September 2, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 12 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः बारहवा अध्याय हिमवान् का पार्वती को शिव की सेवामें रखने के लिये उनसे आज्ञा माँगना, शिव द्वारा कारण बताते हुए इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देना ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] तदनन्तर शैलराज हर्षित होकर उत्तम फल-फूल का समूह लेकर अपनी पुत्री के साथ भगवान् हर के समीप गये । वहाँ जाकर उन्होंने ध्यानपरायण त्रिलोकीनाथ को प्रणाम करके अपनी अद्भुत कन्या काली को हृदय से उन्हें अर्पित कर दिया ॥ १-२ ॥ सब फल-फूल आदि उनके सामने रखकर और पुत्री को आगे करके वे शैलराज शम्भु से यह कहने लगे — ॥ ३ ॥ शिवमहापुराण हिमगिरि बोले — हे भगवन् ! मेरी पुत्री आप चन्द्रशेखर की सेवा करने के लिये बड़ी उत्सुक है, अतः आपकी आराधना की इच्छा से मैं इसको लाया हूँ ॥ ४ ॥ यह अपनी दो सखियों के साथ सदा आप शंकर की ही सेवा करेगी । हे नाथ ! यदि आपका मुझपर अनुग्रह है, तो इसे [सेवाके लिये] आज्ञा दीजिये ॥ ५ ॥ ब्रह्माजी बोले — तब शंकर ने यौवन की प्रथमावस्था में वर्तमान, पूर्ण चन्द्रमा के समान मुखवाली, विकसित नीलकमल के पत्र के समान आभावाली, समस्त लीलाओं की स्थानरूप, सुन्दर वेष से सुसज्जित, शंख के समान ग्रीवावाली, विशाल नेत्रोंवाली, सुन्दर कर्णयुगल से शोभित, मृणाल के समान चिकनी एवं लम्बी दो भुजाओं से मनोहर प्रतीत होनेवाली, कमलकली के समान घने, मोटे तथा दृढ़ स्तनों को धारण करनेवाली, पतले कटिप्रदेशवाली, त्रिवलीयुक्त मध्यभागवाली, स्थलपद्म के समान चरणयुगल से सुशोभित, अपने दर्शन से ध्यानरूपी पिंजड़े में बन्द मुनियों के मन को भी विचलित करने में समर्थ और स्त्रियों में सर्वश्रेष्ठ उस [कन्या]-को देखा ॥ ६-१० ॥ ध्यानियों के भी मन का हरण करनेवाली, विग्रह से तन्त्रमन्त्रों को बढ़ानेवाली तथा कामरूपिणी वैसी उस कन्या को देखकर उन महायोगी ने शीघ्र दोनों नेत्र बन्द कर लिये और वे अपने उत्तम, परमतत्त्वमय, तीनों गुणों से परे तथा अविनाशी स्वरूप का ध्यान करने लगे ॥ ११-१२ ॥ उस समय सर्वेश्वर, सर्वव्यापी, तप करते हुए, बन्द नेत्रोंवाले, चन्द्रकलारूप आभूषणवाले, जटा धारण करनेवाले, वेदान्त के द्वारा जाननेयोग्य तथा उत्तम आसन में स्थित शिव को देखकर महात्मा हिमालय ने उन्हें प्रणाम किया, वे पुनः संशय में पड़ गये । इसके बाद वाक्यवेत्ताओं में श्रेष्ठ गिरीश्वर जगत् के एकमात्र बन्धु शंकर से यह वचन कहने लगे — ॥ १३-१४ ॥ हिमालय बोले — हे देवदेव ! हे महादेव ! हे करुणाकर ! हे शंकर ! हे विभो ! आँखें खोलकर मुझ शरणागत को देखिये ॥ १५ ॥ हे शिव ! हे शर्व ! हे महेशान ! हे जगत् को आनन्द प्रदान करनेवाले प्रभो ! हे महादेव ! मैं सम्पूर्ण आपत्तियों को दूर करनेवाले आपको प्रणाम करता हूँ । हे देवेश ! वेद और शास्त्र भी आपको पूर्णरूप से नहीं जानते हैं; क्योंकि आपकी महिमा वाणी तथा मन के मार्ग से भी सर्वथा परे है ॥ १६-१७ ॥ सभी श्रुतियाँ भी आपकी महिमा का पार न पा सकने के कारण चकित होकर नेति-नेति कहते हुए सदा आपका वर्णन करती हैं, फिर दूसरों की क्या बात कही जाय ! ॥ १८ ॥ बहुत-से भक्त ही भक्ति के द्वारा आपकी कृपा प्राप्त करके उसे जान सकते हैं; क्योंकि [आपकी] शरण में आये हुए भक्तों को कहीं भी भ्रम आदि नहीं होता ॥ १९ ॥ अब आप दया करके इस समय मुझ अपने दास का निवेदन सुनें । हे देव ! हे तात ! मैं आपकी आज्ञा से दीन होकर उसका वर्णन कर रहा हूँ ॥ २० ॥ हे महादेव ! हे शंकर ! मैं आपकी कृपा से भाग्यशाली हो गया हूँ । हे नाथ ! मुझे अपना दास समझकर मुझपर कृपा करें, आपको नमस्कार है । हे प्रभो ! मैं आपके दर्शन के लिये प्रतिदिन इस कन्या के साथ आया करूँगा । हे स्वामिन् ! मुझे आज्ञा प्रदान कीजिये ॥ २१-२२ ॥ ब्रह्माजी बोले — उनका यह वचन सुनकर अपने नेत्र खोलकर ध्यान त्यागकर और कुछ सोच-विचारकर देवदेव महादेव यह वचन कहने लगे — ॥ २३ ॥ महेश्वर बोले — हे भक्त ! [अपनी] कन्या को घर पर ही छोड़कर नित्य मेरे दर्शन के लिये आप आ सकते हैं । अन्यथा मेरा दर्शन नहीं होगा ॥ २४ ॥ ब्रह्माजी बोले — महेश के इस प्रकार के वचन को सुनकर पार्वती के पिता हिमालय सिर झुकाकर शिवजी से यह कहने लगे — ॥ २५ ॥ हिमाचल बोले — [हे प्रभो!] इस कन्या के साथ [आपके दर्शन के लिये] किस कारण से मुझे नहीं आना चाहिये, इसे बताइये । क्या यह आपकी सेवा करने में अयोग्य है ? मैं इसका कारण नहीं समझ पा रहा हूँ ॥ २६ ॥ ब्रह्माजी बोले — तत्पश्चात् वृषभध्वज शंकर विशेषतः कुयोगियों का लोकाचार दिखाते हुए हँसकर हिमालय से कहने लगे — ॥ २७ ॥ शम्भु बोले — [हे शैलराज!] मनोहर नितम्बवाली, तन्वी, चन्द्रमुखी तथा सुन्दरी इस कन्या को मेरे सन्निकट मत लाइयेगा, इसके लिये मैं बार-बार मना करता हूँ ॥ २८ ॥ वेदों के पारगामी विद्वानों ने स्त्री को मायारूपा कहा है, उसमें भी विशेष रूप से युवती स्त्री तो तपस्वियों के लिये विघ्नकारिणी होती है ॥ २९ ॥ हे भूधर ! मैं तपस्वी, योगी तथा सदा माया से निर्लिप्त रहनेवाला हूँ । अतः मुझे युवती स्त्री से क्या प्रयोजन है ? हे तपस्वियों के श्रेष्ठ आश्रय ! आपको पुनः ऐसा नहीं कहना चाहिये; क्योंकि आप वेदधर्म में प्रवीण, ज्ञानियों में श्रेष्ठ तथा विद्वान् हैं ॥ ३०-३१ ॥ हे पर्वत ! उनके संग से शीघ्र ही विषयवासना उत्पन्न हो जाती है, वैराग्य नष्ट हो जाता है और उससे श्रेष्ठ तपस्या नष्ट हो जाती है । अतः हे शैल ! तपस्वियों को स्त्रियों का संग नहीं करना चाहिये; वह [स्त्री] महाविषय का मूल तथा ज्ञान-वैराग्य का नाश करनेवाली होती है ॥ ३२-३३ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे नारद ! इस प्रकार की बहुत-सी बातें उन गिरिराज से कहकर महान् योगियों में श्रेष्ठ महायोगी प्रभु महेश्वर चुप हो गये ॥ ३४ ॥ हे देवर्षे ! उन शम्भु का यह स्पृहारहित, निरामय तथा निष्ठुर वचन सुनकर काली के पिता [हिमालय] विस्मय में पड़ गये और वे कुछ-कुछ व्याकुल-से होकर चुप हो गये । उस समय तपस्वी के द्वारा कही गयी बात को सुनकर और गिरिराज को आश्चर्य में पड़ा हुआ विचार करके शिवजी को प्रणामकर भवानी उनसे विशद वचन कहने लगीं ॥ ३५-३६ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में शिव-हिमाचल संवादवर्णन नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥ [wpedon id=”5076″] Please follow and like us: Related