शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 25
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
पच्चीसवाँ अध्याय
भगवान् शंकर की आज्ञा से सप्तर्षियों द्वारा पार्वती के शिवविषयक अनुराग की परीक्षा करना और वह वृत्तान्त भगवान् शिव को बताकर स्वर्गलोक जाना

नारदजी बोले — [हे ब्रह्मन् !] उन ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं तथा सभी मुनियों के प्रेमपूर्वक चले जाने पर फिर क्या हुआ ? हे तात ! शिव ने क्या किया और फिर कितने समय के बाद तथा किस प्रकार वर देने के लिये आये, उसे बताइये और प्रीति प्रदान कीजिये ॥ १-२ ॥

शिवमहापुराण

ब्रह्माजी बोले — उन ब्रह्मा आदि देवताओं के अपने-अपने आश्रमों को चले जाने पर पार्वती की तपस्या की परीक्षा करने के लिये शिवजी समाधिस्थ हो गये ॥ ३ ॥ उन्होंने अपने आत्मा से ही परमात्मा में परात्पर, निरवग्रह, आत्मस्थित ज्योति को धारण कर विचार किया ॥ ४ ॥ वस्तुतः वे शिव ही भगवान्, ईश्वर, वृषभध्वज, अविज्ञातगति, जगत्स्रष्टा, हर एवं परमेश्वर हैं ॥ ५ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे तात ! उसी समय पार्वती ने भी महाघोर तपस्या प्रारम्भ की, उस तप से शंकर भी अत्यन्त विस्मित हो गये । भक्तों के अधीन रहनेवाले वे समाधि से विचलित हो गये । तब उन जगत्स्रष्टा हर ने वसिष्ठादि सप्तर्षियों का स्मरण किया ॥ ६-७ ॥ वे सभी सप्तर्षि भी शिवजी के स्मरण करते ही प्रसन्नमुख होकर अपने भाग्य की बहुत सराहना करते हुए वहाँ शीघ्र ही उपस्थित हो गये । उन महेश्वर को प्रणाम करके वे हर्षपूर्वक गद्गद वाणी से हाथ जोड़कर तथा सिर झुकाकर स्तुति करने लगे ॥ ८-९ ॥

सप्तर्षि बोले — हे देवदेव ! हे महादेव ! हे करुणासागर ! हे प्रभो ! हमलोग धन्य हो गये, जो आपने आज हमलोगों का स्मरण किया ॥ १० ॥ हे नाथ ! आपने किसलिये स्मरण किया है, हमलोगों को आज्ञा दीजिये । हे स्वामिन् ! अपने दास के समान ही हमलोगों पर कृपा कीजिये, आपको प्रणाम है ॥ ११ ॥

ब्रह्माजी बोले — मुनियों की इस विज्ञप्ति को सुनकर विकसित कमल के समान नेत्रोंवाले वे करुणानिधि हँसते हुए प्रेमपूर्वक कहने लगे — ॥ १२ ॥

महेश्वर बोले — हे सप्तर्षिगण ! आपलोग सभी प्रकार के ज्ञान में विचक्षण हैं तथा मेरा हित करनेवाले हैं । हे तात ! मेरी बात शीघ्र सुनिये ॥ १३ ॥ इस समय गौरीशिखर नामक पर्वत पर देवेशी पार्वती गिरिजा अत्यन्त दृढ़ चित्त से तपस्या कर रही है ॥ १४ ॥ हे ऋषियो ! सखियों से सेवित उसने अपनी समस्त कामनाओं का त्यागकर बड़ी दृढ़ता के साथ मुझे अपना पति बनाने के लिये निश्चय कर लिया है ॥ १५ ॥ हे मुनिश्रेष्ठो ! आपलोग मेरी आज्ञा से वहाँ जाइये और उसके प्रेम एवं दृढ़ता की परीक्षा कीजिये ॥ १६ ॥ हे सुव्रतो ! मेरी आज्ञा है कि आपलोग उससे सर्वथा छलयुक्त वचन कहिये, इसमें संशय न कीजिये ॥ १७ ॥

ब्रह्माजी बोले — शिवजी की आज्ञा प्राप्तकर मुनिगण उसी समय उस स्थान पर गये, जहाँ जगन्माता पार्वती तपस्या कर रही थीं । उन लोगों ने वहाँ साक्षात् दूसरी तपःसिद्धि के समान, तेज से देदीप्यमान और परमतेज की मूर्तिस्वरूपा पार्वती को देखा ॥ १८-१९ ॥ हे सुव्रतो ! उन सप्तर्षियों ने हृदय से पार्वती को प्रणाम करके उनसे विशेष रूप से सत्कृत हो विनम्र होकर यह वचन कहा — ॥ २० ॥

