शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 18
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
अठारहवाँ अध्याय
कामदेव द्वारा असमय में वसन्त-ऋतु का प्रभाव प्रकट करना, कुछ क्षण के लिये शिव का मोहित होना, पुनः वैराग्य-भाव धारण करना

ब्रह्माजी बोले — शिवजी की माया से मोहित होकर वह महाभिमानी तथा मोह उत्पन्न करनेवाला काम शिवजी के समीप जाकर वसन्त-ऋतु के गुण-धर्म को फैलाता हुआ वहाँ स्थित हो गया ॥ १ ॥ हे मुनीश्वर ! वसन्त का जो प्रभाव है, वह महेश के तपःस्थान औषधिशिखर पर सभी ओर फैल गया ॥ २ ॥ हे महामुने ! हे मुनीश्वर ! वहाँ उसके प्रभाव से पादपों के वन विशेषरूप से पुष्पित हो उठे ॥ ३ ॥

शिवमहापुराण

अशोक की वाटिकाओं में सहकारों के कामोद्दीपक तथा सुगन्धित पुष्प विराजने लगे । भौंरों से घिरे हुए कुमुद के पुष्प विशेषरूप से कामावेश को बढ़ानेवाले हो गये ॥ ४-५ ॥ [उस समय] कोयलों का कलरव काम को अत्यधिक उद्दीप्त करनेवाला, सुरम्य, मनोहर और अतिप्रिय हो गया ॥ ६ ॥ हे मुने ! भौंरों के अनेक प्रकार के शब्द होने लगे, जो सबके मन को हर लेनेवाले तथा काम-वासना को उत्तेजित करनेवाले थे । चन्द्रमा की मनोहर ज्योत्स्ना चारों ओर फैल गयी, वह कामियों तथा कामिनियों की दूती के समान हो गयी । वह [ज्योत्स्ना] मानीजनों को रति आदि के लिये प्रेरित तथा रतिकाल को और भी उद्दीप्त करनेवाली थी । हे साधो ! [उस समय] विरहीजन के लिये अप्रिय सुखकारी वायु बहने लगी ॥ ७–९ ॥

इस प्रकार कामावेश को बढानेवाला वह वसन्त का विस्तार वहाँ वन में रहनेवाले मुनियों के लिये भी अत्यन्त असह्य हो गया ॥ १० ॥ हे मुने ! उस समय जड़ पदार्थों में भी जब काम का संचार होने लगा, तब सचेतन प्राणियों की कथा का किस प्रकार वर्णन किया जाय । इस प्रकार सभी प्राणियों के लिये काम को उद्दीप्त करनेवाले उस वसन्त ने अपना अत्यन्त दुस्सह प्रभाव उत्पन्न किया ॥ ११-१२ ॥ हे तात ! तब अपनी लीला के लिये शरीर धारण करनेवाले प्रभु शंकर ने असमय में उस वसन्त के प्रभाव को देखकर इसे महान् आश्चर्य समझा ॥ १३ ॥

इसके बाद लीला करनेवाले तथा दुःखहरण करनेवाले परम संयमी प्रभु शिव परम दुष्कर तपस्या करने लगे ॥ १४ ॥ तदनन्तर वहाँ वसन्त के फैल जाने पर रतिसहित वह काम आम्रमंजरी का बाण चढ़ाकर उनके बाँयीं ओर खड़ा हो गया और प्राणियों को मोहित करता हुआ अपना प्रभाव फैलाने लगा । उस समय रतिसहित काम को देखकर भला कौन [प्राणी] मोहित नहीं हुआ ॥ १५-१६ ॥ इस प्रकार उनके कामक्रीडा में प्रवृत्त हो जाने पर शृंगार भी हाव-भाव से युक्त होकर अपने गणों के साथ शिवजी के समीप पहुँचा ॥ १७ ॥

चित्त में निवास करनेवाला कामदेव वहाँ बाहर प्रकट हो गया, उस समय वह शंकर में कोई छिद्र नहीं देख पाया, जिससे वह प्रवेश कर सके ॥ १८ ॥ जब कामदेव ने उन योगिश्रेष्ठ महादेव में छिद्र नहीं पाया, तब वह महान् भय से विमोहित हो गया ॥ १९ ॥ धधकती हुई ज्वालावाली अग्नि के समान भालनेत्र से युक्त ध्यानस्थ शंकर के पास जाने में कौन समर्थ है ? ॥ २० ॥

इसी समय पार्वती भी दो सखियों के साथ अनेक प्रकार के पुष्प लेकर शिव की पूजा करने के लिये वहाँ पहुँच गयीं । लोग पृथिवी पर जिस-जिस प्रकार के महान् सौन्दर्य का वर्णन करते हैं, वह सब तथा उससे भी अधिक सौन्दर्य उन पार्वतीजी में है ॥ २१-२२ ॥ उन्होंने ऋतुकालीन सुन्दर पुष्पों को धारण किया था, उनकी सुन्दरता का वर्णन सैकड़ों वर्षों में भी कैसे किया जा सकता है ! जिस समय वे पार्वती शिवजी के समीप पहुँची, उस समय शिवजी क्षणभर के लिये ध्यान त्यागकर अवस्थित हो गये ॥ २३-२४ ॥

