शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 15
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
पन्द्रहवाँ अध्याय
वरांगी के पुत्र तारकासुर की उत्पत्ति, तारकासुर की तपस्या एवं ब्रह्माजी द्वारा उसे वरप्राप्ति, वरदान के प्रभाव से तीनों लोकों पर उसका अत्याचार

ब्रह्माजी बोले — तदनन्तर वरांगी ने आदरपूर्वक गर्भ धारण किया । वह बहुत वर्षों तक परम तेज से भीतर ही बढ़ता रहा । तत्पश्चात् समय पूरा होने पर वरांगी ने विशालकाय, महाबलवान् तथा अपने तेज से दसों दिशाओं को दीप्त करनेवाले पुत्र को उत्पन्न किया ॥ १-२ ॥ देवताओं को दुःख देनेवाले उस वरांगीपुत्र के उत्पन्न होने पर दुःख के हेतु महान् उत्पात होने लगे । हे तात ! उस समय स्वर्ग, भूमि तथा आकाश में सभी लोकों को भयभीत करनेवाले अनर्थसूचक तीन प्रकार के उत्पात हुए, मैं उनका वर्णन कर रहा हूँ ॥ ३-४ ॥

शिवमहापुराण

[आकाश से] महान् शब्द करते हुए भयंकर उल्कायुक्त वज्र गिरने लगे और जगत् को दुःख देनेवाले अनेक सुतीक्ष्ण केतु उदय हो गये । पर्वतसहित पृथ्वी चलायमान हो गयी, सभी दिशाएँ प्रज्वलित हो गयीं, सभी नदियाँ एवं विशेषकर समुद्र क्षुब्ध होने लगे ॥ ५-६ ॥ भयंकर हू-हू शब्द करते हुए तीक्ष्ण स्पर्शवाली हवा बहने लगी और धूल उड़ाती एवं वृक्षों को उखाड़ती हुई आँधी चलने लगी । हे विप्रेन्द्र ! राहुसहित सूर्य और चन्द्रमा के ऊपर बार-बार मण्डल पड़ने लगे, जो महाभय के सूचक तथा सुख का नाश करनेवाले थे ॥ ७-८ ॥

उस समय पर्वतों की गुफाओं से रथ की नेमि के समान घर्घर एवं भयसूचक महान् शब्द होने लगे । सियार एवं उल्लू अपने मुख से भयानक टंकारयुक्त शब्द करते हुए अग्नि उगलने लगे और सियारिनें गाँवों के भीतर घुसकर अत्यन्त अमंगल तथा महाभयानक शब्द करने लगीं ॥ ९-१० ॥ कुत्ते जहाँ-तहाँ गर्दन उठाकर संगीत के समान और रुदन के समान अनेक प्रकार के शब्द करने लगे ॥ ११ ॥ हे तात ! गधे रेंकने के भयानक शब्द से मत्त होकर अपने खुरों से पृथिवी को खोदते हुए झुण्ड के झुण्ड इधर-उधर दौड़ने लगे ॥ १२ ॥ पक्षी घोसलों से उड़ने लगे । गदहे भयभीत हो गये और व्याकुलचित्त होकर भयानक शब्द करने लगे । उन्हें कहीं भी शान्ति नहीं मिल रही थी ॥ १३ ॥ पशु ताड़ित हुए के समान अपने गोष्ठ में और अरण्य में भयभीत होकर बारंबार मल-मुत्र का त्याग करने लगे और जहाँ-तहाँ इधर से उधर भागने लगे । वे एक जगह ठहरते नहीं थे । गायें भय से आक्रान्त हो उठीं, उनके स्तनों से रुधिर निकलने लगा, नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित हो उठी और वे व्याकुल हो गयीं । बादल भी भय उत्पन्न करते हुए पीव की वर्षा करने लगे ॥ १४-१५ ॥