ऋषिगण बोले — हे शैलसुते ! देवि ! सुनो, तुम किस उद्देश्य से तपस्या कर रही हो ? तुम किस देवता को प्रसन्न करना चाहती हो और क्या फल चाहती हो, उसे इस समय बताओ ॥ २१ ॥

ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] जब उन सप्तर्षियों ने इस प्रकार देवी पार्वती से कहा, तब वे सत्य तथा अत्यन्त गोपनीय वचन उनके सामने कहने लगीं — ॥ २२ ॥

पार्वती बोलीं — हे मुनीश्वरो ! मैंने अपनी बुद्धि से जो विचार किया है, उसे आपके समक्ष प्रकट करती हूँ । आपलोग प्रेमपूर्वक मेरी बात सुनें ॥ २३ ॥ हे विप्रो ! आपलोग मेरी असम्भव बात सुनकर परिहास करेंगे, इसलिये उसे कहने में भी मुझे संकोच हो रहा है, पर मैं क्या करूँ ? आपलोगों के पूछने पर कह रही हूँ ॥ २४ ॥ मेरा यह मन बड़ी दृढ़ता से हठपूर्वक दूसरे के वश में हो गया है और जल के ऊपर बहुत ऊँची दीवार उठाना चाहता है । सदाशिव ही पति हों — ऐसा मनोरथ लेकर देवर्षि नारद की आज्ञा प्राप्त करके मैं अति कठोर व्रत कर रही हूँ । इसमें मेरे मनरूपी पक्षी को यद्यपि पंख नहीं हैं, फिर भी यह हठपूर्वक आकाश में उड़ना चाहता है । करुणासागर स्वामी शंकर मेरी उस आशा को पूर्ण करें ॥ २५–२७ ॥

ब्रह्माजी बोले — उनकी यह बात सुनकर वे मुनि गिरिजा का सम्मान करके हँसकर प्रेमपूर्वक मिथ्या तथा छलयुक्त वचन कहने लगे ॥ २८ ॥

ऋषिगण बोले — हे पर्वतराजपुत्रि ! बुद्धिमती होकर भी तुमने व्यर्थ ही अपने को पण्डित माननेवाले तथा क्रूर चित्तवाले उस देवर्षि नारद का चरित्र नहीं जाना है ॥ २९ ॥ वह नारद तो मिथ्यावादी और दूसरे के चित्त को भुलावे में डालनेवाला है, उसकी बात सुनने से सर्वथा हानि ही होती है । उस नारद के सम्बन्ध में एक सुन्दर इतिहास हमलोग कह रहे हैं, उसको तुम उत्तम बुद्धि से सुनो और प्रेमपूर्वक उसे अपने हृदय में धारण करो ॥ ३०-३१ ॥

ब्रह्मा के पुत्र दक्ष ने अपने पिता की आज्ञा से अपनी पत्नी से दस हजार प्रिय पुत्र उत्पन्न किये और उनको तपस्या में नियुक्त किया । तपस्या के लिये प्रतिज्ञा करके वे दक्षपुत्र पश्चिम दिशा में नारायण सरोवर पर गये, नारद भी वहाँ पहुँच गये । उन नारद ने उन्हें मिथ्या उपदेश देकर विरक्त कर दिया और उनकी आज्ञा से वे पुनः अपने पिता के घर लौटकर नहीं आये ॥ ३२-३४ ॥
यह समाचार सुनकर दक्ष अत्यन्त व्याकुल हो उठे । ब्रह्मदेव ने उन्हें धैर्य प्रदान किया । तदनन्तर उन्होंने पुनः एक हजार पुत्र उत्पन्न किये और उन पुत्रों को भी तपकार्य में नियुक्त किया । वे भी अपने पिता की आज्ञा से वहीं तप करने के लिये गये । पुनः नारद वहाँ पहुँच गये और उन्हें भी अपना उपदेश दिया ॥ ३५-३६ ॥ [उसका उपदेश मानकर] वे भी अपने भाइयों के मार्ग पर चले गये और भिक्षावृत्ति में संलग्न हो गये । वे पुनः अपने पिता के घर नहीं आये । नारद का यह चरित्र है, जो जगत् में प्रसिद्ध है । हे शैलपुत्रि ! मनुष्यों को विरक्त करनेवाले उनके अन्य चरित्र को भी सुनो ॥ ३७-३८ ॥

