शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 22
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
बाईसवाँ अध्याय
पार्वती की तपस्या एवं उसके प्रभाव का वर्णन

ब्रह्माजी बोले — हे देवर्षे ! आपके चले जाने पर प्रसन्नचित्त पार्वती ने शिवजी को तपस्या से ही साध्य माना और तपस्या करने का मन बना लिया । तदनन्तर पार्वती ने अपनी जया एवं विजया नामक सखियों के द्वारा अपनी माता मेना तथा पिता हिमालय से तप करने की आज्ञा माँगी ॥ १-२ ॥ उन दोनों सखियों ने सबसे पहले पर्वतराज हिमालय के पास जाकर नम्रतापूर्वक भक्तिभाव से प्रणामकर पूछा — ॥ ३ ॥

शिवमहापुराण

सखियाँ बोलीं — हे हिमालय ! आपकी पुत्री पार्वती, जो आपसे कुछ कहना चाह रही है, उसे सुनिये । यह आपकी पुत्री अपने शरीर, रूप तथा आपके कुल को [भगवान् शंकर की आराधना से] सफल बनाना चाहती है । वे शंकर तपस्या से ही साध्य हैं, अन्य उपाय से उनका दर्शन सम्भव नहीं है ॥ ४-५ ॥ हे गिरिराज ! इसलिये आपको इसी समय आज्ञा प्रदान करनी चाहिये, जिससे गिरिजा वन में जाकर आदरपूर्वक तपस्या करे ॥ ६ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुनिश्रेष्ठ ! पार्वती की सखियों के द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर गिरिराज भली-भाँति विचारकर यह कहने लगे — ॥ ७ ॥

हिमालय बोले — मुझे तो यह बात अच्छी लगती है, परंतु यदि पार्वती की माता को यह बात अच्छी लगे तो ऐसा ही होना चाहिये । यदि ऐसा हो तो इससे बढ़कर और क्या बात हो सकती है ॥ ८ ॥ यदि पार्वती की माता को यह बात रुचिकर लगे, तो इसमें हम तथा हमारा कुल दोनों ही धन्य हो जायेंगे । इससे बढ़कर और शुभकारक कौन-सी उत्तम बात होगी ॥ ९ ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार दोनों सखियाँ पार्वती के पिता के वचन को सुनकर पार्वती की माता से आज्ञा लेने के लिये उनके साथ वहाँ गयीं । हे नारद ! पार्वती की माता के पास जाकर प्रणामकर हाथ जोड़कर आदरपूर्वक उनसे यह वचन कहने लगीं — ॥ १०-११ ॥

सखियाँ बोलीं — हे देवि ! आपको नमस्कार है । हे मातः ! आप पार्वती के वचन को सुनें और उसे सुनकर प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करें ॥ १२ ॥ आपकी यह पुत्री शिवजी को प्राप्त करने हेतु तपस्या करना चाहती है । इसे तप करने की आज्ञा पिता से प्राप्त हो गयी है । अब आपसे पूछ रही है ॥ १३ ॥ हे पतिव्रते ! यह [उत्तम पति प्राप्त करने हेतु] अपने स्वरूप को सफल बनाना चाहती है, अतः यदि आपकी आज्ञा हो, तो यह तपस्या करे ॥ १४ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुनीश्वर ! इस प्रकार कहकर सखियाँ चुप हो गयीं । मेना [यह बात सुनते ही] खिन्न मनवाली हो गयीं और उन्होंने इस बात को अस्वीकार कर दिया । तब वे पार्वती शिवजी के चरणकमलों का ध्यानकर हाथ जोड़कर विनम्रचित्त होकर अपनी माता से स्वयं कहने लगीं — ॥ १५-१६ ॥

पार्वती बोलीं — हे मातः ! मैं महेश्वर को प्राप्त करने के लिये प्रातःकाल तपस्या हेतु तपोवन जाना चाहती हूँ, अत: आप मुझे जाने के लिये आज ही आज्ञा प्रदान कीजिये ॥ १७ ॥

