से सम्पन्न और तुम्हें तथा मुझको भी सुख प्रदान करनेवाला होगा, अतः तुम इसे रुचि के अनुसार ग्रहण करो ॥ २२-२३ ॥

ब्रह्माजी बोले — विरहवेदना से थोड़ा-सा मुक्त हुए भगवान् शिव इस प्रकार कहकर चुप हो गये । [वस्तुतः] निर्विकारी तथा सज्जनों के प्रिय वे प्रभु शिवजी लोकाचार का अनुसरण करते हैं ॥ २४ ॥ तब शिवजी से आज्ञा लेकर पृथ्वी शीघ्र पुत्रसहित अपने स्थान पर चली गयी और उसे अत्यन्त सुख प्राप्त हुआ ॥ २५ ॥ वह बालक भौम नाम प्राप्त करके शीघ्र ही युवा हो उस काशी में बहुत काल तक शिवजी की सेवा करता रहा । इस प्रकार वह भूमिपुत्र विश्वेश्वर की कृपा से ग्रहपद प्राप्तकर शुक्रलोक से भी आगे दिव्य लोक में चला गया ॥ २६-२७ ॥

हे मुने ! मैंने सती के विरहयुक्त शिव-चरित्र को कहा, अब आप शिवजी की तपस्या के आचरण को आदर के साथ सुनिये ॥ २८ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में भौम की उत्पत्ति तथा शिवलीला का वर्णन नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥

 

 

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