पूर्व समय में एक विद्याधर था, जो चित्रकेतु नाम का राजा हुआ था । उसको भी इसी नारद ने उपदेश देकर उसका घर सूना कर दिया । प्रह्लाद को उपदेश देकर हिरण्यकशिपु से नाना प्रकार के दुःख दिलवाये । इस प्रकार वह [उलटा उपदेश देकर] दूसरों की बुद्धि फेर देता है ॥ ३९-४० ॥ इस नारद ने कानों को प्रिय लगनेवाली अपनी विद्या जिन-जिन लोगों को सुनायी, वे शीघ्र ही प्रायः अपना घर छोड़कर भिक्षा माँगने लगे ॥ ४१ ॥ वे नारद यद्यपि देखने में बड़े सज्जन लगते हैं, किंतु उनका मन मलिन है, हमलोग उनके साथ रहने के कारण उनका चरित्र विशेषरूप से जानते हैं ॥ ४२ ॥

बगुले के श्वेत वर्ण शरीर को देखकर सब लोग उसे साधु कहते हैं । फिर भी क्या वह मछली नहीं खाता । साथ में रहनेवाला ही साथ रहनेवालों का [वास्तविक] चरित्र जानता है ॥ ४३ ॥ तुम तो परम बुद्धिमती हो, फिर कैसे उनके उपदेश में फँसकर मूर्खों की तरह कठिन तपस्या में लग गयी ! ॥ ४४ ॥ हे बाले ! यह परम दुःख की बात है कि तुम जिसे अपना पति बनाने के लिये इतना कठिन तप कर रही हो, वह कामदेव का शत्रु है और उदासीन तथा निर्विकार है ॥ ४५ ॥

वह अमंगल वेष धारण करनेवाला शिव निर्लज्ज है, उसके घर का तथा कुल का आज तक किसी को पता नहीं है, वह कुवेषी, भूत एवं प्रेतादि का साथ करनेवाला, त्रिशूल धारण करनेवाला और नग्न रहनेवाला है ॥ ४६ ॥ उस धूर्त नारद ने अपनी माया से तुम्हारे ज्ञान को नष्ट करके बड़ी युक्ति से तुम्हें मोहित कर दिया और तुमसे तपस्या करवायी ॥ ४७ ॥ ऐसे वर को प्राप्तकर तुम्हें क्या सुख मिलेगा ? हे देवेशि ! हे पार्वति ! तुम्ही विचार करो ॥ ४८ ॥ मूढ़ शिव ने सद्बुद्धि से दक्षकन्या सती से पहले विवाह करके कुछ दिन भी उसका निर्वाह नहीं किया और सती को ही दोष लगाकर उसका स्वयं त्याग कर दिया । वे तो अपने अकल, अशोक स्वरूप का ध्यान करते हुए सुखी होकर रमण करते रहे । वे तो अकेले, परनिर्वाण, असंग तथा अद्वैत हैं, हे देवि ! उनके साथ स्त्री का निर्वाह किस प्रकार सम्भव होगा ? ॥ ४९-५१ ॥

अब भी तुम हमारी बात मानकर घर चली जाओ और अपनी दुर्बुद्धि का त्याग कर दो । हे महाभागे ! [ऐसा करने से] तुम्हारा कल्याण होगा ॥ ५२ ॥ तुम्हारे योग्य वर विष्णु हैं, सभी सद्गुणों से सम्पन्न वे प्रभु वैकुण्ठ में निवास करनेवाले, लक्ष्मी के ईश और नाना प्रकार की क्रीड़ाओं में कुशल हैं ॥ ५३ ॥ हमलोग तुम्हारा विवाह उन विष्णु से करायेंगे, वह विवाह सब प्रकार के सुखों को देनेवाला है । हे पार्वति ! तुम इस प्रकार के हठ का परित्याग करो और सुखी हो जाओ ॥ ५४ ॥

ब्रह्माजी बोले — इस वचन को सुनकर जगदम्बा पार्वती हँसकर उन ज्ञानविशारद मुनियों से पुनः कहने लगीं — ॥ ५५ ॥

