September 3, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 20 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः बीसवाँ अध्याय शिव की क्रोधाग्नि का वडवारूप-धारण और ब्रह्मा द्वारा उसे समुद्र को समर्पित करना नारदजी बोले — हे विधे ! भगवान् हर के [तृतीय] नेत्र से निकली हुई वह अग्नि की ज्वाला कहाँ गयी ? आप चन्द्रशेखर के उस चरि त्रको कहिये ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] जब भगवान् रुद्र के तीसरे नेत्र से प्रकट हुई अग्नि ने कामदेव को शीघ्र ही जलाकर राख कर दिया, उसके अनन्तर वह बिना किसी प्रयोजन के ही सब ओर फैलने लगी ॥ २ ॥ चराचर प्राणियोंसहित तीनों लोकों में महान् हाहाकार मच गया । हे तात ! तब सम्पूर्ण देवता और ऋषि शीघ्र ही मेरी शरण में आये ॥ ३ ॥ उन सबने व्याकुल होकर मस्तक झुकाकर दोनों हाथ जोड़कर मुझे प्रणामकर विधिवत् मेरी स्तुति करके अपना दुःख निवेदन किया ॥ ४ ॥ शिवमहापुराण उसको सुनकर शिव का स्मरणकर और उसके हेतु का भली-भाँति विचारकर तीनों लोकों की रक्षा करने के लिये मैं विनीत भाव से वहाँ पहुँचा ॥ ५ ॥ वह अग्नि ज्वालामाला से अत्यन्त उद्दीप्त हो जगत् को जला देने के लिये उद्यत थी, परंतु भगवान् शिव की कृपा से प्राप्त हुए उत्तम तेज के द्वारा मैंने उसे तत्काल स्तम्भित कर दिया ॥ ६ ॥ हे मुने ! मैंने त्रिलोकी को दग्ध करने की इच्छा रखनेवाली उस क्रोधमय अग्नि को सौम्य ज्वालामुखवाले घोड़े के रूप में परिवर्तित कर दिया ॥ ७ ॥ भगवान् शिव की इच्छा से उस वाडव-शरीरवाली अग्नि को लेकर जगत्पति मैं लोकहित के लिये समुद्र के पास गया ॥ ८ ॥ हे मुने ! मुझे आया हुआ देखकर समुद्र एक दिव्य पुरुष का रूप धारण करके हाथ जोड़कर मेरे पास आया ॥ ९ ॥ मुझ सम्पूर्ण लोकों के पितामह की भली-भाँति स्तुति करके वह सिन्धु मुझसे प्रसन्नतापूर्वक कहने लगा — ॥ १० ॥ सागर बोला — हे ब्रह्मन् ! हे सर्वेश्वर ! आप यहाँ किसलिये आये हैं ? मुझे अपना सेवक समझकर आप प्रीतिपूर्वक उसे कहिये ॥ ११ ॥ सागर की बात सुनकर शंकर का स्मरण करके लोकहित का ध्यान रखते हुए मैं उससे प्रसन्नतापूर्वक कहने लगा — ॥ १२ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे तात ! हे महाबुद्धिमान् ! सम्पूर्ण लोकों के हितकारी ! हे सिन्धो ! मैं शिव की इच्छा से प्रेरित हो हृदय से प्रीतिपूर्वक तुमसे कह रहा हूँ, सुनो ॥ १३ ॥ यह महेश्वर का क्रोध है, जो महान् शक्तिशाली अश्व के रूप में यहाँ उपस्थित है । यह कामदेव को दग्ध करके शीघ्र सम्पूर्ण जगत् को जला डालनेके लिये उद्यत हो गया था ॥ १४ ॥ हे तात ! तब पीड़ित हुए देवताओं ने शंकर की इच्छा से मेरी प्रार्थना की और मैंने शीघ्र वहाँ आकर अग्नि को स्तम्भित किया । फिर इसने घोड़े का रूप धारण किया और इसे लेकर मैं यहाँ आया । हे जलाधार ! [जगत् पर] दया करनेवाला मैं तुम्हें यह आदेश दे रहा हूँ ॥ १५-१६ ॥ महेश्वर के इस क्रोध को, जो घोड़े का रूप धारण करके मुख से ज्वाला प्रकट करता हुआ खड़ा है, तुम प्रलयकालपर्यन्त धारण किये रहो ॥ १७ ॥ हे सरित्पते ! जब मैं यहाँ आकर निवास करूँगा, तब तुम शंकर के इस अद्भुत क्रोध को छोड़ देना ॥ १८ ॥ तुम्हारा जल ही इसका प्रतिदिन का भोजन होगा । तुम यत्नपूर्वक इसे धारण किये रहना, जिससे यह अन्यत्र न जा सके ॥ १९ ॥ ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] इस प्रकार मेरे कहने पर समुद्र ने [रुद्र के क्रोधाग्निरूप] वडवानल को धारण करना स्वीकार किया, जो दूसरे के लिये असम्भव था ॥ २० ॥ उसके अनन्तर वाडव शरीरवाली वह अग्नि समुद्र में प्रविष्ट हुई और ज्वालामालाओं से प्रदीप्त हो उस सागर की जलराशि का दहन करने लगी ॥ २१ ॥ हे मुने ! तदनन्तर सन्तुष्टचित्त होकर मैं अपने धाम को चला आया और दिव्य रूपधारी वह समुद्र मुझे प्रणाम करके अन्तर्धान हो गया । महामुने ! रुद्र की उस क्रोधाग्नि के भय से छूटकर सम्पूर्ण जगत् स्वस्थता का अनुभव करने लगा और देवता तथा मुनिगण सुखी हो गये ॥ २२-२३ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में वडवानलचरितवर्णन नामक बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २० ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe