शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय 10
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
दसवाँ अध्याय
श्रीहरि को सृष्टि की रक्षा का भार एवं भोग-मोक्ष-दान का अधिकार देकर भगवान् शिव का अन्तर्धान होना

परमेश्वर शिवजी बोले — उत्तम व्रत का पालन करनेवाले हे हरे ! हे विष्णो ! अब आप मेरी दूसरी आज्ञा सुनें । उसका पालन करने से आप सदा समस्त लोकों में माननीय और पूजनीय होंगे ॥ १ ॥ ब्रह्माजी के द्वारा रचे गये लोक में जब कोई संकट उत्पन्न हो, तब आप उन सम्पूर्ण दुःखों का नाश करने के लिये सदा तत्पर रहना ॥ २ ॥ मैं सम्पूर्ण दुस्सह कार्यों में आपकी सहायता करूंगा । आपके दुर्जेय और अत्यन्त उत्कट शत्रुओं को मैं मार गिराऊँगा ॥ ३ ॥ हे हरे ! आप नाना प्रकार के अवतार धारण करके लोक में अपनी उत्तम कीर्ति का विस्तार कीजिये और संसार में प्राणियों के उद्धार के लिये तत्पर रहिये ॥ ४ ॥ गुणरूप धारणकर मैं रुद्र निश्चित ही अपने इस शरीर से संसार के उन कार्योM को करूंगा, जो आपसे सम्भव नहीं हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५ ॥ आप रुद्र के ध्येय हैं और रुद्र आपके ध्येय हैं । आप दोनों में और आप तथा रुद्र में कुछ भी अन्तर नहीं है ॥ ६ ॥

शिवमहापुराण

हे महाविष्णो ! लीला से भेद होने पर भी वस्तुतः आपलोग एक ही तत्त्व हैं । यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है ॥ ७ ॥ जो मनुष्य रुद्र का भक्त होकर आपकी निन्दा करेगा, उसका सारा पुण्य तत्काल भस्म हो जायगा ॥ ८ ॥ हे पुरुषोत्तम विष्णो ! आपसे द्वेष करने के कारण मेरी आज्ञा से उसको नरक में गिरना पड़ेगा । यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है ॥ ९ ॥ आप इस लोक में मनुष्यों के लिये विशेषतः भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले और भक्तों के ध्येय तथा पूज्य होकर प्राणियों का निग्रह और अनुग्रह कीजिये ॥ १० ॥

ऐसा कहकर भगवान् शिव ने मेरा हाथ पकड़ लिया और श्रीविष्णु को सौंपकर उनसे कहा — आप संकट के समय सदा इनकी सहायता करते रहें ॥ ११ ॥ सबके अध्यक्ष होकर आप सभी को भक्ति और मुक्ति प्रदान करें तथा सर्वदा समस्त कामनाओं के साधक एवं सर्वश्रेष्ठ बने रहें ॥ १२ ॥ हे हरे ! यह मेरी आज्ञा है कि आप सबके प्राणस्वरूप होइये और संकटकाल आने पर निश्चय ही मेरे शरीररूप उस रुद्र का भजन कीजिये ॥ १३ ॥ जो आपकी शरण में आ गया, वह निश्चय ही मेरी शरण में आ गया । जो मुझमें और आपमें अन्तर समझता है, वह अवश्य ही नरक में गिरता है ॥ १४ ॥

अब आप तीनों देवताओं के आयुबल को विशेषरूप से सुनिये । ब्रह्मा, विष्णु और शिव की एकता में [किसी प्रकारका] सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ १५ ॥ एक हजार चतुर्युग को ब्रह्मा का एक दिन कहा जाता है और उतनी ही उनकी रात्रि होती है । इस प्रकार क्रम से यह ब्रह्मा के एक दिन और एक रात्रि का परिमाण है ॥ १६ ॥ इस प्रकार के तीस दिनों का एक मास और बारह मासों का एक वर्ष होता है । सौ वर्ष के परिमाण को ब्रह्मा की आयु कहा गया है ॥ १७ ॥ ब्रह्मा के एक वर्ष के बराबर विष्णु का एक दिन कहा जाता है । वे विष्णु भी अपने सौ वर्ष के प्रमाण तक जीवित रहते हैं ॥ १८ ॥ विष्णु के एक वर्ष के बराबर रुद्र का एक दिन होता है । भगवान् रुद्र भी उस मान के अनुसार नररूप में सौ वर्ष तक स्थित रहते हैं ॥ १९ ॥

