September 28, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 49 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः उनचासवाँ अध्याय शुक्राचार्य द्वारा शिव के उदर में जपे गये मन्त्र का वर्णन, अन्धक द्वारा भगवान् शिव की नामरूपी स्तुति-प्रार्थना, भगवान् शिव द्वारा अन्धकासुर को जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना ॥ सनत्कुमार उवाच ॥ ॐ नमस्ते देवेशाय सुरासुरनमस्कृताय भूतभव्यमहादेवाय हरितपिगललोचनाय बलाय बुद्धिरूपिणे वैयाघ्रवसनच्छदायारणेयाय त्रैलोक्यप्रभवे ईश्वराय हराय हरितनेत्राय युगान्तकरणायानलाय-गणेशायलोकपालाय महाभुजायमहाहस्ताय शूलिने महादंष्ट्रिणे कालाय महेश्वरायअव्ययाय कालरूपिणे नीलग्रीवाय महोदराय गणाध्यक्षाय सर्वात्मने सर्वभावनाय सर्वगाय मृत्युहंत्रे पारियात्रसुव्रताय ब्रह्मचारिणे वेदान्त गाय तपोंतगाय पशुपतये व्यंगाय शूलपाणये वृषकेतवे हरये जटिने शिखंडिने लकुटिने महायशसे भूतेश्वराय गुहावासिने वीणा पणवतालंबते अमराय दर्शनीयाय बालसूर्यनिभाय श्मशानवासिने भगवते उमापतये अरिन्दमाय भगस्याक्षिपातिने पूष्णोर्दशननाशनाय कूरकर्तकाय पाशहस्ताय प्रलयकालाय उल्कामुखायाग्निकेतवे मुनये दीप्ताय विशांपतये उन्नयते जनकाय चतुर्थकाय लोक सत्तमाय वामदेवाय वाग्दाक्षिण्याय वामतो भिक्षवे भिक्षुरूपिणे जटिने स्वयंजटिलाय शक्रहस्तप्रतिस्तंभकाय वसूनां स्तंभाय क्रतवे क्रतुकराय कालाय मेधाविने मधुकराय चलाय वानस्पत्याय वाजसनेति समाश्रमपूजिताय जगद्धात्रे जगत्कर्त्रे पुरुषाय शाश्वताय ध्रुवाय धर्माध्यक्षाय त्रिवर्त्मने भूतभावनाय त्रिनेत्राय बहुरूपाय सूर्यायुतसमप्रभाय देवाय सर्वतूर्यनिनादिने सर्वबाधा-विमोचनाय बंधनाय सर्वधारिणे धर्म्मोत्तमाय पुष्पदंतायापि भागाय मुखाय सर्वहराय हिरण्यश्रवसे द्वारिणे भीमाय भीमपराक्रमाय ॐ नमो नमः ॥ शिवमहापुराण [शुक्राचार्य ने भगवान् शिव के उदर में उक्त मृत्युंजय मन्त्र का जप किया था, उक्त मन्त्र का भावार्थ इस प्रकार है-] सनत्कुमार बोले — [हे महर्षे] ‘ॐ जो देवताओं के स्वामी, सुर-असुर द्वारा वन्दित, भूत और भविष्य के महान् देवता, हरे और पीले नेत्रों से युक्त, महाबली, बुद्धिस्वरूप, बाघम्बर धारण करनेवाले, अग्निस्वरूप, त्रिलोकी के उत्पत्तिस्थान, ईश्वर, हर, हरिनेत्र, प्रलयकारी, अग्निस्वरूप, गणेश, लोकपाल, महाभुज, महाहस्त, त्रिशूल धारण करनेवाले, बड़ी-बड़ी दाढ़ोंवाले, कालस्वरूप, महेश्वर, अविनाशी, कालरूपी, नीलकण्ठ, महोदर, गणाध्यक्ष, सर्वात्मा, सबको उत्पन्न करनेवाले, सर्वव्यापी, मृत्यु को हटानेवाले, पारियात्र पर्वत पर उत्तम व्रत धारण करनेवाले, ब्रह्मचारी, वेदान्तप्रतिपाद्य, तप की अन्तिम सीमा तक पहुँचनेवाले, पशुपति, विशिष्ट अंगोंवाले, शूलपाणि, वृषध्वज, पापापहारी, जटाधारी, शिखण्ड धारण