पार्वती बोलीं — हे मुनिगण ! आपलोग यद्यपि अपने विचार से सत्य कह रहे हैं, किंतु हे द्विजो ! मेरा हठ नहीं छूटेगा ॥ ५६ ॥ पर्वत से उत्पन्न होने के कारण मेरे इस शरीर में काठिन्य एवं हठ का होना स्वाभाविक है, ऐसा अपनी बुद्धि से विचारकर हे ब्राह्मणो ! मुझे तपस्या से मना मत कीजिये ॥ ५७ ॥ मेरे लिये नारदजी का वचन सर्वथा हितकर है, मैं उनका परित्याग कदापि नहीं करूँगी । वेदवेत्ता विद्वान् कहते हैं कि गुरु का वचन कल्याणकारी होता है ॥ ५८ ॥ जिन लोगों ने बुद्धि से यह निश्चित किया है कि गुरु के वचन सर्वदा सत्य हैं, उनको इस लोक तथा परलोक में सदैव सुख प्राप्त होता है । उन्हें कभी दुःख होता ही नहीं ॥ ५९ ॥

जिन लोगों के हृदय में यह विचार नहीं है कि गुरुओं का वचन सत्य होता है, उन्हें इस लोक एवं परलोक में दुःख ही दुःख होता है, उन्हें सुख कभी नहीं होता ॥ ६० ॥ हे ब्राह्मणो ! गुरुओं के वचन का किसी प्रकार त्याग नहीं करना चाहिये । चाहे घर बसे अथवा उजड़े — यह हठ मुझे सदा सुख देनेवाला है ॥ ६१ ॥ हे मुनिसत्तमो ! आपलोगों ने जो वचन कहा है, उस विषय में मैं संक्षेप में अपना विचार प्रकट करती हूँ ॥ ६२ ॥

आपलोगों ने जो विष्णु को सर्वगुणसम्पन्न, वैकुण्ठ में विहार करनेवाला तथा सदाशिव को निर्गुण एवं निर्विकार कहा है, वह सत्य ही है, इसका कारण मैं आपलोगों को बताती हूँ । शिव परब्रह्म एवं विकाररहित हैं, वे भक्तों के लिये ही शरीर धारण करते हैं । वे प्रभु कभी भी सांसारिक प्रभुता दिखाने की इच्छा नहीं करते । अतः परमानन्द शम्भु अवधूतस्वरूप से परमहंसों की प्रिय गति धारण करते हैं ॥ ६३-६५ ॥

माया में लिप्त रहनेवालों को ही भूषणादि में अभिरुचि होती है, ब्रह्म को किसी प्रकार की कोई अभिरुचि नहीं होती । वे सदाशिव प्रभु निर्गुण, अज, मायारहित, अलक्ष्यगति एवं विराट हैं ॥ ६६ ॥ हे द्विजो ! धर्म, जाति आदि के द्वारा ही शम्भु का अनुग्रह नहीं होता है, मैं तो गुरु के अनुग्रह से ही शिव को तत्त्वपूर्वक जानती हूँ । हे ब्राह्मणो ! यदि शंकर मेरे साथ विवाह नहीं करेंगे, तो मैं सर्वदा अविवाहित रहूँगी, यह मैं सत्य-सत्य कहती हूँ ॥ ६७-६८ ॥ चाहे सूर्य पश्चिम दिशा में उदय हो, सुमेरु चलायमान हो जाय, अग्नि शीतल हो जाय, पर्वत पर कमल खिलने लगें, किंतु मेरा हठ नहीं डिगेगा, यह मैं सत्य कहती हूँ ॥ ६९ ॥

ब्रह्माजी बोले — यह कहकर और उन मुनियों को प्रणाम करके वे पार्वती विकाररहित चित्त से शिवजी का स्मरणकर मौन हो गयीं । तदनन्तर ऋषियों ने भी पार्वती का यह निश्चय जानकर उनकी जय-जयकार की और उन्हें उत्तम आशीर्वाद प्रदान किया । हे मुने ! शिवा की परीक्षा करनेवाले वे मुनिगण उन देवी को प्रणाम करके प्रसन्नचित्त होकर शीघ्र ही शिवस्थान को चले गये ॥ ७०–७२ ॥
वे लोग वहाँ जाकर शिव को प्रणाम करके उस वृत्तान्त का निवेदनकर उनकी आज्ञा प्राप्त करके आदरपूर्वक स्वर्गलोक को चले गये ॥ ७३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में सप्तर्षिकृतपरीक्षावर्णन नामक पच्चीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २५ ॥

 

 

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