September 3, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 19 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः उन्नीसवाँ अध्याय भगवान् शिव की नेत्रज्वाला से कामदेव का भस्म होना और रति का विलाप, देवताओं द्वारा रति को सान्त्वना प्रदान करना और भगवान् शिव से काम को जीवित करने की प्रार्थना करना नारदजी बोले — हे ब्रह्मन् ! हे विधे ! हे महाभाग ! इसके अनन्तर फिर क्या हुआ ? आप मुझपर दयाकर इस पाप को विनष्ट करनेवाली कथा का पुनः वर्णन कीजिये ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे तात ! इसके अनन्तर जो हुआ, उसे आप सुनें । मैं आपके स्नेहवश आनन्ददायक शिवलीला का वर्णन करूँगा । [हे नारद!] उसके बाद महायोगी महेश्वर [अपने] धैर्य के नाश को देखकर अत्यन्त विस्मित हो मन में इस प्रकार विचार करने लगे ॥ २-३ ॥ शिवमहापुराण शिवजी बोले — मैं तो उत्तम तपस्या कर रहा था, उसमें विघ्न कैसे आ गया ! किस कुकर्मी ने यहाँ मेरे चित्त में विकार पैदा कर दिया है ! मैंने दूसरे की स्त्री के विषय में प्रेमपूर्वक निन्दित वर्णन किया । यह तो धर्म का विरोध हो गया और शास्त्र-मर्यादा का उल्लंघन हुआ ॥ ४-५ ॥ ब्रह्माजी बोले — तब सज्जनों के एकमात्र रक्षक महायोगी परमेश्वर शिव इस प्रकार विचारकर शंकित हो सम्पूर्ण दिशाओं की ओर देखने लगे । इसी समय वामभाग में बाण खींचे खड़े हुए कामपर उनकी दृष्टि पड़ी । वह मूढ चित्त मदन अपनी शक्ति के गर्व से चूर होकर पुनः अपना बाण छोड़ना ही चाह रहा था ॥ ६-७ ॥ हे नारद ! उस अवस्था में कामपर दृष्टि पडते ही परमात्मा गिरीश को तत्काल क्रोध उत्पन्न हो गया ॥ ८ ॥ हे मुने ! इधर, आकाश में बाणसहित धनुष लेकर खड़े हुए काम ने भगवान् शंकर पर अपना दुर्निवार तथा अमोघ अस्त्र छोड़ दिया । परमात्मा शिव पर वह अमोघ अस्त्र व्यर्थ हो गया । कुपित हुए परमेश्वर के पास जाते ही वह शान्त हो गया ॥ ९-१० ॥ तदनन्तर भगवान् शिव पर अपने अस्त्र के व्यर्थ हो जाने पर मन्मथ को बड़ा भय हुआ । भगवान् मृत्युंजय को देखकर उनके सामने खड़ा होकर वह काँप उठा । हे मुनिश्रेष्ठ ! वह कामदेव अपने प्रयास के निष्फल हो जाने पर भय से व्याकुल होकर इन्द्र आदि सभी देवताओं का स्मरण करने लगा ॥ ११-१२ ॥ हे मुनीश्वर ! कामदेव के स्मरण करने पर वे इन्द्र आदि सब देवता आ गये और शम्भु को प्रणामकर उनकी स्तुति करने लगे ॥ १३ ॥ देवता स्तुति कर ही रहे थे कि कुपित हुए भगवान् शिव के ललाट के मध्यभाग में स्थित तृतीय नेत्र से बड़ी भारी आग की ज्वाला तत्काल प्रकट होकर निकली । वे ज्वालाएँ ऊपर की ओर उठ रही थीं । वह आग धू-धू करके जलने लगी । उसकी ज्योति प्रलयाग्नि के समान मालूम पड़ती थी ॥ १४-१५ ॥ वह ज्वाला तत्काल ही आकाश में उछलकर पृथ्वी पर गिरकर फिर अपने चारों ओर चक्कर काटती हुई कामदेव पर जा गिरी । हे साधो ! क्षमा कीजिये, क्षमा कीजिये, यह बात जबतक देवताओं ने कही, तब तक उस आग ने कामदेव को जलाकर राख कर दिया ॥ १६-१७ ॥ उस वीर कामदेव के मारे जानेपर देवताओं को बडा दुःख हुआ । वे व्याकुल होकर, यह क्या हुआ, इस प्रकार कहकर जोर-जोर से चीत्कार करते हुए रोने-बिलखने लगे । उस समय घबरायी हुई पार्वती का समस्त शरीर सफेद पड़ गया और वे सखियों को साथ लेकर अपने भवन को चली गयीं । [कामदेव के जल जाने पर] रति वहाँ क्षणभर के लिये अचेत हो गयी । पति के मृत्युजनित दुःख से वह मरी हुई की भाँति पड़ी रही ॥ १८-२० ॥ [थोडी देर में] चेतना आने पर अत्यन्त व्याकुल होकर वह रति उस समय तरह-तरह की बातें कहती हुई विलाप करने लगी ॥ २१ ॥ रति बोली — मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? देवताओं ने यह क्या किया, मेरे उद्धत स्वामी को बुलाकर उन्होंने नष्ट करा दिया । हाय ! हाय ! हे नाथ ! हे स्मर ! हे स्वामिन् ! हे प्राणप्रिय ! हे सुखप्रद ! हे प्रिय ! हे प्रिय ! यह यहाँ क्या हो गया ? ॥ २२-२३ ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार रोती-बिलखती और अनेक प्रकार की बातें कहती हुई वह हाथ-पैर पटककर सिर के बालों को नोंचने लगी ॥ २४ ॥ हे नारद ! उस समय उसका विलाप सुनकर वहाँ रहनेवाले समस्त वनवासी तथा सभी स्थावर प्राणी भी दुखी हो गये । इसी बीच इन्द्र आदि समस्त देवता महेश्वर का स्मरण करते हुए रति को आश्वस्त करके उससे कहने लगे — ॥ २५-२६ ॥ देवता बोले — थोड़ा-सा भस्म लेकर उसे यत्नपूर्वक रखो और भय छोड़ दो । वे स्वामी महादेवजी [कामदेव को] जीवित कर देंगे और तुम पति को पुनः प्राप्त कर लोगी ॥ २७ ॥ कोई न सुख देनेवाला है और न कोई दुःख ही देनेवाला है । सब लोग अपनी करनी का फल भोगते हैं । तुम देवताओं को दोष देकर व्यर्थ ही शोक करती हो ॥ २८ ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार रति को समझा-बुझाकर सब देवता भगवान् शिव के समीप आये और उन्हें भक्ति से प्रसन्न करके यह वचन कहने लगे — ॥ २९ ॥ देवता बोले — हे भगवन् ! हे प्रभो ! हे महेशान ! हे शरणागतवत्सल ! आप कृपा करके हमारे इस शुभ वचन को सुनिये ॥ ३० ॥ हे शंकर ! आप कामदेव के कृत्य पर भली-भाँति अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक विचार कीजिये । हे महेश्वर ! काम ने जो यह कार्य किया है, इसमें उसका कोई स्वार्थ नहीं था ॥ ३१ ॥ हे विभो ! दुष्ट तारकासुर से पीड़ित हुए सब देवताओं ने मिलकर उससे यह कार्य कराया है । हे नाथ ! हे शंकर ! इसे आप अन्यथा न समझें ॥ ३२ ॥ सब कुछ प्रदान करनेवाले हे देव ! हे गिरिश ! साध्वी रति अकेली अति दुखी होकर विलाप कर रही है, आप उसे सान्त्वना प्रदान कीजिये ॥ ३३ ॥ हे शंकर ! यदि इस क्रोध के द्वारा आपने कामदेव को मार डाला, तो हम यही समझेंगे कि आप देवताओंसहित समस्त प्राणियों का अभी संहार कर डालना चाहते हैं ॥ ३४ ॥ उस रति का दुःख देखकर देवता नष्टप्राय हो गये हैं । इसलिये आपको रति का शोक दूर कर देना चाहिये ॥ ३५ ॥ ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] उन सम्पूर्ण देवताओं का यह वचन सुनकर भगवान् शिव प्रसन्न हो गये और यह वचन कहने लगे — ॥ ३६ ॥ शिवजी बोले — हे देवताओ और ऋषियो ! आप सब आदरपूर्वक मेरी बात सुनिये । मेरे क्रोध से जो कुछ हो गया है, वह तो अन्यथा नहीं हो सकता, तथापि रति का शक्तिशाली पति कामदेव तभी तक अनंग रहेगा, जबतक रुक्मिणीपति श्रीकृष्ण का धरती पर अवतार नहीं हो जाता ॥ ३७-३८ ॥ जब श्रीकृष्ण द्वारका में रहकर पुत्रों को उत्पन्न करेंगे, तब ये रुक्मिणी के गर्भ से काम को भी जन्म देंगे ॥ ३९ ॥ उस काम का ही नाम [उस समय] प्रद्युम्न होगा, इसमें संशय नहीं है । उस पुत्र के जन्म लेते ही शम्बरासुर उसे हर लेगा । हरण करके दानवश्रेष्ठ मूर्ख शम्बर उसे समुद्र में फेंककर और उसे मरा हुआ जानकर वृथा ही अपने नगर को लौट जायगा । हे रते ! तुम्हें उस समय तक शम्बरासुर के नगर में सुखपूर्वक निवास करना चाहिये, वहीं पर तुम्हें अपने पति प्रद्युम्न की प्राप्ति होगी ॥ ४०-४२ ॥ हे देवताओ ! वहाँ युद्ध में उस शम्बरासुर का वध करके कामदेव अपनी पत्नी को प्राप्त करके सुखी होगा ॥ ४३ ॥ हे देवताओ ! प्रद्युम्न नामधारी वह काम शम्बरासुर का जो भी धन होगा, उसे लेकर उस रति के साथ [अपने] नगर में जायगा, मेरा यह कथन सर्वथा सत्य होगा ॥ ४४ ॥ ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] शिवजी की यह बात सुनकर देवताओं के चित्त में कुछ उल्लास हुआ और वे सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर उनसे कहने लगे — ॥ ४५ ॥ देवता बोले — हे देवदेव ! हे महादेव ! हे करुणासागर ! हे प्रभो ! हे हर ! आप कामदेव को शीघ्र जीवित कर दीजिये तथा रति के प्राणों की रक्षा कीजिये ॥ ४६ ॥ ब्रह्माजी बोले — देवताओं की यह बात सुनकर सबके स्वामी करुणासागर परमेश्वर शिव प्रसन्न होकर पुनः कहने लगे — ॥ ४७ ॥ शिवजी बोले — हे देवताओ ! मैं बहुत प्रसन्न हूँ, मैं काम को सबके हृदय में जीवित कर दूंगा और वह सदा मेरा गण होकर विहार करेगा ॥ ४८ ॥ हे देवताओ ! आपलोग इस आख्यान को किसी के सामने मत कहियेगा, आपलोग अपने स्थान को जाइये, मैं सब प्रकार से [आपलोगों के] दुःख का नाश करूँगा ॥ ४९ ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार कहकर रुद्रदेव देवताओं के स्तुति करते-करते ही अन्तर्धान हो गये । तब सभी देवता अत्यन्त प्रसन्न तथा सन्देहरहित हो गये ॥ ५० ॥ हे मने ! तदनन्तर रुद्र की बात पर भरोसा करके वे देवता रति को आश्वासन देकर तथा उससे उनका वचन कहकर अपने-अपने धाम को चले गये । हे मुनीश्वर ! तब वह कामपत्नी शिव के बताये हुए नगर को चली गयी तथा रुद्र के बताये गये समय की प्रतीक्षा करने लगी ॥ ५१-५२ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में कामनाशवर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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