शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 14
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
चौदहवाँ अध्याय
तारकासुर की उत्पत्ति के प्रसंग में दितिपुत्र वज्रांग की कथा, उसकी तपस्या तथा वरप्राप्ति का वर्णन

नारदजी बोले — हे विष्णुशिष्य ! हे महाशैव ! हे विधे ! आपने यह शिवा एवं शिवजी के परम पवित्र चरित्र का अच्छी तरह से वर्णन किया ॥ १ ॥ हे ब्रह्मन् ! तारकासुर कौन था, जिसने देवताओं को दुःखित किया, वह किसका पुत्र था, शिवजी से सम्बन्धित उस कथा को [आप मुझसे] कहिये । जितेन्द्रिय शंकर ने किस प्रकार कामदेव को भस्म किया ? भगवान् शंकर के इस अद्भुत चरित्र का भी प्रसन्नतापूर्वक वर्णन कीजिये ॥ २-३ ॥

शिवमहापुराण

जगत् से परे आदिशक्ति पार्वती ने किस प्रकार अत्यन्त कठोर तप किया और अपने सुख के लिये उन्होंने शंकर को किस प्रकार पतिरूप में प्राप्त किया ? ॥ ४ ॥ हे महाज्ञानी ! आप मुझ श्रद्धावान् तथा शिवभक्त अपने पुत्र से यह सम्पूर्ण चरित्र विशेष रूप से कहिये ॥ ५ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे पुत्रवर्य ! हे महाप्राज्ञ ! हे सुरर्षे ! हे प्रशंसनीय व्रतवाले ! मैं शंकर का स्मरणकर उनके सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन कर रहा हूँ, आप सुनें ॥ ६ ॥ हे नारद ! सबसे पहले आप तारकासुर की उत्पत्ति को सुनें, जिसके वध के लिये देवताओं ने शिव का आश्रय लेकर बड़ा यत्न किया था ॥ ७ ॥ मेरे पुत्र जो मरीचि थे, उनके पुत्र कश्यप हुए । उनकी तेरह स्त्रियाँ थीं, जो दक्ष की कन्याएँ थीं ॥ ८ ॥ उनकी सबसे बड़ी पत्नी दिति थी, उसके दो पुत्र हुए । उनमें हिरण्यकशिप ज्येष्ठ तथा हिरण्याक्ष छोटा था ॥ ९ ॥

भगवान् विष्णु ने नृसिंह तथा वराहरूप धारणकर अत्यन्त दुःख देनेवाले उन दोनों का वध किया । तत्पश्चात् देवगण निर्भय और सुखी रहने लगे ॥ १० ॥ इससे दिति दुखी हुई और वह कश्यप की शरण में गयी । उस पतिव्रता ने उनकी सेवाकर भक्तिपूर्वक पुनः गर्भ धारण किया । यह जानकर महान् परिश्रमी देवराज इन्द्र ने अवसर पाकर उसके गर्भ में प्रविष्ट होकर वज्र से उसके गर्भ के टुकड़े-टुकड़े कर दिये । किंतु उसके व्रत के प्रभाव से उसका गर्भ नहीं मरा और दैवयोग से सोती हुई उसके गर्भ से उनचास पुत्र उत्पन्न हुए ॥ ११-१३ ॥ वे सभी पुत्र मरुत् नाम के देवता हुए और स्वर्ग को चले गये । देवराज ने उन्हें अपना लिया । तब दिति अपने कर्म से अनुतप्त हो पुनः उनकी सेवा करने लगी और उसने महान् सेवा से उन मुनि को प्रसन्न कर लिया ॥ १४-१५ ॥

कश्यप बोले — हे भद्रे ! यदि तुम पवित्र होकर ब्रह्मा के दस हजार वर्षपर्यन्त तपस्या करो, तो तुम्हारे गर्भ से पुनः महापराक्रमी पुत्र का जन्म हो सकता है ॥ १६ ॥ हे मुने ! दिति ने श्रद्धा के साथ जब तपस्या पूरी की, तब अपने पति से गर्भ धारणकर वैसा ही पुत्र उत्पन्न किया ॥ १७ ॥ दिति का वह पुत्र देवताओं के समान था, वह वज्रांग नाम से विख्यात हुआ । उसका शरीर नाम के अनुसार ही [वज्र के समान] था । वह जन्म से महाप्रतापी और बलवान् था ॥ १८ ॥ उस पुत्र ने अपनी माता की आज्ञा से बलपूर्वक देवराज इन्द्र तथा देवताओं को भी पकड़कर अनेक प्रकार का दण्ड दिया । इस प्रकार इन्द्र आदि की दुर्दशा देखकर दिति बहुत प्रसन्न हुई तथा इन्द्र आदि देवता अपने-अपने कर्मफल के अनुसार बड़े दुखी हुए ॥ १९-२० ॥

तब देवताओं की सदा भलाई करनेवाले मैंने कश्यप को साथ लेकर वहाँ पहुँचकर शान्ति की बात कहकर देवताओं को उस वज्रांग से छुड़ाया ॥ २१ ॥ तत्पश्चात् शुद्धात्मा, निर्विकार वह शिवभक्त वज्रांग देवताओं को मुक्त करके प्रसन्नचित्त होकर आदरपूर्वक कहने लगा — ॥ २२ ॥

