September 5, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 26 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः छब्बीसवाँ अध्याय पार्वती की परीक्षा लेने के लिये भगवान् शिव का जटाधारी ब्राह्मण का वेष धारणकर पार्वती के समीप जाना, शिव-पार्वती-संवाद ब्रह्माजी बोले — हे नारद ! उन मुनियों के अपने-अपने लोक चले जाने पर जगत्स्रष्टा प्रभु शिव ने स्वयं पार्वती के तप की परीक्षा लेने की इच्छा की ॥ १ ॥ प्रसन्नचित्त वे शिवजी परीक्षा के बहाने उन्हें देखने के लिये जटाधारीरूप धारणकर पार्वती के वन में गये ॥ २ ॥ शिवमहापुराण उन्होंने प्रसन्न मन से बूढ़े ब्राह्मण का वेष धारण किया और अपने तेज से देदीप्यमान हो दण्ड तथा छत्र धारण कर लिया था ॥ ३ ॥ वहाँ पर उन्होंने सखियों से घिरी हुई उन विशुद्ध पार्वती को वेदी पर बैठी हुई साक्षात् चन्द्रकला के समान देखा ॥ ४ ॥ तब ब्रह्मचारी का रूप धारण किये हुए वे भक्तवत्सल शिव उन देवी को देखकर प्रेमपूर्वक उनके समीप गये ॥ ५ ॥ उस अपूर्व तेजस्वी ब्राह्मण को आया हुआ देखकर शिवादेवी ने सभी प्रकार की पूजासामग्री से उनका पूजन किया । इस प्रकार भली-भाँति पूजा-सत्कार करने के अनन्तर पार्वतीजी प्रसन्नता के साथ उस ब्राह्मण से आदरपूर्वक कुशल पूछने लगीं — ॥ ६-७ ॥ पार्वती बोलीं — हे ब्राह्मण ! ब्रह्मचारी का स्वरूप धारण किये हुए आप कौन हैं और कहाँ से आये हैं ? आप इस वन को प्रकाशित कर रहे हैं । हे वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! यह सब मुझसे कहिये ॥ ८ ॥ ब्राह्मण बोले — मैं वृद्ध ब्राह्मण का शरीर धारण किये अपने इच्छानुसार चलनेवाला एक बुद्धिमान् तपस्वी हूँ, मैं दूसरों को सुख देनेवाला तथा उनका उपकार करनेवाला हूँ, इसमें संशय नहीं है ॥ ९ ॥ तुम कौन हो और किसकी कन्या हो, इस निर्जन वन में अकेली रहकर इतनी कठिन तपस्या क्यों कर रही हो, जो मुनियों के लिये भी दुष्कर है ॥ १० ॥ तुम न तो बाला हो, न ही वृद्धा, तुम तो सर्वथा तरुणी जान पड़ती हो । पति के बिना इस वन में इतनी कठोर तपस्या क्यों कर रही हो ? हे भद्रे ! क्या तुम किसी तपस्वी की सहचारिणी हो, जो इतनी घोर तपस्या में निमग्न हो । क्या वह तपस्वी तुम्हारा पोषण नहीं करता अथवा तुम्हें छोड़कर अन्यत्र चला गया है ? ॥ ११-१२ ॥ तुम किसके कुल में उत्पन्न हुई हो, तुम्हारे पिता कौन हैं तथा तुम्हारा क्या नाम है, यह बताओ, तुम तो सौभाग्यशालिनी हो, तपस्या में तुम्हारी आसक्ति तो व्यर्थ ही है ॥ १३ ॥ क्या तुम वेदों की जन्मदात्री सावित्री हो या महालक्ष्मी हो अथवा सुन्दर रूप धारण किये हुए सरस्वती हो ! इनमें तुम कौन हो ! मैं अनुमान नहीं कर पा रहा हूँ ॥ १४ ॥ पार्वती बोलीं — हे विप्र ! न तो मैं सावित्री हूँ, न महालक्ष्मी और न ही सरस्वती ही हूँ । मैं हिमालय की पुत्री हूँ और मेरा वर्तमान नाम पार्वती है ॥ १५ ॥ पूर्वजन्म में मैं दक्ष की कन्या थी, उस समय मेरा नाम सती था । मेरे पिता ने मेरे पति की निन्दा की थी, इसलिये मैंने [योगमार्ग का अवलम्बनकर] अपना शरीर त्याग दिया था । मैंने इस जन्म में भी भाग्यवश शिवजी को ही प्राप्त किया, परंतु वे कामदेव को जलाकर मुझे छोड़कर चले गये । हे विप्र ! शंकरजी के चले जानेपर मैं कष्ट से उद्विग्न हो गयी और तप के लिये दृढ़ होकर पिता के घर से गंगा के तटपर चली आयी ॥ १६-१८ ॥ बहुत समय तक कठोर तपस्या करने के बाद भी मेरे प्राणवल्लभ सदाशिव मुझे प्राप्त नहीं हुए, इस कारण मैं अग्नि में प्रवेश करना चाहती थी, किंतु आपको देखकर क्षणमात्र के लिये रुक गयी ॥ १९ ॥ अब आप जाइये । शिवजी ने मुझे अंगीकार नहीं किया, इसलिये मैं अब अग्नि में प्रवेश करूँगी । मैं जहाँ-जहाँ जन्म लूँगी, वहाँ भी शिव को ही वररूप में प्राप्त करूँगी ॥ २० ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार कहकर पार्वती ब्रह्मचारी द्वारा बारम्बार निषेध करने पर भी अग्नि में प्रवेश कर गयीं । पार्वती के अग्नि में प्रवेश करते ही उनकी तपस्या के प्रभाव से वह अग्नि उसी समय शीघ्र ही चन्दन के समान शीतल हो गयी । क्षणभर अग्नि में रहने के बाद ज्यों ही वे धुलोक जाने को उद्यत हुईं, तब [विप्ररूप] शिव हँसते हुए उन सुन्दरांगी से सहसा पूछने लगे — ॥ २१–२३ ॥ द्विज बोले — हे भद्रे ! तुम्हारी यह कैसी तपस्या है ? मुझे तो तुम्हारी इस तपस्या का कुछ भी फल नहीं जान पड़ता । इस अग्नि ने तुम्हारे शरीर को भी नहीं जलाया और तुम्हारा मनोरथ भी प्राप्त नहीं हुआ ॥ २४ ॥ इसलिये हे देवि ! सब प्रकार का आनन्द प्रदान करनेवाले मुझ विप्रवर के सामने तुम अपना मनोरथ ठीक से कहो, हे देवि ! तुम पूर्णरूप से इस बात को यथाविधि कह दो । [परस्पर बातचीत से] हमारी-तुम्हारी मित्रता हो गयी, अतः तुम्हें इस बात को गोपनीय नहीं रखना चाहिये ॥ २५-२६ ॥ हे देवि ! इसके पश्चात् मैं पूछना चाहता हूँ कि तुम कौन-सा वरदान चाहती हो ? हे देवि ! मुझे सारे वरदान का फल तुम्हीं में दिखायी पड़ रहा है ॥ २७ ॥ यह तपस्या यदि तुमने दूसरे के लिये की है, तो वह सारा-का-सारा तुम्हारा तप व्यर्थ हो गया और तुमने हाथ में रत्न को ले करके उसे खोकर पुनः काँच धारण किया ॥ २८ ॥ इस प्रकार की अपनी सुन्दरता तुमने व्यर्थ क्यों कर दी ? अनेक प्रकार के वस्त्र त्यागकर तुमने यह मृगचर्म क्यों धारण किया ? इसलिये तुम इस तपस्या का सारा कारण सत्य-सत्य बताओ, जिससे कि उसे सुनकर ब्राह्मणों में श्रेष्ठ मैं प्रसन्नता प्राप्त करूँ ॥ २९-३० ॥ ब्रह्माजी बोले — जब इस प्रकार उस ब्राह्मण ने पार्वती से पूछा, तब उन सुव्रता ने अपनी सखी को प्रेरित किया और उसके मुख से सारा वृत्तान्त कहलवाया ॥ ३१ ॥ तदनन्तर उस पार्वती से प्रेरित होकर पार्वती को प्राणों के समान प्रिय तथा उत्तम व्रत को जाननेवाली विजया नाम की सखी उस ब्रह्मचारी से कहने लगी — ॥ ३२ ॥ सखी बोली — हे साधो ! यदि आप इस पार्वती का श्रेष्ठ चरित्र एवं इसकी तपस्या का समस्त कारण जानना चाहते हैं, तो मैं उसे कहूँगी, आप सुनें ॥ ३३ ॥ यह मेरी सखी पर्वतराज हिमालय की पुत्री है और पार्वती नाम से प्रसिद्ध है । इसकी माता मेनका है ॥ ३४ ॥ अभीतक इसका विवाह किसी के साथ नहीं हुआ है, यह शिवजी को छोड़कर दूसरे को अपना पति नहीं बनाना चाहती । यह तीन हजार वर्ष से तपस्या कर रही है । हे साधो ! हे द्विजोत्तम ! उन्हीं के लिये मेरी सखी ने ऐसा तप आरम्भ किया है, इसका भी कारण मैं आपसे कहती हूँ आप सुनें । यह पार्वती इन्द्रादि प्रमुख देवताओं एवं ब्रह्मा, विष्णु आदि को छोड़कर केवल पिनाकपाणि शंकर को ही पतिरूप में प्राप्त करने की इच्छा करती है ॥ ३५-३७ ॥ हे द्विज ! तपस्या प्रारम्भ करने के पूर्व मेरी सखी ने जिन वृक्षों को लगाया था, उन सबमें फूल, फल आदि आ गये हैं [अतः प्रतीत होता है कि मेरी सखी के मनोरथ पूर्ण होने का समय आ गया है।] ॥ ३८ ॥ यह मेरी सखी नारदजी के उपदेशानुसार अपने रूप को सार्थक करने के लिये, अपने पिता के कुल को अलंकृत करने के लिये और कामदेव पर अनुग्रह करने के लिये महेश्वर के उद्देश्य से कठिन तप कर रही है, हे तापस ! क्या इसका मनोरथ सफल नहीं होगा ? ॥ ३९-४० ॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! आपने मेरी सखी के जिस मनोरथ को पूछा था, उसे मैंने प्रीतिपूर्वक कह दिया, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ४१ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! विजया की इस यथार्थ बात को सुनकर वे जटाधारी रुद्र हँसते हुए यह वचन कहने लगे — ॥ ४२ ॥ जटिल बोले — सखी के द्वारा जो यह कहा गया है, वह तो परिहास मालूम पड़ता है, यदि यह यथार्थ है, तो देवी अपने मुख से कहें ॥ ४३ ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार जब जटाधारी ब्राह्मण ने कहा, तब पार्वतीदेवी अपने मुख से ही उन ब्राह्मण से कहने लगीं ॥ ४४ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में शिवाजटिलसंवादवर्णन नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २६ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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