देवताओं की प्रतिमाएँ उछलकर रोने लगीं, बिना आँधी के वृक्ष गिरने लगे और आकाश में ग्रहों का युद्ध होने लगा । हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार अनेक उत्पात होने लगे । अज्ञानी लोग उस समय यह समझ बैठे कि विश्वप्रलय हो रहा है । तदनन्तर प्रजापति कश्यप ने विचार करके उस महातेजस्वी असुर का नाम तारक रखा ॥ १६–१८ ॥ वह महावीर सहसा अपने पौरुष को प्रकट करता हुआ वज्रतुल्य शरीर से पर्वतराज के समान बढ़ने लगा ॥ १९ ॥ तत्पश्चात् उस महाबली, महापराक्रमी तथा मनस्वी तारक दैत्य ने तपस्या करने के लिये माता से आज्ञा माँगी । मायावियों को भी मोहित करनेवाले उस महामायावी दैत्य ने अपनी माता से आज्ञा प्राप्त कर सभी देवताओं पर विजय प्राप्त करने के लिये अपने मन में तप करने का विचार किया ॥ २०-२१ ॥

गुरु की आज्ञा का पालन करनेवाला वह दैत्य मधुवन में जाकर ब्रह्माजी को लक्ष्य करके विधिपूर्वक अत्यन्त कठोर तपस्या करने लगा ॥ २२ ॥ उस दृढ़व्रत दैत्य ने चित्त को स्थिरकर नेत्रों द्वारा सूर्य को देखते हुए अपनी भुजाओं को ऊपर उठाकर एक पैर पर खड़े होकर सौ वर्षपर्यन्त तपस्या की ॥ २३ ॥ तदनन्तर पैर के अँगूठे से भूमि को टेककर दृढ़चित्तवाले तथा ऐश्वर्यशाली महान् असुरराज तारक ने उसी प्रकार सौ वर्ष तक तपस्या की ॥ २४ ॥ सौ वर्ष तक जल पीकर, सौ वर्ष तक वायु पीकर, सौ वर्ष तक जल में खड़ा रहकर और सौ वर्ष तक स्थण्डिल पर रहकर उसने तपस्या की ॥ २५ ॥ सौ वर्ष तक अग्नि के बीच में, सौ वर्ष तक नीचे की ओर मुख करके और सौ वर्ष तक हथेली के बल पृथ्वी पर स्थित होकर वह तपस्या करता रहा । हे मुने ! वह सौ वर्ष तक वृक्ष की शाखा को दोनों पैरों से पकड़कर नीचे की ओर मुख करके पवित्र धूम का पान करता रहा ॥ २६-२७ ॥

इस प्रकार उस असुरराज ने अपने मनोरथ को लक्ष्य करके सुननेवालों को भी सर्वथा दुःसह जान पड़नेवाला अत्यन्त कठिन तथा कष्टकर तप किया ॥ २८ ॥ हे मुने ! इस प्रकार तप करते हुए उसके सिर से चारों दिशाओं में फैलनेवाला एक महान् उपद्रवकारी महातेज निकला ॥ २९ ॥ हे मुने ! उस तेज से सभी देवलोक प्रायः जलने लगे और चारों ओर समस्त देवता तथा ऋषिगण बड़े दुखी हुए ॥ ३० ॥ उस समय देवराज इन्द्र अधिक भयभीत हुए कि निश्चय ही इस समय कोई तप कर रहा है, वह मेरे पद को भी छीन लेगा ॥ ३१ ॥ वह ऐश्वर्यशाली तो असमय में ही ब्रह्माण्ड का संहार कर डालेगा — इस प्रकार सन्देह में पड़े हुए [देवता] लोग कुछ भी निश्चय नहीं कर पा रहे थे ॥ ३२ ॥

तदनन्तर सभी देवता एवं ऋषि परस्पर विचार करके भयभीत एवं दीन होकर मेरे लोक में पहुंचे और मेरे सामने उपस्थित हुए ॥ ३३ ॥ व्यथित चित्तवाले उन सभी ने प्रणामकर मेरी स्तुति करके हाथ जोड़कर सारा वृत्तान्त मुझसे कहा ॥ ३४ ॥ मैं भी सद्बुद्धि से [उनकी व्यग्रता का] समस्त कारण जानकर जिस स्थान पर असुर तप कर रहा था, उस स्थान पर उसे वर देने के लिये गया ॥ ३५ ॥

हे मुने ! मैंने उससे कहा — [हे दैत्य!] तुमने घोर तपस्या की है, अत: वर माँगो, मुझे कोई भी वस्तु तुम्हारे लिये अदेय नहीं है । तब मेरा वचन सुनकर उस महान् असुर तारक ने मुझे प्रणाम करके तथा मेरी स्तुति कर अत्यन्त कठिन वर माँगा ॥ ३६-३७ ॥