करनेवाले, दण्डधारी, महायशस्वी, भूतेश्वर, गुहा में निवास करनेवाले, वीणा और पणव पर ताल लगानेवाले, अमर, दर्शनीय, बालसूर्य-सरीखे रूपवाले, श्मशानवासी, ऐश्वर्यशाली, उमापति, शत्रुदमन, भग के नेत्रों को नष्ट कर देनेवाले, पूषा के दाँतों के विनाशक, क्रूरतापूर्वक संहार करनेवाले, पाशधारी, प्रलयकालरूप, उल्कामुख, अग्निकेतु, मननशील, प्रकाशमान, प्रजापति, ऊपर उठानेवाले, जीवों को उत्पन्न करनेवाले, तुरीयतत्त्वरूप, लोकों में सर्वश्रेष्ठ, वामदेव, वाणी की चतुरतारूप, वाममार्ग में भिक्षुरूप, भिक्षुक, जटाधारी, जटिल-दुराराध्य, इन्द्र के हाथ को स्तम्भित करनेवाले, वसुओं को विजडित कर देनेवाले, यज्ञस्वरूप, यज्ञकर्ता, काल, मेधावी, मधुकर, चलने-फिरनेवाले, वनस्पति का आश्रय लेनेवाले, वाजसन नाम से सम्पूर्ण आश्रमों द्वारा पूजित, जगद्धाता, जगत्कर्ता, सर्वान्तर्यामी, सनातन, ध्रुव, धर्माध्यक्ष, भूः-भुवः स्वः-इन तीनों लोकों में विचरनेवाले, भूतभावन, त्रिनेत्र, बहुरूप, दस हजार सूर्यों के समान प्रभाशाली, महादेव, सब तरह के बाजे बजानेवाले, सम्पूर्ण बाधाओं से विमुक्त करनेवाले, बन्धनस्वरूप, सबको धारण करनेवाले, उत्तम धर्मरूप, पुष्पदन्त, विभागरहित, मुख्यरूप, सबका हरण करनेवाले, सुवर्ण के समान दीप्त कीर्तिवाले, मुक्ति के द्वारस्वरूप, भीम तथा भीमपराक्रमी हैं, उन्हें नमस्कार है, नमस्कार है ।’ — इस श्रेष्ठ मन्त्र का जप करके शिवजी के जठरपंजर से उनके लिंगमार्ग से उत्कट वीर्य की भाँति शुक्राचार्य बाहर आये ॥ १ ॥ पार्वती ने उन्हें पुत्ररूप में ग्रहण किया और विश्वेश्वर ने उन्हें अजर-अमर एवं ऐश्वर्यमय बनाकर दूसरे शिव के समान कर दिया ॥ २ ॥ इस प्रकार तीन हजार वर्ष बीत जाने पर वेदनिधि मुनि शुक्र महेश्वर से पुनः पृथ्वी पर उत्पन्न हुए ॥ ३ ॥ तब उन्होंने शिव के त्रिशूल पर अत्यन्त शुष्क शरीरवाले, महाधैर्यवान और तपस्वी दानवराज अन्धक को शिवजी का ध्यान करते हुए देखा ॥ ४ ॥ [वह शिवजी के १०८ नामों का इस प्रकार स्मरण कर रहा था] महादेवं विरूपाक्षं चन्द्रार्द्धकृतशेखरम् । अमृतं शाश्वतं स्थाणुं नीलकंठं पिनाकिनम् ॥ ५ ॥ वृषभाक्षं महाज्ञेयं पुरुषं सर्वकामदम् । कामारिं कामदहनं कामरूपं कपर्दिनम् ॥ ६ ॥ विरूपं गिरिशं भीमं स्रग्विणं रक्तवाससम् । योगिनं कालदहनं त्रिपुरघ्नं कपालिनम् ॥ ७ ॥ गूढव्रतं गुप्तमंत्रं गंभीरं भावगोचरम् । अणिमादिगुणाधारत्रिलोक्यैश्वर्य्यदायकम् ॥ ८ ॥ वीरं वीरहणं घोरं विरूपं मांसलं पटुम् । महामांसादमुन्मत्तं भैरवं वै महेश्वरम् ॥ ९ ॥ त्रैलोक्यद्रावणं लुब्धं लुब्धकं यज्ञसूदनम् । कृत्तिकानां सुतैर्युक्तमुन्मत्तकृत्तिवाससम् ॥ १० ॥ गजकृत्तिपरीधानं क्षुब्धं भुजगभूषणम् । दद्यालंबं च वेतालं घोरं शाकिनिपूजितम् ॥ ११ ॥ अघोरं घोरदैत्यघ्नं घोरघोषं वनस्पतिम् । भस्मांगं जटिलं शुद्धं भेरुंडशतसेवितम् ॥ १२ ॥ भूतेश्वरं भूतनाथं पञ्चभूताश्रितं खगम् । क्रोधितं निष्ठुरं चण्डं चण्डीशं चण्डिकाप्रियम् ॥ १३ ॥ चण्डं तुंगं गरुत्मंतं नित्यमासवभोजनम् । लेलिहानं महारौद्रं मृत्युं मृत्योरगोचरम् ॥ १४ ॥ मृत्योर्मृत्युं महासेनं श्मशानारण्यवासिनम् । रागं विरागं रागांधं वीतरागशताचितम् ॥ १५ ॥ सत्त्वं रजस्तमोधर्ममधर्मं वासवानुजम् । सत्यं त्वसत्यं सद्रूपमसद्रूपमहेतुकम् ॥ १६ ॥ अर्द्धनारीश्वरं भानुं भानुकोटिशतप्रभम् । यज्ञं यज्ञपतिं रुद्रमीशानं वरदं शिवम् ॥ १७ ॥ अष्टोत्तरशतं ह्येतन्मूर्तीनां परमात्मनः । शिवस्य दानवो ध्यायन्मुक्तस्तस्मान्महाभयात् ॥ १८ ॥ महादेव, विरूपाक्ष, चन्द्रार्धकृतशेखर अमृत, शाश्वत, स्थाणु, नीलकण्ठ, पिनाकी, वृषभाक्ष, महाज्ञेय, पुरुष, सर्वकामद, कामारि, कामदहन, कामरूप, कपर्दी, विरूप, गिरिश, भीम, स्रग्वी, रक्तवासा, योगी, कालदहन, त्रिपुरघ्न, कपाली, गूढव्रत, गुप्तमन्त्र, गम्भीर, भावगोचर, अणिमादि गुणाधार, त्रिलोकैश्वर्यदायक, वीर, वीरहण, घोर, विरूप, मांसल, पटु, महामांसाद, उन्मत्त, भैरव, महेश्वर, त्रैलोक्यद्रावण, लुब्ध, लुब्धक, यज्ञसूदन, कृत्तिकासुतयुक्त, उन्मत्त, कृत्तिवासा, गजकृत्तिपरीधान, क्षुब्ध, भुजगभूषण, दत्तालम्ब, वेताल, घोर, शाकिनीपूजित, अघोर, घोर दैत्यघ्न, घोरघोष, वनस्पति, भस्मांग, जटिल, शुद्ध, भेरुण्डशतसेवित, भूतेश्वर, भूतनाथ, पंचभूताश्रित, खग, क्रोधित, निष्ठुर, चण्ड, चण्डीश, चण्डिकाप्रिय, चण्ड, तुंग, गरुत्मान्, नित्य आसवभोजन, लेलिहान, महारौद्र, मृत्यु, मृत्योरगोचर, मृत्योर्मृत्यु, महासेन, श्मशानारण्यवासी, राग, विराग, रागान्ध, वीतरागशतार्चित, सत्त्व, रज, तम, धर्म, अधर्म, वासवानुज, सत्य, असत्य, सद्रूप, असद्रूप, अहेतुक, अर्धनारीश्वर, भानु, भानुकोटिशतप्रभ, यज्ञ, यज्ञपति, रुद्र, ईशान, वरद और शिव — इस प्रकार परमात्मा शिवजी की इन एक सौ आठ मूर्तियों का ध्यान करता हुआ वह दैत्य उस महाभय से मुक्त हो गया ॥ ५–१८ ॥ प्रसन्न हुए शिवजी ने दिव्य अमृत की वर्षा से उसका अभिषेक किया और उस त्रिशूल के अग्रभाग से उसे उतारा और महात्मा शिवजी ने वह सब कृत्य उस महादैत्य अन्धक से शान्तिपूर्वक कहा, जिसे उन्होंने पहले किया था ॥ १९-२० ॥ ईश्वर बोले — हे दैत्येन्द्र ! हे सुव्रत ! मैं तुम्हारे यम, नियम, शौर्य एवं धैर्य से अत्यन्त प्रसन्न हूँ, तुम वर माँगो । हे श्रेष्ठ महादैत्येन्द्र ! तुमने निष्पाप होकर नित्य मेरी आराधना की है, तुम वर के योग्य हो, इसलिये मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ । इस प्रकार तीन सहस्र वर्षपर्यन्त प्राणधारण करने का तुम्हारा जो पुण्यफल है, उससे तुम्हारी मुक्ति हो जाय ॥ २१–२३ ॥ सनत्कुमार बोले — यह सुनकर अन्धक ने पृथ्वी पर दोनों घुटनों को टेककर काँपते हुए हाथ जोड़कर उमापति शिवजी से कहा — ॥ २४ ॥ अन्धक बोला — हे भगवन् ! मैंने इससे पूर्व में आप परात्पर परमात्मा को युद्धक्षेत्र में प्रसन्न गद्गद वाणी से दीन, हीन इत्यादि जो कहा है एवं हे शम्भो ! मूर्ख होने के कारण अज्ञानवश इस लोक में जो-जो निन्दित कर्म किया है, उसे आप अपने मन में न रखें ॥ २५-२६ ॥ हे महादेव ! मैंने कामविकार से पार्वती के प्रति अपराध किया है, उसे क्षमा करें; क्योंकि मैं अत्यन्त कृपण एवं दुखी हूँ ॥ २७ ॥ हे प्रभो ! अत्यन्त दुखित, कृपण, दीन एवं भक्ति से युक्त जन पर आपको विशेष रूप से दया करनी चाहिये ॥ २८ ॥ मैं दीन आपकी शरण में आया हूँ, अतः मेरी रक्षा कीजिये । मैंने हाथ जोड़ रखे हैं ॥ २९ ॥ मुझ पर सन्तुष्ट होनेवाली जगज्जननी ये देवी समस्त क्रोध त्यागकर मेरे ऊपर प्रसन्न होकर मुझे देखें ॥ ३० ॥ हे चन्द्रशेखर ! हे अर्धेन्दुचूड ! हे शम्भो ! हे महेश्वर ! कहाँ तो इन महादेवी का क्रोध और कहाँ मैं दया का पात्र दैत्य, फिर भी आप मेरा अपराध क्षमा करते रहें ॥ ३१ ॥ कहाँ आप जैसे परमोदार और कहाँ काम, क्रोधादि दोषों एवं मृत्यु तथा वृद्धावस्था के वशीभूत रहनेवाला मैं । [हे प्रभो!] आपका यह युद्धकुशल तथा महाबली पुत्र वीरक मुझ दयापात्र को देखकर अब क्रोध न करे ॥ ३२-३३ ॥ तुषार, हार, चन्द्र, शंख तथा कुन्द के समान स्वच्छ वर्णवाले हे प्रभो ! मैं इन माता पार्वती को अत्यन्त आदर से नित्य देखा करूँ । अब मैं आप दोनों का सदा भक्त होकर तथा देवताओं के साथ वैररहित होकर शान्तचित्त और योगपरायण हो इन गणों के साथ निवास करूँ ॥ ३४-३५ ॥ हे महेशान ! आपकी कृपा से मैं दानवकुल में उत्पन्न होने के कारण किये गये विपरीत कर्मों का स्मरण कभी न करूँ, आप मुझे यह उत्तम वर दीजिये ॥ ३६ ॥ सनत्कुमार बोले — इतना कहकर उस दैत्येन्द्र ने माता पार्वती की ओर देखकर भगवान् शिव का ध्यान करते हुए मौन धारण कर लिया । तदनन्तर शिवजी ने प्रसन्नतापूर्ण दृष्टि से उसे देखा, तब उसे अपने पूर्ववृत्तान्त तथा अद्भुत जन्म का स्मरण हो आया ॥ ३७-३८ ॥ इस प्रकार उस पूर्ववृत्तान्त का स्मरण होने पर वह पूर्णमनोरथवाला हो गया और माता-पिता को प्रणामकर कृतकृत्य हो गया । इसके बाद बुद्धिमान् शिवजी तथा पार्वती ने उसका मस्तक सूँघा और उसने प्रसन्न हुए सदाशिव से अभिलषित वर प्राप्त किया । [हे वेदव्यासजी!] इस प्रकार मैंने अन्धक का सारा पुरातन वृत्तान्त और शंकरजी की कृपा से उसे सुख देनेवाले गाणपत्य पद की प्राप्ति का वर्णन किया और सभी कामनाओं का फल देनेवाले तथा मृत्यु का विनाश करनेवाले मृत्युंजय मन्त्र को भी मैंने कहा, इसको यत्नपूर्वक पढ़ना (जपना) चाहिये ॥ ३९-४२ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में अन्धकगणजीवप्राप्तिवर्णन नामक उनचासवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४९ ॥ Related