वज्रांग बोला — यह इन्द्र बड़ा स्वार्थी और दुष्ट है । इसने ही मेरी माता की सन्तानों को नष्ट किया है, इसको अपने कर्म का फल मिल गया, अब यह अपना राज्यपालन करे ॥ २३ ॥ हे ब्रह्मन् ! यह सारा कार्य मैंने माता की आज्ञा से किया है । मुझे किसी भुवन के भोग की अभिलाषा नहीं है ॥ २४ ॥ हे वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ब्रह्मन् ! आप मुझे वेदतत्त्व का सार बताइये, जिससे मैं सदा परम सुखी, विकाररहित तथा प्रसन्नचित्त हो जाऊँ ॥ २५ ॥

हे मुने ! यह सुनकर मैंने उससे कहा — जो सात्त्विक भाव है, वही तत्त्वसार है । मैंने [तुम्हारे लिये] प्रसन्नतापूर्वक एक सुन्दर स्त्री का निर्माण किया है ॥ २६ ॥ उस वरांगी नामवाली स्त्री को मैंने उस दितिपुत्र को प्रदानकर उसके पिता को अत्यन्त प्रसन्नकर मैं अपने घर चला गया और कश्यप भी अपने स्थान को लौट गये ॥ २७ ॥ तब वह दैत्य वज्रांग सात्त्विक भाव से युक्त हो गया और राक्षसी भाव को छोड़कर वैररहित हो सुख भोगने लगा ॥ २८ ॥ किंतु वरांगी के हृदय में सात्त्विक भाव का उदय नहीं हुआ और वह सकाम होकर श्रद्धापूर्वक अपने पति की अनेक प्रकार से सेवा करने लगी ॥ २९ ॥ वरांगी का पति महाप्रभु वह वज्रांग उसकी सेवासे सन्तुष्ट हो गया और उससे कहने लगा — ॥ ३० ॥

वज्रांग बोला — हे प्रिये ! तुम क्या चाहती हो, तुम्हारे मन में क्या [विचार] है ? मुझे बताओ । तब उसने विनम्र होकर पति से अपने मनोरथ को कहा — ॥ ३१ ॥

वरांगी बोली — हे सत्पते ! यदि आप [मुझसे] प्रसन्न हैं, तो मुझे ऐसा पुत्र दीजिये, जो महाबली, त्रिलोकी को जीतनेवाला तथा इन्द्र को दुःख देनेवाला हो ॥ ३२ ॥

ब्रह्माजी बोले — अपनी पत्नी का यह वचन सुनकर वह व्याकुल तथा आश्चर्यचकित हो गया । वैररहित, ज्ञानी एवं सात्त्विक वह वज्रांग अपने मन में सोचने लगा — ॥ ३३ ॥

मेरी प्रिया देवताओं से विरोध करना चाहती है, परंतु मुझे यह अच्छा नहीं लगता । अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ और कौन ऐसा उपाय करूँ, जिससे मेरी प्रतिज्ञा नष्ट न हो ॥ ३४ ॥ यदि प्रिया का मनोरथ पूर्ण होता है, तो तीनों लोक कष्ट में पड़ जायँगे तथा देवता और मुनि भी दुखी हो जायँगे ॥ ३५ ॥ परंतु यदि प्रिया का मनोरथ पूर्ण नहीं हुआ, तो मुझे नरक भोगना पड़ेगा । दोनों ही प्रकार से धर्म की हानि होगी, ऐसा मैंने [धर्मशास्त्रों से] सुना है ॥ ३६ ॥

हे मुने ! इस तरह धर्मसंकट में पड़ा हुआ वह वज्रांग भ्रम में पड़ गया, वह अपनी बुद्धि से दोनों बातों के उचित-अनुचित [पक्षों]-पर विचार करने लगा ॥ ३७ ॥ हे मुने ! [उस समय] उस बुद्धिमान् वज्रांग ने शिव की इच्छा से स्त्री की बात मान ली । उस दैत्यराज ने प्रिया से कहा — ठीक है, ऐसा ही होगा ॥ ३८ ॥ तत्पश्चात् उसने इस निमित्त जितेन्द्रिय होकर मेरे उद्देश्य से बहुत वर्षों तक प्रीतिपूर्वक तप किया ॥ ३९ ॥ तब उसका महातप देखकर उसे वर प्रदान करने के लिये मैं गया और प्रसन्नमन से मैंने उससे कहा —वर माँगो ॥ ४० ॥ उस समय वज्रांग ने प्रसन्न हुए मुझ विभु को आकाश में स्थित देखकर प्रणाम करके नाना प्रकार की स्तुतिकर प्रिया के लिये हितकारी वर माँगा ॥ ४१ ॥

वज्रांग बोला — हे प्रभो ! आप मुझे ऐसा पुत्र दीजिये, जो अपनी माता का तथा मेरा परम हित करनेवाला, महाबली, महाप्रतापी, सर्वसमर्थ और तपोनिधि हो ॥ ४२ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! उसका यह वचन सुनकर मैंने ‘तथास्तु’ कहा और इस प्रकार उसे वर देकर शिव का स्मरण करते हुए उदास होकर मैं अपने स्थान को लौट आया ॥ ४३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में तारक की उत्पत्ति के प्रसंग में वज्रांग की उत्पत्ति और उसकी तपस्या का वर्णन नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १४ ॥

 

 

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