ब्रह्माजी बोले — पुत्री की यह बात सुनकर मेना दुखी हो गयीं और विकल होकर पुत्री को अपने पास बुलाकर कहने लगीं — ॥ १८ ॥

मेना बोलीं — हे शिवे ! हे पुत्रि ! यदि तुम दुखी हो और तपस्या करना चाहती हो, तो घर में ही तपस्या करो, हे पार्वति ! अब बाहर मत जाओ ॥ १९ ॥ जब मेरे घर में ही सब देवता, तीर्थ तथा समस्त क्षेत्र विद्यमान हैं, तो तप करने के लिये तुम अन्यत्र कहाँ जा रही हो ? हे पुत्रि ! तुम हठ मत करो और न तो कहीं बाहर जाओ । तुमने पहले क्या सिद्ध कर लिया और अब क्या सिद्ध करोगी ? हे वत्से ! तुम्हारा शरीर कोमल है और तपस्या तो बड़ा कठिन कार्य है । इसलिये तुम यहीं तपस्या करो । कहीं बाहर मत जाओ ॥ २०-२२ ॥ मनोकामना की पूर्ति के लिये स्त्रियों के वन जाने की बात तो मैंने नहीं सुनी है, इसलिये हे पुत्रि ! तपस्या करने के लिये वनगमन का विचार मत करो ॥ २३ ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार उनकी माता ने अनेक प्रकार से पुत्री को वन जाने के लिये मना किया, किंतु शंकरजी की आराधना के बिना कहीं भी उन पार्वती को शान्ति नहीं मिली ॥ २४ ॥ मेना ने बार-बार तपस्या के निमित्त वन जाने से उन्हें रोका, इसी कारण से शिवा ने ‘उमा’ नाम प्राप्त किया ॥ २५ ॥ हे मुने ! इसके बाद तपस्या की अनुमति न मिलने से उन शिवा को दुखी जानकर शैलप्रिया मेना ने पार्वती को तप करने के लिये आज्ञा प्रदान कर दी ॥ २६ ॥

हे मुनिश्रेष्ठ ! माता की आज्ञा पाकर उत्तम व्रतवाली पार्वती ने शंकर का स्मरण करते हुए अपने मन में बड़े सुख का अनुभव किया ॥ २७ ॥ तदनन्तर शिवा माता-पिता को प्रसन्नतापूर्वक प्रणामकर अपनी दोनों सखियों को साथ लेकर शिवजी का स्मरण करके तपस्या करने के लिये वन की ओर चलीं ॥ २८ ॥ उन्होंने अनेक प्रकार के विचारों, प्रिय वस्तुओं तथा नाना प्रकार के वस्त्रों का परित्यागकर मौंजी, मेखला बाँधकर सुन्दर वल्कल को धारण कर लिया और बहुमूल्य हार उतारकर मृगचर्म धारण कर लिया । इसके बाद वे तपस्या करने के लिये गंगावतरण नामक स्थान पर चली गयीं ॥ २९-३० ॥

ध्यान करते हुए शंकर ने जहाँ कामदेव को जलाकर भस्म कर दिया था, वही हिमालय का गंगावतरण नामवाला शिखर है । हे तात ! काली हिमवत्प्रदेश के शिखर पर स्थित उसी गंगावतरण नामक स्थान पर गयीं और जगदम्बा पार्वती काली ने उसे शिवजी से रहित देखा ॥ ३१-३२ ॥ जहाँ स्थित रहकर शिवजी ने अत्यन्त कठिन तप किया था, उस स्थान पर जाकर वे क्षणभर के लिये शिवविरह से व्याकुल हो उठीं । उस समय वे हा शंकर ! इस प्रकार कहकर रोती हुई चिन्ता तथा शोक से युक्त होकर अत्यन्त दुःखित हो विलाप करने लगीं ॥ ३३-३४ ॥

इसके अनन्तर बहुत समय के बाद हिमालयपुत्री पार्वती धैर्यपूर्वक मोह का त्याग करके नियम में दीक्षित हुईं ॥ ३५ ॥ वे उस महान् उत्तम शृंगी तीर्थ में तपस्या करने लगीं । उस स्थान में गौरी के तपस्या करने के कारण उसका गौरीशंकर — ऐसा नाम पड़ा ॥ ३६ ॥ हे मुने ! वहाँ पार्वती ने अपनी तपस्या की परीक्षा के लिये अनेक प्रकार के पवित्र, सुन्दर तथा फलवान् वृक्ष लगाये । उन सुन्दरी ने भूमि-शुद्धि और वेदी का निर्माण करके मन के साथ समस्त इन्द्रियों को रोककर उसी स्थान पर मुनियों के लिये भी कठिन तपस्या आरम्भ कर दी ॥ ३७–३९ ॥

वे ग्रीष्मकाल में दिन-रात अग्नि प्रज्वलितकर उसके बीच में बैठकर पंचाग्नि तापती हुई पंचाक्षर महामन्त्र का जप करती थीं ॥ ४० ॥ वे वर्षा के समय पत्थर की चट्टान के स्थण्डिल पर सुस्थिर आसन लगाकर बैठी हुई खुले आकाश के नीचे जल की धारा सहन करतीं और भक्ति में तत्पर होकर निराहार रहकर वे शीतकाल की रात्रियों में निरन्तर शीतल जल में निवास करतीं ॥ ४१-४२ ॥ इस प्रकार पंचाक्षर मन्त्र के जप में रत होकर तप करती हुई वे सम्पूर्ण मनोवांछित फल के दाता शंकर का ध्यान करने लगीं । वे प्रतिदिन अवकाश मिलने पर अपने द्वारा लगाये गये सुन्दर वृक्षों को सखियों के साथ प्रसन्नतापूर्वक सींचती थीं तथा अतिथिसत्कार भी करती थीं ॥ ४३-४४ ॥

शुद्धचित्तवाली वे पार्वती आँधी, सर्दी, अनेक प्रकार की वर्षा तथा असह्य धूप बिना कष्ट माने सहन करती थीं ॥ ४५ ॥ हे मुने ! इस प्रकार उनके ऊपर अनेक प्रकार के दुःख आये, परंतु उन्होंने उनकी कुछ भी परवाह नहीं की । वे केवल शिव में मन लगाकर वहाँ स्थित थीं ॥ ४६ ॥ इस प्रकार तप करती हुई देवी ने पहले फलाहार से, फिर पत्ते के आहार से क्रमशः अनेक वर्ष बिताये ॥ ४७ ॥ तदनन्तर हिमालयपुत्री शिवा देवी पत्ते भी छोड़कर सर्वथा निराहार रहकर तपस्या में लीन रहने लगीं ॥ ४८ ॥ जब उन हिमालयपुत्री शिवा ने पत्ते खाना भी छोड़ दिया, तब वे शिवा देवताओं के द्वारा ‘अपर्णा’ कही जाने लगीं ॥ ४९ ॥

इसके बाद पार्वती भगवान् शिव का ध्यान करके एक पैर पर खड़ी होकर पंचाक्षरमन्त्र का जप करती हुई कठोर तपस्या करने लगीं । उनके अंग चीर और वल्कल से ढंके थे, वे सिर पर जटाजूट को धारण किये हुए थीं । इस प्रकार शिवजी के चिन्तन में लगी हुई पार्वती ने तपस्या के द्वारा मुनियों को भी जीत लिया ॥ ५०-५१ ॥

इस प्रकार तप करती हुई तथा महेश्वर का चिन्तन करती हुई उन काली ने तीन हजार वर्ष इस तपोवन में बिता दिये । जहाँ पर शंकरजी ने साठ हजार वर्ष तक तपस्या की थी, उस स्थान पर कुछ क्षण रुककर वे अपने मन में विचार करने लगीं ॥ ५२-५३ ॥