तारक बोला — हे पितामह ! वर देनेवाले आपके प्रसन्न हो जाने पर मेरे लिये क्या असाध्य हो सकता है, अतः मैं आपसे वर माँगता हूँ, उसे मुझसे सुनिये ॥ ३८ ॥ हे देवेश ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं और यदि मुझे वर देना चाहते हैं, तो मेरे ऊपर कृपा करके मुझे दो वर दीजिये ॥ ३९ ॥ हे महाप्रभो ! आपके बनाये हुए इस समस्त लोक में कोई भी पुरुष मेरे समान बलवान् न हो और शिवजी के वीर्य से उत्पन्न हुआ पुत्र देवताओं का सेनापति बनकर जब मेरे ऊपर शस्त्र प्रहार करे, तब मेरी मृत्यु हो ॥ ४०-४१ ॥

हे मुनीश्वर ! जब उस दैत्य ने मुझसे इस प्रकार कहा, तब मैं उसे उसी प्रकार का वर देकर शीघ्रतापूर्वक अपने स्थान को चला गया ॥ ४२ ॥ वह दैत्य भी मनोवांछित उत्तम वर प्राप्तकर अत्यन्त प्रसन्न होकर शोणित नामक पुर को चला गया ॥ ४३ ॥ उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने मेरी आज्ञा से असुरों के साथ जाकर त्रिलोकी के राज्य पर उस महान् असुर का अभिषेक किया । तब वह महादैत्य त्रैलोक्याधिपति हो गया और चराचर को पीडित करता हुआ अपनी आज्ञा चलाने लगा । इस प्रकार वह तारक विधिपूर्वक त्रैलोक्य का राज्य करने लगा और देवता आदि को पीड़ा पहुँचाता हुआ प्रजापालन करने लगा ॥ ४४–४६ ॥

तदनन्तर उस तारकासुर ने इन्द्र आदि लोकपालों के रत्नों को ग्रहण कर लिया, उन्होंने उसके भय से [रत्न] स्वयं प्रदान किये ॥ ४७ ॥ इन्द्र ने उसके भय से उसे ऐरावत हाथी समर्पित कर दिया और कुबेर ने नौ निधियाँ दे दीं । वरुण ने श्वेतवर्ण के घोड़े, ऋषियों ने कामधेनु और इन्द्र ने उच्चैःश्रवा नामक दिव्य घोड़ा भय के कारण उसे समर्पित कर दिया ॥ ४८-४९ ॥ उस असुर ने जहाँ-जहाँ अच्छी वस्तुएँ देखीं, उन्हें बलपूर्वक हरण कर लिया । इस प्रकार त्रिलोकी सर्वथा निःसार हो गयी ॥ ५० ॥

हे मुने ! समुद्रों ने भी भय से उसे समस्त रत्न प्रदान कर दिये, बिना जोते-बोये ही पृथिवी अन्न प्रदान करने लगी और सभी प्रजाओं के मनोरथ पूर्ण हो गये ॥ ५१ ॥ सूर्य उतना ही तपते थे, जिससे किसी को कष्ट न हो, चन्द्रमा उजाला करते रहते और वायु सबके अनुकूल ही चलता था ॥ ५२ ॥ उस दुरात्मा असुर ने देवताओं, पितरों तथा अन्य का जो भी द्रव्य था, वह सब हरण कर लिया ॥ ५३ ॥ इस प्रकार वह तीनों लोकों को अपने अधीनकर स्वयं इन्द्र बन बैठा । वह इन्द्रियों को वश में रखनेवाला अद्वितीय राजा हुआ और अद्भुत प्रकार से राज्य करने लगा ॥ ५४ ॥

उसने समस्त देवताओं को हटाकर उनकी जगह दैत्यों को नियुक्त कर दिया और देवताओं को अपने कर्म में नियुक्त किया । हे मुने ! तदनन्तर उससे पीड़ित हुए इन्द्र आदि समस्त देवगण अनाथ तथा अत्यन्त व्याकुल होकर मेरी शरण में आये ॥ ५५-५६ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में तारकासुर की तपस्या एवं उसके राज्य का वर्णन नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १५ ॥

 

 

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