September 7, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 34 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः चौंतीसवाँ अध्याय सप्तर्षियों द्वारा हिमालय को राजा अनरण्य का आख्यान सुनाकर पार्वती का विवाह शिव से करने की प्रेरणा देना वसिष्ठजी बोले — [हे गिरिश्रेष्ठ!] इन्द्रसावर्णि नामक चौदहवें मनु के वंश में वह अनरण्य नामक राजा उत्पन्न हुआ था ॥ १ ॥ वह राजराजेश्वर तथा सातों द्वीपों का सम्राट् था । वह मंगलारण्य का पुत्र अनरण्य महाबलवान् एवं विशेषरूप से शिवजी का भक्त था । उसने महर्षि भृगु को अपना पुरोहित बनाकर एक सौ यज्ञ किये और देवताओं के द्वारा इन्द्रपद दिये जाने पर भी उसने उसे स्वीकार नहीं किया ॥ २-३ ॥ शिवमहापुराण हे हिमालय ! उस राजा के सौ पुत्र उत्पन्न हुए थे और लक्ष्मीसदृश सुन्दर एक पद्मा नाम की कन्या उत्पन्न हुई ॥ ४ ॥ हे नगश्रेष्ठ ! उस राजा का जो प्रेम अपने सौ पुत्रों के प्रति था, उससे भी अधिक उस कन्या पर रहा करता था ॥ ५ ॥ उस अनरण्य राजा की सर्वसौभाग्यशालिनी पाँच रानियाँ थीं, जो राजा को प्राणों से भी अधिक प्रिय थीं ॥ ६ ॥ जिस समय वह कन्या पिता के घर में युवावस्था को प्राप्त हुई, तब राजा ने उसके लिये उत्तम वर प्राप्त करने हेतु [अपने दूतों से] पत्र भेजा ॥ ७ ॥ एक समय ऋषि पिप्पलाद जब अपने आश्रम जाने के लिये तत्पर थे, तभी तपस्या के योग्य एक निर्जन स्थान में उन्होंने कामकला में निपुण तथा स्त्री के साथ शृंगाररस के सागर में निमग्न हो बड़े प्रेम से विहार करते हुए एक गन्धर्व को देखा ॥ ८-९ ॥ वे मुनिश्रेष्ठ उसे देखकर काम के वशीभूत हो गये और तप से चित्त हटाकर दारसंग्रह की चिन्ता में पड़ गये ॥ १० ॥ इस प्रकार काम से व्याकुलचित्त हुए उन श्रेष्ठ मुनि पिप्पलाद का कुछ समय बीत गया ॥ ११ ॥ एक समय जब वे मुनिश्रेष्ठ पुष्पभद्रा नदी में स्नान करने के लिये जा रहे थे, तब उन्होंने लक्ष्मी के समान मनोरम युवती पद्मा को देखा ॥ १२ ॥ उसके बाद मुनि ने आस-पास के लोगों से पूछा कि यह किसकी कन्या है, तब शाप के भय से व्याकुल उन लोगों ने नमस्कार करके बताया ॥ १३ ॥ लोग बोले — यह [राजा] अनरण्य की पद्मा नामक कन्या है, जो साक्षात् दूसरी लक्ष्मी के समान है, श्रेष्ठ राजागण गुणों की निधिस्वरूपा इस सुन्दरी को पाने की इच्छा कर रहे हैं ॥ १४ ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार वे मुनि उन सत्यवादी मनुष्यों की बात सुनकर अत्यन्त व्याकुल हो उठे और मन में उसे प्राप्त करने की इच्छा करने लगे ॥ १५ ॥ हे गिरे ! उसके बाद मुनि स्नानकर विधिपूर्वक अपने इष्टदेव शंकर का विधिवत् पूजन करके काम के वशीभूत हो भिक्षा के लिये अनरण्य की सभा गये ॥ १६ ॥ राजा ने मुनि को देखते ही भयभीत होकर प्रणाम किया और मधुपर्कादि देकर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा की ॥ १७ ॥ पूजा-ग्रहण करने के अनन्तर मुनि ने कन्या की याचना की, तब राजा [इस बात को सुनकर] अवाक् हो गया और कुछ भी कहने में समर्थ नहीं हुआ ॥ १८ ॥ उन मुनि ने कन्या को माँगा और कहा — हे नृपेश्वर ! तुम अपनी कन्या हमें दे दो, अन्यथा मैं क्षणभर में सब कुछ भस्म कर दूंगा ॥ १९ ॥ [उस समय] हे मुने ! मुनि के तेज से [राजाके] सब सेवक हक्के-बक्के हो गये और वृद्धावस्था से जर्जर उस विप्र को देखकर परिकरोंसहित राजा रोने लगे ॥ २० ॥ सभी रानियों को भी कुछ सूझ नहीं रहा था, वे रोने लगीं । कन्या की माता महारानी शोक से व्यथित होकर मूर्च्छित हो गयीं, राजा के सभी पुत्र भी शोक से आकुलचित्तवाले हो गये । हे शैलपति ! इस प्रकार राजा के सभी सगे-सम्बन्धी शोक से व्याकुल हो गये ॥ २१-२२ ॥ इसी समय महापण्डित, बुद्धिमान् तथा सर्वोत्तम गुरु एवं पुरोहित ब्राह्मण — दोनों राजा के समीप आये ॥ २३ ॥ राजा ने प्रणामकर उनका पूजन करके उन दोनों के आगे रुदन किया और अपना सारा वृत्तान्त निवेदन किया एवं पूछा कि [इस समय] जो उचित हो, उसको जल्दी से बताइये ॥ २४ ॥ तब राजा के नीतिशास्त्रज्ञ पण्डित गुरु तथा ब्राह्मण पुरोहित दोनों ने राजा को तथा शोक से व्याकुल रानियों, राजपुत्रों तथा उस कन्या को सभी के हितकारक तथा नीतियुक्त वाक्यों से आदरपूर्वक समझाया ॥ २५-२६ ॥ गुरु तथा पुरोहित बोले — हे राजन् ! हे महाप्राज्ञ ! आप हमारी हितकारी बात सुनिये, आप परिवार के सहित शोक मत कीजिये और शास्त्र में अपनी बुद्धि लगाइये ॥ २७ ॥ हे राजन् ! आज ही अथवा एक वर्ष के बाद आपको अपनी कन्या किसी-न-किसी पात्र को देनी ही है, वह पात्र चाहे ब्राह्मण हो अथवा अन्य कोई हो ॥ २८ ॥ किंतु हम इस ब्राह्मण से बढ़कर सुन्दर पात्र इस त्रिलोकी में अन्य को नहीं देख रहे हैं, अतः आप अपनी कन्या इन मुनि को देकर अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति की रक्षा कीजिये ॥ २९ ॥ हे राजन् ! [यदि ऐसा नहीं करेंगे तो] एक के कारण तुम्हारी सारी सम्पत्ति नष्ट हो जायगी । उस एक का त्यागकर सबकी रक्षा करो । शरणागत का त्याग नहीं करना चाहिये, चाहे उसके लिये सब कुछ नष्ट हो जाय ॥ ३० ॥ वसिष्ठजी बोले — राजा ने उन दोनों बुद्धिमानों की बात सुनकर बार-बार विलाप करके उस कन्या को [वस्त्र तथा आभूषणसे] अलंकृतकर मुनीन्द्र को दे दिया ॥ ३१ ॥ हे गिरे! इस प्रकार उस कन्या से विधानपूर्वक विवाह कर महर्षि पिप्पलाद महालक्ष्मी के समान उस पद्मा को लेकर प्रसन्नता से युक्त अपने घर चले गये ॥ ३२ ॥ इधर, राजा उस वृद्ध को अपनी कन्या प्रदान करके सभी लोगों को छोड़कर मन में ग्लानि रखकर तपस्या के लिये वन में चले गये ॥ ३३ ॥ हे गिरे ! अपने प्राणनाथ के वन चले जाने पर उनकी भार्या ने भी पति तथा कन्या के शोक से प्राण त्याग दिये ॥ ३४ ॥ राजा के पूज्य लोग, पुत्र, सेवक राजा के बिना मूर्च्छित हो गये तथा अन्य सभी पुरवासी एवं दूसरे लोग यह सब जानकर उच्छवास लेकर शोक करने लगे ॥ ३५ ॥ [राजा] अनरण्य वन में जाकर कठोर तप करके भक्तिपूर्वक शंकर की आराधनाकर शाश्वत शिवलोक को चला गया । तदनन्तर राजा का कीर्तिमान् नामक धार्मिक ज्येष्ठ पुत्र राज्य करने लगा और पुत्र के समान प्रजा का पालन करने लगा ॥ ३६-३७ ॥ हे शैल ! मैंने अनरण्य का यह शुभ चरित्र आपसे कहा, जिस प्रकार अपनी कन्या प्रदानकर उन्होंने अपने वंश की तथा सम्पूर्ण धन की रक्षा की ॥ ३८ ॥ इसी प्रकार हे शैलराज ! आप भी अपनी कन्या शंकरजी को देकर अपने समस्त कुल की रक्षा कीजिये और सभी देवताओं को भी वशमें कीजिये ॥ ३९ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में अनरण्यचरितवर्णन नामक चौंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३४ ॥ Related