हे महादेव ! क्या आप तपस्या में संलग्न हुई मुझे नहीं जानते, जो कि मुझे तपस्या में लीन हुए इतने वर्ष बीत गये फिर भी आपने मेरी सुधि न ली । लोक एवं वेद में मुनियों के द्वारा सदा गान किया जाता है कि भगवान् शंकर सर्वज्ञ, सर्वात्मा तथा सर्वदर्शन हैं ॥ ५४-५५ ॥ वे देव समस्त ऐश्वर्य को प्रदान करनेवाले, सब प्रकार के भावों से प्राप्त होनेवाले, भक्तों के मनोरथ सदा पूर्ण करनेवाले तथा सभी प्रकार के कष्टों को दूर करनेवाले हैं ॥ ५६ ॥ यदि मैं अपनी सारी कामनाओं का त्यागकर मात्र वृषध्वज शंकर में अनुरक्त हूँ, तो वे शंकर मुझपर प्रसन्न हों । यदि मैंने उत्तम भक्ति के साथ विधिपूर्वक नित्य नारदतन्त्रोक्त पंचाक्षर मन्त्र का जप किया है, तो वे शिवजी मेरे ऊपर प्रसन्न हों ॥ ५७-५८ ॥ यदि मैंने विकाररहित होकर भक्तिपूर्वक सर्वेश्वर शिव का यथोक्त चिन्तन किया है, तो वे शंकर [मुझपर] परम प्रसन्न हों ॥ ५९ ॥

इस तरह नित्य अपने मनमें सोचती हुई उन्होंने नीचे की ओर मुख किये एवं जटा-वल्कल धारणकर निर्विकार होकर दीर्घकालतक तप किया ॥ ६० ॥ इस तरह उन्होंने मुनियों के लिये भी दुष्कर तपस्या की, जिसका स्मरणकर वहाँ सभी पुरुष परम विस्मय में पड़ गये । उनकी तपस्या देखने के लिये सभी लोग वहाँ उपस्थित हो गये और अपने को धन्य मानते हुए एक स्वर से कहने लगे ॥ ६१-६२ ॥

धर्म-वृद्धों के पास बड़े लोगों का जाना कल्याणकारी कहा गया है । तपस्या में कोई प्रमाण नहीं है, विद्वानों को सदा धर्म का मान करना चाहिये ॥ ६३ ॥ इसकी तपस्या को सुनकर तथा देखकर [ऐसा ज्ञात होता है कि] अन्य लोग क्या तप कर सकते हैं । संसार में इसके तप से बढ़कर कोई तप न तो हुआ है और न होगा । इस प्रकार कहते हुए पार्वती के तप की प्रशंसाकर कठोर अंगवाले वे तपस्वी तथा अन्य जन प्रसन्न हो अपने-अपने स्थानों को चले गये ॥ ६४-६५ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे महर्षे ! अब आप जगदम्बा पार्वती की तपस्या के अन्य बड़े प्रभाव को सुनिये, जो महान् आश्चर्यजनक चरित्र है ॥ ६६ ॥ पार्वती के आश्रम में रहनेवाले समस्त जन्तु जो स्वभाव से ही परस्पर विरोधी थे, वे भी उनकी तपस्या के प्रभाव से वैररहित हो गये ॥ ६७ ॥ निरन्तर राग आदि दोष से युक्त रहनेवाले वे सिंह और गौ आदि भी वहाँ उनकी तपस्या की महिमा से परस्पर बाधा नहीं पहुँचाते थे ॥ ६८ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! मार्जार, मूषक आदि भी जो स्वभाव से आपस में वैर करनेवाले हैं, वे भी [एकदूसरे के प्रति] कभी विकारभाव नहीं रखते थे ॥ ६९ ॥ हे मुनिसत्तम ! वहाँ फलयुक्त वृक्ष, विविध प्रकार के तृण और विचित्र पुष्प उत्पन्न हो गये ॥ ७० ॥ वह सम्पूर्ण वन उनकी तपस्या की सिद्धि के रूप में हो गया और कैलास के समान मालूम पड़ने लगा ॥ ७१ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में पार्वतीतपस्यावर्णन नामक बाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २२ ॥

 

 

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