तदनन्तर शिव के मुख से एक श्वास निकलता है । और जब तक वह निकलता रहता है, तबतक वह शक्ति को प्राप्तकर पुनः जब नि:श्वास लेते हैं, तबतक ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गन्धर्व, नाग और राक्षस आदि सभी देहधारियों के नि:श्वास और उच्छ्वास को बाहर और भीतर ले जाने के क्रम की संख्या हे सुरसत्तम ! दिन-रात में मिलाकर इक्कीस हजार का सौ गुना एवं छ: सौ अर्थात् इक्कीस लाख छः सौ कही गयी है ॥ २०-२२ ॥ छः उच्छ्वास और छः निःश्वास का एक पल होता है । साठ पलों की एक घटी और साठ घटीप्रमाण को एक दिन और रात्रि कहते हैं ॥ २३ ॥

सदाशिव के निःश्वासों और उच्छ्वासों की गणना नहीं की जा सकती है । अतः शिवजी सदैव प्रबुद्ध और अक्षय हैं ॥ २४ ॥ मेरी आज्ञा से तुम्हें अपने विविध गुणों के द्वारा सृष्टि के इस प्रकार के होनेवाले कार्यों की रक्षा करनी चाहिये ॥ २५ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे देवर्षे ! भगवान् शिव का यह वचन सुनकर सबको वश में करनेवाले भगवान् विष्णु मेरे साथ विश्वनाथ को प्रणाम करके मन्द स्वर में उनसे कहने लगे — ॥ २६ ॥

विष्णुजी बोले — हे शंकर ! हे करुणासिन्धो ! हे जगत्पते ! मेरी यह बात सुनिये । मैं आपकी आज्ञा के अधीन रहकर यह सब कुछ करूंगा ॥ २७ ॥ आप ही मेरे सदा ध्येय होंगे, इसमें अन्यथा नहीं है । मैंने पूर्वकाल में भी आपसे समस्त सामर्थ्य प्राप्त किया था ॥ २८ ॥ हे स्वामिन् ! क्षणमात्र भी आपका श्रेष्ठ ध्यान मेरे चित्त से कभी दूर न हो ॥ २९ ॥ हे स्वामिन् ! मेरा जो भक्त आपकी निन्दा करे, उसे आप निश्चय ही नरकवास प्रदान करें ॥ ३० ॥ हे नाथ ! जो आपका भक्त है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है । जो ऐसा जानता है, उसके लिये मोक्ष दुर्लभ नहीं है ॥ ३१ ॥ आज आपने निश्चय ही मेरी महिमा बढ़ा दी है, यदि कभी कोई अवगुण आ जाय, तो उसे क्षमा करें ॥ ३२ ॥

ब्रह्माजी बोले — तदनन्तर विष्णु के द्वारा कहे गये श्रेष्ठ वचन को सुनकर शिवजी ने अत्यन्त प्रीतिपूर्वक विष्णु से कहा कि मैंने आपके अवगुणों को क्षमा कर दिया है ॥ ३३ ॥

विष्णु से ऐसा कहकर उन कृपानिधि परमेश्वर ने कृपापूर्वक अपने हाथों से हम दोनों के सम्पूर्ण अंगों का स्पर्श किया ॥ ३४ ॥ सर्वदुःखहारी सदाशिव ने नाना प्रकार के धर्मों का उपदेशकर हम दोनों के हित की इच्छा से अनेक प्रकार के वर दिये ॥ ३५ ॥ इसके बाद भक्तवत्सल भगवान् शम्भु कृपापूर्वक हमारी ओर देखकर हम दोनों के देखते-देखते शीघ्र वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ ३६ ॥

तभी से इस लोक में लिंगपूजा का विधान प्रचलित हुआ है । लिंग में प्रतिष्ठित भगवान् शिव भोग और मोक्ष देनेवाले हैं ॥ ३७ ॥ शिवलिंग की वेदी महादेवी का स्वरूप है और लिंग साक्षात् महेश्वर है । लयकारक होने के कारण ही इसे लिंग कहा गया है; इसमें सम्पूर्ण जगत् स्थित रहता है ॥ ३८ ॥ जो शिवलिंग के समीप स्थिर होकर नित्य इस लिंग के आख्यान को पढ़ता है, वह छः मास में ही शिवरूप हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ ३९ ॥ हे महामुने ! जो शिवलिंग के समीप कोई भी कार्य करता है, उसके पुण्यफल का वर्णन करने में मैं समर्थ नहीं हूँ ॥ ४० ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के प्रथम खण्ड में सृष्टि-उपाख्यान में परमशिवतत्त्ववर्णन नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥

 

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