उस छिद्र को पाकर काम ने पहले [अपने] हर्षण नामक बाण से समीपस्थ शंकर को हर्षित कर दिया ॥ २५ ॥ हे मुने ! उस समय पार्वती भी शृंगार एवं भावों से युक्त होकर मलयानिल के साथ [मानो] काम की सहायता करने के लिये शिव के सन्निकट गयी हुई थीं ॥ २६ ॥ उसी समय कामदेव ने शूलधारी शिव को [पार्वती में] रुचि उत्पन्न करने के लिये अपना धनुष खींचकर शीघ्र ही बड़ी सावधानी से उनपर पुष्प-बाण छोड़ा ॥ २७ ॥

जिस प्रकार पार्वती नित्य निरन्तर शिवजी के पास आती थीं, उसी प्रकार आकर उन्हें प्रणाम करके उनकी पूजाकर वे उनके सामने खड़ी हो गयीं ॥ २८ ॥ उस समय प्रभु शंकर ने स्त्रीस्वभाववश लज्जा के कारण अपने अंगों को ढकती हुई उन पार्वती को वहाँ देखा ॥ २९ ॥ हे मुने ! पूर्व समय में पार्वती को ब्रह्मा के द्वारा दिये गये वरदान का भली-भाँति स्मरण करके प्रभु शिव भी प्रसन्नतापूर्वक उनके अंगों का वर्णन करने लगे ॥ ३० ॥

शिवजी बोले — यह मुख है या चन्द्रमा, ये नेत्र हैं अथवा दो कमल और ये दोनों भृकुटी हैं या महात्मा कामदेव के धनुष, यह अधर है अथवा बिम्बफल, यह नासिका है या तोते की चोंच है, यह स्वर है या कोकिल की मनोहर कूक है और यह मध्यभाग [कमर] है या वेदी है ॥ ३१-३२ ॥ इसकी चाल का क्या वर्णन किया जाय, इसके रूप का क्या वर्णन किया जाय और इसके पुष्पों तथा वस्त्रों का भी क्या वर्णन किया जाय ! ॥ ३३ ॥ सृष्टि में जितनी उत्तम सुन्दरता है, वह एकत्रित कर इसमें रच दी गयी है । इसके सभी अंग सब प्रकार से रमणीय हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३४ ॥ अहो ! अद्भुत रूपवाली यह पार्वती धन्य है, तीनों लोकों में इसके समान सुन्दर रूपवाली कोई भी स्त्री नहीं है । अद्भुत अंगों को धारण करनेवाली यह लावण्य की निधि है । यह मुनियों को भी मोहनेवाली और महासुख को बढ़ानेवाली है ॥ ३५-३६ ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार बार-बार उनके अंगों का वर्णन करके शिवजी ब्रह्मा को दिये गये वरदान का स्मरणकर मौन हो गये । उस समय ज्यों ही शंकरजी ने उनके वस्त्रों का स्पर्श किया, वे पार्वती स्त्रीस्वभाव के कारण लज्जित होकर कुछ दूर चली गयीं ॥ ३७-३८ ॥ हे मुने ! अपने अंगों को छिपाती हुई तथा तीक्ष्ण कटाक्षों से बार-बार [शिवजी की ओर] देखती हुई वे शिवा महामोद के कारण मुसकराने लगीं ॥ ३९ ॥

उनकी इस चेष्टा को देखकर शंकरजी मोह में पड़ गये और तब महान् लीला करनेवाले महेश्वर ने यह वचन कहा — जब इसके दर्शनमात्र से इतना अधिक आनन्द प्राप्त हो रहा है, तब यदि मैं इसका सामीप्य प्राप्त करूँ तो कितना सुख प्राप्त होगा । इस प्रकार क्षणभर विचारकर गिरिजा की प्रशंसा करके वे महायोगी बोधयुक्त हुए और विरक्त हो बोले — ॥ ४०-४२ ॥

यह कैसा विचित्र चरित्र हो गया ? क्या मैं मोह को प्राप्त हो गया । प्रभु तथा ईश्वर होकर भी काम के कारण मैं विकारयुक्त हो गया । मैं ईश्वर हूँ और यदि दूसरे के अंगस्पर्श की मेरी यह इच्छा है, तो अन्य अक्षम तथा क्षुद्र पुरुष क्या-क्या [अनर्थ] नहीं करेगा ॥ ४३-४४ ॥

इस प्रकार वैराग्यभाव को प्राप्तकर उन सर्वात्मा ने पर्यंक एवं आसन का परित्याग कर दिया; क्योंकि क्या परमेश्वर पतित हो सकता है ! ॥ ४५ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में कामकृतविकारवर्णन नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥

 

 

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