September 7, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 35 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः पैंतीसवाँ अध्याय धर्मराज द्वारा मुनि पिप्पलाद की भार्या सती पद्मा के पातिव्रत्य की परीक्षा, पद्मा द्वारा धर्मराज को शाप प्रदान करना तथा पुनः चारों युगों में शाप की व्यवस्था करना, पातिव्रत्य से प्रसन्न हो धर्मराज द्वारा पद्मा को अनेक वर प्रदान करना, महर्षि वसिष्ठ द्वारा हिमवान् से पद्मा के दृष्टान्त द्वारा अपनी पुत्री शिव को सौंपने के लिये कहना नारदजी बोले — हे तात ! अनरण्य के कन्यादानसम्बन्धी चरित्र को सुनकर गिरिश्रेष्ठ ने क्या किया, उसे कहिये ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे तात ! अनरण्य का कन्यादानसम्बन्धी चरित्र सुनकर गिरिराज ने हाथ जोड़कर वसिष्ठजी से पुनः पूछा — ॥ २ ॥ शिवमहापुराण शैलेश बोले — हे वसिष्ठ ! हे मुनिशार्दूल ! हे ब्रह्मपुत्र ! हे कृपानिधे ! आपने अनरण्य का परम अद्भुत चरित्र कहा ॥ ३ ॥ तदनन्तर अनरण्य की कन्या ने पिप्पलाद मुनि को पतिरूप में प्राप्त करने के अनन्तर क्या किया ? वह सुखदायक चरित्र आप कहिये ॥ ४ ॥ वसिष्ठजी बोले — अवस्था से जर्जर मुनिश्रेष्ठ पिप्पलाद अनरण्य की उस कन्या के साथ अपने आश्रम में जाकर बड़े प्रेम से निवास करने लगे । हे गिरिराज ! वे वहाँ वन में श्रेष्ठ पर्वत पर इन्द्रियों को वशमें करके तपस्यापरायण हो नित्य अपने धर्म का पालन करने लगे ॥ ५-६ ॥ वह अनरण्यकन्या भी मन, वचन तथा कर्म से भक्तिपूर्वक मुनि की सेवा करने लगी, जिस प्रकार लक्ष्मी नारायण की सेवा करती है । किसी समय जब वह सुस्मितभाषिणी गंगास्नान करने जा रही थी, तब माया से मनुष्यरूप धारण किये धर्मराज ने उसे रास्ते में देखा ॥ ७-८ ॥ वे अनेक प्रकार के अलंकारों से भूषित, मनोहर रत्नों से जटित रथ पर विराजमान थे । वे नवयौवन से सम्पन्न एवं कामदेव के समान अत्यन्त कमनीय थे । प्रभु धर्म उस सुन्दरी पद्मा को देखकर उस मुनिपत्नी के अन्तःकरण का भाव जानने के लिये उससे कहने लगे — ॥ ९-१० ॥ धर्म बोले — हे सुन्दरि ! हे राजयोग्ये ! हे मनोहरे ! हे नवीन यौवनवाली ! हे कामिनि ! हे नित्य युवावस्था में रहनेवाली ! तुम तो साक्षात् लक्ष्मी हो ॥ ११ ॥ हे तन्वंगि ! मैं सत्य कहता हूँ कि तुम जराग्रस्त पिप्पलाद मुनि के समीप शोभित नहीं हो रही हो ॥ १२ ॥ तुम तपस्या में लगे हुए, क्रोधी तथा मरणोन्मुख ब्राह्मण को त्यागकर मुझ राजेन्द्र, कामकला में निपुण एवं कामातुर की ओर देखो ॥ १३ ॥ सुन्दरी स्त्री अपने पूर्वजन्म में किये गये पुण्य के प्रभाव से ही सौन्दर्य को प्राप्त करती है । किंतु वह सब किसी रसिक के आलिंगन से ही सफल होता है ॥ १४ ॥ हे कान्ते ! तुम इस जरा-जर्जर पति को छोड़कर हजारों स्त्रियों के कान्त तथा कामशास्त्र के विशारद मुझे अपना किंकर बनाओ और निर्जन मनोहर वन में, पर्वत पर तथा नदी के तट पर मेरे साथ विहार करो तथा इस जन्म को सफल करो ॥ १५-१६ ॥ वसिष्ठजी बोले — इस प्रकार कहकर वे ज्यों ही रथ से उतरकर उसका हाथ पकड़ना ही चाहते थे कि वह पतिव्रता कहने लगी — ॥ १७ ॥ पद्मा बोली — हे राजन् ! तुम तो बड़े पापी हो, दूर हट जाओ, दूर हट जाओ, यदि तुमने मुझे और सकाम भाव से देखा, तो शीघ्र ही नष्ट हो जाओगे ॥ १८ ॥ मैं तपस्या से पवित्र शरीरवाले उन मुनिश्रेष्ठ पिप्पलाद को छोड़कर परस्त्रीगामी एवं स्त्री के वश में रहनेवाले तुमको कैसे स्वीकार कर सकती हूँ ? ॥ १९ ॥ स्त्री के वश में रहनेवाले के स्पर्शमात्र से सारा पुण्य नष्ट हो जाता है । जो स्त्रीजित् तथा दूसरे की हत्या करनेवाला पापी है, उसका दर्शन भी पाप उत्पन्न करनेवाला होता है । जो पुरुष स्त्री के वश में रहनेवाला है, वह सत्कर्म में लगे रहने पर भी सदा अपवित्र है । पितर, देवता तथा सभी मनुष्य उसकी निन्दा करते हैं ॥ २०-२१ ॥ जिसका मन स्त्रियों के द्वारा हर लिया गया है, उसके ज्ञान, उत्तम तप, जप, होम, पूजन, विद्या तथा दान से क्या लाभ है ! तुमने माता के समान मुझमें स्त्री की भावना से जो इस प्रकार की बात कही है, इसलिये समय आने पर मेरे शाप से तुम्हारा नाश हो जायगा ॥ २२-२३ ॥ वसिष्ठजी बोले — सती के शाप को सुनकर वे देवेश धर्मराज राजा का रूप त्यागकर अपना स्वरूप धारणकर काँपते हुए कहने लगे — ॥ २४ ॥ धर्म बोले — हे मातः ! हे सति ! आप मुझे ज्ञानियों के गुरुओं का भी गुरु तथा परायी स्त्री में सर्वदा मातृबुद्धि रखनेवाला समझें ॥ २५ ॥ मैं आपके मनोभाव की परीक्षा लेने के लिये आपके पास आया था और आपका अभिप्राय जान लिया, किंतु हे साध्वि ! विधि से प्रेरित होकर आपने [शाप देकर] मेरा गर्व नष्ट किया । यह तो आपने उचित ही किया, कोई विरुद्ध कार्य नहीं किया । इस प्रकार का शासन उन्मार्गगामियों के लिये ईश्वर द्वारा निर्मित है ॥ २६-२७ ॥ जो स्वयं सबको महान सुख-दुःख देनेवाले हैं और सम्पत्ति तथा विपत्ति देने में समर्थ हैं, उन शिव के प्रति नमस्कार है । जो शत्रु, मित्र, प्रीति तथा कलह का विधान करने में और सृष्टि का सृजन एवं संहार करने में समर्थ हैं, उन शिव को नमस्कार है ॥ २८-२९ ॥ जिन्होंने पूर्वकाल में दूध को शुक्लवर्ण का बनाया, जल में शैत्य उत्पन्न किया और अग्नि को दाहकता-शक्ति प्रदान की, उन शिव को नमस्कार है । जिन्होंने प्रकृति का, महत् आदि तत्त्वों का एवं ब्रह्मा, विष्णु-महेश आदि का निर्माण किया है, उन शिव को नमस्कार है ॥ ३०-३१ ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार कहकर जगद्गुरु धर्मराज उस पतिव्रता के आगे खड़े हो गये । वे उसके पातिव्रत्य से सन्तुष्ट होकर आश्चर्य से चकित रह गये और कुछ भी नहीं बोल सके । हे पर्वत ! तब अनरण्य की कन्या तथा पिप्पलाद की पत्नी वह साध्वी पद्मा उन्हें धर्मराज जानकर चकित होकर कहने लगी — ॥ ३२-३३ ॥ पद्मा बोली — हे धर्म ! आप ही सबके समस्त कर्मों के साक्षी हैं, हे विभो ! आपने मेरे मन का भाव जानने के लिये कपटरूप क्यों धारण किया ? ॥ ३४ ॥ हे ब्रह्मन् ! यह जो कुछ मैंने किया, उसमें मेरा अपराध नहीं है । हे धर्म ! मैंने अज्ञान से स्त्रीस्वभाव के कारण आपको व्यर्थ ही शाप दे दिया ॥ ३५ ॥ मैं इस समय यही सोच रही हूँ कि उस शाप की क्या व्यवस्था होनी चाहिये, मेरे चित्त में अब वह बुद्धि स्फुरित हो, जिससे मैं शान्ति प्राप्त करूँ ॥ ३६ ॥ यह आकाश, सभी दिशाएँ तथा वायु भले ही नष्ट हो जायँ, किंतु पतिव्रता का शाप कभी नष्ट नहीं होता ॥ ३७ ॥ हे देवराज ! आप सत्ययुग में अपने चारों पैरों से सभी समय पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान दिन-रात शोभित रहते हैं । यदि आप नष्ट हो जायेंगे, तब तो सृष्टि का ही नाश हो जायगा । किंकर्तव्यविमूढ़ होकर मैंने यह झूठा शाप दे दिया है ॥ ३८-३९ ॥ हे सुरोत्तम ! हे विभो ! [अब आप मेरे शाप की व्यवस्था सुनिये।] त्रेतायुग में आपका एक पाद, द्वापर में दो पाद और कलियुग में तीन पाद नष्ट होगा और कलि के अन्त में आपके सभी पाद नष्ट हो जायँगे । तदनन्तर सत्ययुग आने पर आप पुनः पूर्ण हो जायेंगे ॥ ४०-४१ ॥ सत्ययुग में आप सर्वव्यापक रहेंगे और अन्य युगों में युग-व्यवस्थानुसार आप कहीं-कहीं जैसे-तैसे घटते-बढ़ते रहेंगे । मेरा यह सत्य वचन आपके लिये सुखदायक हो । हे विभो ! अब मैं अपने पति की सेवाके लिये जा रही हूँ और आप अपने घर जायँ ॥ ४२-४३ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे ब्रह्मपुत्र नारद ! पद्मा के इस वचन को सुनकर धर्मराज प्रसन्न हो गये और इस प्रकार कहनेवाली उस साध्वी से कहने लगे — ॥ ४४ ॥ धर्म बोले — हे पतिव्रते ! तुम धन्य हो, तुम पतिभक्त हो, तुम्हारा कल्याण हो । तुम वर स्वीकार करो । तुम्हारा स्वामी तुम्हारी रक्षा करने के कारण युवा हो जाय । तुम्हारा पति रति में शूर, धार्मिक, रूपवान्, गुणवान्, वक्ता और सदा स्थिर यौवनवाला हो ॥ ४५-४६ ॥ हे शुभे ! वह मार्कण्डेय से भी बढ़कर चिरंजीवी हो, कुबेर से भी अधिक धनवान् तथा इन्द्र से भी अधिक ऐश्वर्यशाली रहे । वह विष्णु के समान शिवभक्त, कपिल के समान सिद्ध, बुद्धि में बृहस्पति के समान तथा समदर्शिता में ब्रह्मदेव के समान हो ॥ ४७-४८ ॥ तुम जीवनपर्यन्त स्वामी के सौभाग्य से संयुक्त रहो और हे सुभगे ! हे देवि ! तुम्हारा भी यौवन स्थिर रहे ॥ ४९ ॥ तुम अपने पति से भी अधिक चिरंजीवी एवं गुणवान् दस पुत्रों की माता होओगी, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५० ॥ हे साध्वि ! तुम्हारे घर नाना प्रकार की सम्पत्ति से पूर्ण, निरन्तर प्रकाशयुक्त तथा कुबेर के भवन से भी श्रेष्ठ हों ॥ ५१ ॥ वसिष्ठ बोले — हे गिरिश्रेष्ठ ! इस प्रकार कहकर धर्मराज चुप होकर खड़े हो गये और वह भी उनकी प्रदक्षिणाकर उन्हें प्रणाम करके अपने घर चली गयी ॥ ५२ ॥ धर्मराज भी [पद्मा को] आशीर्वाद देकर अपने घर चले गये और वे प्रत्येक सभा में प्रसन्न मन से पद्मा की प्रशंसा करने लगे । तदनन्तर वह [पद्मा] अपने युवा स्वामी के साथ नित्य एकान्त में रमण करने लगी । बाद में उसके पति से भी अधिक गुणवान् उत्तम पुत्र उत्पन्न हुए ॥ ५३-५४ ॥ स्त्री एवं पुरुषों को सुख देनेवाली सारी सम्पत्ति उनके पास हो गयी, जो सब प्रकार के आनन्द को बढ़ानेवाली और इस लोक तथा परलोक में कल्याणकारिणी हुई ॥ ५५ ॥ हे शैलेन्द्र ! उन दोनों स्त्री-पुरुषों का यह सारा पुरातन इतिहास मैंने आपसे वर्णन किया और आपने इसे अत्यन्त आदरपूर्वक सुना ॥ ५६ ॥ अतः आप इस चरित्र को जानकर अपनी कन्या पार्वती को शिवजी को प्रदान कीजिये और हे शैलेन्द्र ! अपनी स्त्री मेना के सहित अपना हठ छोड़ दीजिये ॥ ५७ ॥ एक सप्ताह बीतने पर एक दुर्लभ उत्तम शुभयोग आ रहा है । उस लग्न में लग्न का स्वामी स्वयं अपने घर में स्थित है और चन्द्रमा भी अपने पुत्र बुध के साथ स्थित रहेगा । चन्द्रमा रोहिणीयुक्त होगा, इसलिये चन्द्र तथा तारागणों का योग भी उत्तम है । मार्गशीर्ष का महीना है, उसमें भी सर्वदोषविवर्जित चन्द्रवार का दिन है, वह लग्न सभी उत्तम ग्रहों से युक्त तथा नीच ग्रहों की दृष्टि से रहित है । उस शुभ लग्न में बृहस्पति उत्तम सन्तान तथा पति का सौभाग्य प्रदान करनेवाले हैं ॥ ५८–६० ॥ हे पर्वत ! [ऐसे शुभ लग्नमें] अपनी कन्या मूल प्रकृतिरूपा ईश्वरी जगदम्बा को जगत्पिता शिवजी के लिये प्रदान करके आप कृतार्थ हो जायँगे ॥ ६१ ॥ ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] यह कहकर ज्ञानियों में श्रेष्ठ मुनिशार्दूल वसिष्ठजी अनेक लीला करनेवाले प्रभु शिव का स्मरण करके चुप हो गये ॥ ६२ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में पद्मापिप्पलादचरितवर्णन नामक पैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३५ ॥ See Also:- ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 42 Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe