September 2, 2019 | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 13 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः तेरहवाँ अध्याय पार्वती और परमेश्वर का दार्शनिक संवाद, शिव का पार्वती को अपनी सेवा के लिये आज्ञा देना, पार्वती का महेश्वर की सेवा में तत्पर रहना भवानी बोलीं — हे योगिन् ! आपने तपस्वी होकर भी मेरे पिता से क्या कह दिया । हे ज्ञानविशारद ! उसका उत्तर मुझसे सुनिये । हे शम्भो ! आप तप की शक्ति से सम्पन्न होकर ही महातपस्या कर रहे हैं और [उसी महाशक्ति की ही प्रेरणा से] तपस्या करने के लिये आप महात्मा को ऐसी बुद्धि प्राप्त हुई है । सभी कर्मों को करनेवाली उस शक्ति को ही प्रकृति जानना चाहिये, उसी के द्वारा सबकी सृष्टि, पालन और संहार होता है ॥ १-३ ॥ शिवमहापुराण अतः हे भगवन् ! आप कौन हैं और सूक्ष्म प्रकृति क्या है, इसका आप विचार करें । प्रकृति के बिना लिंगरूपी महेश्वर किस प्रकार रह सकते हैं ? ॥ ४ ॥ आप प्रकृति के ही कारण सदा प्राणियों के लिये अर्चनीय, वन्दनीय और चिन्तनीय हैं [इस बात को] हृदय से विचारकर ही आप वह सब कहिये ॥ ५ ॥ ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] पार्वतीजी के उस वचन को सुनकर महती लीला करने में रत रहनेवाले प्रसन्नचित्त महेश्वर हँसकर कहने लगे — ॥ ६ ॥ महेश्वर बोले — मैं उत्तम तपस्या द्वारा ही प्रकृति का नाश करता हूँ और वस्तुतः प्रकृति से रहित होकर ही शम्भु के रूप में स्थित रहता हूँ । अतः सत्पुरुषों को कभी भी प्रकृति का संग्रह नहीं करना चाहिये और लोकाचार से दूर तथा विकाररहित रहना चाहिये ॥ ७-८ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे तात ! जब शम्भु ने लौकिक व्यवहार के अनुसार यह बात कही, तब काली मन-ही-मन हँसकर यह मधुर वचन कहने लगीं — ॥ ९ ॥ काली बोलीं — हे योगिन् ! हे शंकर ! हे प्रभो ! आपने जो बात कही है, क्या वह प्रकृति नहीं है, आप उससे परे कैसे हैं ? इन सबका तात्त्विक दृष्टि से ठीक-ठीक विचार करके ही आपको बोलना चाहिये । यह सब कुछ सदा प्रकृति से बँधा हुआ है । इसीलिये आपको न तो बोलना चाहिये और न कुछ करना ही चाहिये; क्योंकि कहना और करना सब व्यवहार प्रकृति ही है — ऐसा अपनी बुद्धि से समझिये ॥ १०-१२ ॥ आप जो कुछ सुनते, खाते, देखते और करते हैं, वह सब प्रकृति का ही कार्य है । इसे मिथ्या कह देना निरर्थक है । हे प्रभो ! शम्भो ! यदि आप प्रकृति से परे हैं, तो इस समय इस हिमवान् पर्वत पर आप तपस्या किसलिये कर रहे हैं । हे हर ! प्रकृति ने आपको निगल लिया है, अतः आप अपने को नहीं जानते । हे ईश ! यदि आप अपने को जानते हैं, तो किसलिये तप करते हैं ॥ १३-१५ ॥ हे योगिन् ! मुझे आपके साथ वाद-विवाद करने की क्या आवश्यकता है । विद्वान् पुरुष प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध होने पर अनुमान प्रमाण को नहीं मानते ॥ १६ ॥ जो कुछ प्राणियों की इन्द्रियों का विषय होता है, वह सब ज्ञानी पुरुषों को बुद्धि से विचारकर प्राकृत ही मानना चाहिये । हे योगीश ! बहुत कहने से क्या लाभ ! मेरी उत्तम बात सुनिये । मैं वह प्रकृति हूँ और आप पुरुष हैं । यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है ॥ १७-१८ ॥ मेरे अनुग्रह से ही आप सगुण और साकार माने गये हैं । मेरे बिना आप निरीह हैं और कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं । आप जितेन्द्रिय होने पर भी प्रकृति के अधीन हो नाना प्रकार के कर्म करते हैं, तब आप फिर निर्विकार कैसे हैं और मुझसे लिप्त कैसे नहीं हैं ? हे शंकर ! यदि आप प्रकृति से परे हैं और यदि आपका वचन सत्य है, तो मेरे समीप रहने पर भी आपको डरना नहीं चाहिये ॥ १९–२१ ॥ ब्रह्माजी बोले — पार्वती का सांख्यशास्त्र के अनुसार कहा हुआ वचन सुनकर भगवान् शिव वेदान्तमत में स्थित हो शिवा से यह वचन कहने लगे — ॥ २२ ॥ श्रीशिव बोले — सुन्दर भाषण करनेवाली हे गिरिजे ! यदि आप सांख्यमत को धारण करके ऐसा कहती हैं, तो प्रतिदिन मेरी अनिषिद्ध सेवा कीजिये, यदि मैं ब्रह्म, माया से निर्लिप्त, परमेश्वर, वेदान्त से जानने योग्य तथा मायापति हूँ, तब आप क्या करेंगी ? ॥ २३-२४ ॥ ब्रह्माजी बोले — गिरिजा से इस प्रकार कहकर भक्तों को प्रसन्न करनेवाले तथा भक्तों पर अनुग्रह करनेवाले भगवान् शिव हिमवान् से कहने लगे — ॥ २५ ॥ शिवजी बोले — हे गिरे ! मैं यहीं आपके अत्यन्त रमणीय श्रेष्ठ शिखर की भूमि पर उत्तम तपस्या के द्वारा आनन्दमय परमार्थ स्वरूप का विचार करता हुआ विचरण करूँगा । पर्वतराज ! आप मुझे यहाँ तपस्या करने की अनुमति दें, आपकी आज्ञा के बिना कोई तप नहीं किया जा सकता है ॥ २६-२७ ॥ ब्रह्माजी बोले — देवाधिदेव शूलधारी शिव की यह बात सुनकर हिमवान् ने शम्भु को प्रणाम करके यह वचन कहा — ॥ २८ ॥ हिमवान् बोले — हे महादेव ! देवता, असुर और मनुष्यों सहित सम्पूर्ण जगत् तो आपका ही है, मैं तुच्छ होकर आपसे क्या कहूँ ॥ २९ ॥ ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] हिमवान् के इस प्रकार कहने पर लोककल्याणकारी भगवान् शंकर ने हँसकर आदरपूर्वक उन गिरिराज से कहा-अब आप जाइये ॥ ३० ॥ शंकरजी की आज्ञा पाकर हिमवान् गिरिजा के साथ अपने घर लौट गये । तबसे वे गिरिजा के साथ प्रतिदिन उनका दर्शन करने लगे । काली अपने पिता के बिना भी दोनों सहेलियों के साथ नित्य भक्तिपरायण होकर सेवा के लिये शंकर के पास जाती थीं । हे तात ! महेश्वर के आदेश से उनकी आज्ञा का पालन करनेवाले पवित्र नन्दीश्वर आदि कोई भी गण उन्हें रोकते नहीं थे ॥ ३१-३३ ॥ विशेष विचार करने पर परस्पर अभिन्न होते हुए भी सांख्य और वेदान्तमतवाले शिवा तथा शिव का संवाद [सभी के लिये] सदा कल्याणदायक तथा सुखकर कहा गया है । इन्द्रियातीत भगवान् शंकर ने गिरिराज के कहने से उनका गौरव मानकर उनकी पुत्री को अपने पास रहकर सेवा करने के लिये स्वीकार कर लिया ॥ ३४-३५ ॥ भगवान् शंकर ने सखियोंसहित पार्वती से कहा कि तुम नित्य मेरी सेवा करो तथा चली जाओ अथवा निर्भय होकर यहाँ रहो । इस प्रकार कहकर निर्विकार, महायोगी तथा अनेक प्रकार की लीलाएँ करनेवाले भगवान् शंकर ने अपनी सेवा के लिये उन देवी को रख लिया । धैर्यशाली तथा परम तपस्वियों का यह महान् धैर्य ही है, जो विघ्नकारक वस्तुओं को ग्रहणकर भी विघ्नों से विनष्ट नहीं होता है ॥ ३६-३८ ॥ हे मुनीश्वर ! तत्पश्चात् गिरिराज अपने सेवकों के साथ अपने स्थान को चले आये और अपनी प्रिया के साथ मन में परम आनन्दित हुए ॥ ३९ ॥ भगवान् शंकर भी आदरपूर्वक ध्यान-योग के द्वारा निर्विघ्न मन से परमात्मा का चिन्तन करने लगे ॥ ४० ॥ काली भी प्रतिदिन सखियोंसहित चन्द्रशेखर महादेव की सेवा करती हुई वहाँ जाने-आने लगीं ॥ ४१ ॥ वे भगवान् शंकर के चरणों को धोकर उस चरणोदक का पान करती थीं और आग से [तपाकर] शुद्ध किये हुए वस्त्र से उनके शरीर को पोंछा करती थीं ॥ ४२ ॥ वे नित्यप्रति षोडशोपचार से विधिवत् भगवान् हर की पूजाकर बारंबार उन्हें प्रणामकर अपने पिता के घर चली जाती थीं । हे मुनिसत्तम ! इस प्रकार ध्यान में तत्पर भगवान् शंकर की सेवा करती हुई उन शिवा का बहुत समय व्यतीत हो गया । वे कभी अपनी सखियों के साथ भगवान् शंकर के आश्रम में ताल से समन्वित प्रेमवर्धक सुन्दर गान करती थीं ॥ ४३–४५ ॥ वे कभी कुशा, पुष्प तथा समिधाएँ स्वयं लाती थीं और सखियों के साथ आश्रम का सम्मान करती थीं ॥ ४६ ॥ वे कभी नियमपूर्वक शंकरजी के आश्रम में रहकर सकाम भाव से शंकरजी को देखती हुई उन्हें आश्चर्यचकित कर दिया करती थीं ॥ ४७ ॥ भगवान् शिव ने अपनी तपस्या के बल से निःसंग रहनेवाली उस काली को देखकर पंचतत्त्व के शरीर में रहनेवाली अपनी पूर्वजन्म की भार्या समझ लिया ॥ ४८ ॥ फिर भी शिवजी ने मुनियों को भी मोहित कर देनेवाली तथा महासौन्दर्य की राशिस्वरूप उन काली को अपनी पत्नी के रूप में ग्रहण नहीं किया ॥ ४९ ॥ महादेवजी भगवती को इस प्रकार जितेन्द्रिय होकर नित्यप्रति अपनी सेवामें संलग्न देखकर दयापूर्वक विचार करने लगे कि जब यह तपस्या का व्रत करेगी, तब अभिमानबीज से रहित इस काली को ग्रहण करूँगा ॥ ५०-५१ ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार विचार करके बड़ी-बड़ी लीलाएँ करनेवाले महायोगीश्वर भूतेश्वर भगवान् शिव शीघ्र ही ध्यान में तत्पर हो गये ॥ ५२ ॥ हे मने ! ध्यान में मग्न उन परमात्मा शंकर के मन में किसी अन्य चिन्ता का उदय नहीं हुआ ॥ ५३ ॥ काली भी उन्हीं परमात्मा शंकर के स्वरूप का चिन्तन करती हुई भक्तिपूर्वक निरन्तर उनकी सेवा करने लगीं ॥ ५४ ॥ भगवान् शिव ध्यान में स्थित हो पूर्व चिन्ताओं को भूलकर सुस्थित काली को देखा करते थे, वस्तुतः वे उन्हें देखते हुए भी नहीं देखते थे ॥ ५५ ॥ इसी समय महापराक्रमी तारकासुर से अत्यन्त पीड़ित इन्द्र आदि देवताओं तथा मुनियों ने उन रुद्र के साथ काली का कामभाव से योग कराने के लिये ब्रह्माजी की आज्ञा से कामदेव को आदरपूर्वक वहाँ भेजा ॥ ५६-५७ ॥ कामदेव ने वहाँ जाकर अपना समस्त उपाय लगाया, परंतु शिव कुछ भी विक्षुब्ध नहीं हुए और उन्होंने उसे भस्म कर दिया ॥ ५८ ॥ हे मुने ! पार्वती का भी अभिमान नष्ट हो गया और तत्पश्चात् नारदजी के उपदेशानुसार घोर तपस्या करके उन सती ने शिव को पतिरूप में प्राप्त किया ॥ ५९ ॥ इस प्रकार परमेश्वर एवं पार्वती परम प्रसन्न हो गये और परोपकार में परायण होकर देवकार्य को पूर्ण करने लगे ॥ ६० ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में पार्वती और परमेश्वर का संवादवर्णन नामक तेरहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १३ ॥ Related