शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 51
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
इक्यावनवाँ अध्याय
प्रह्लाद की वंशपरम्परा में बलिपुत्र बाणासुर की उत्पत्ति की कथा, शिवभक्त बाणासुर द्वारा ताण्डव नृत्य के प्रदर्शन से शंकर को प्रसन्न करना, वरदान के रूप में शंकर का बाणासुर की नगरी में निवास करना, शिव-पार्वती का विहार, पार्वती द्वारा बाणपुत्री ऊषा को वरदान

व्यासजी बोले — हे सर्वज्ञ ! हे सनत्कुमार ! आपने मुझपर अनुग्रहकर परम प्रीति से शिव के अनुग्रह से पूर्ण यह अत्यन्त अद्भुत कथा सुनायी । अब शिवजी के उस चरित्र को सुनना चाहता हूँ, जिस प्रकार उन्होंने प्रीतिपूर्वक बाणासुर को गाणपत्यपद प्रदान किया ॥ १-२ ॥

सनत्कुमार बोले — हे व्यास ! जिस प्रकार शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक बाणासुर को गाणपत्यपद प्रदान किया, परमात्मा शिवजी के उस चरित्र को अब आप आदरपूर्वक सुनिये । इसी चरित्र के अन्तर्गत बाणासुर पर अनुग्रह करनेवाले महाप्रभु सदाशिव का श्रीकृष्ण के साथ युद्ध भी हुआ ॥ ३-४ ॥ अब शिव की लीला से युक्त, मन तथा कान को सुख देनेवाले तथा महापुण्यदायक इतिहास को सुनिये ॥ ५ ॥

पूर्वकाल में ब्रह्माजी के मानसपुत्र मरीचि नामक प्रजापति हुए, जो उनके सभी पुत्रों में ज्येष्ठ, श्रेष्ठ एवं महाबुद्धिमान् मुनि थे । उनके पुत्र मुनिश्रेष्ठ महात्मा कश्यप हुए, जो इस सृष्टि के प्रवर्तक हैं । वे अपने पिता मरीचि तथा ब्रह्माजी के अत्यन्त भक्त थे ॥ ६-७ ॥ हे व्यासजी ! दक्ष की सुशील तेरह कन्याएँ थीं, जो उन कश्यपमुनि की पतिव्रता स्त्रियाँ थीं ॥ ८ ॥ उनमें ज्येष्ठ कन्या का नाम दिति था, सभी दैत्य उसी के पुत्र कहे गये हैं और अन्य स्त्रियों से चराचरसहित सभी देवता आदि सन्तानें उत्पन्न हुईं ॥ ९ ॥ ज्येष्ठ पत्नी दिति से महाबलवान् दो पुत्र उत्पन्न हुए, जिनमें हिरण्यकशिपु ज्येष्ठ तथा हिरण्याक्ष कनिष्ठ था । उस हिरण्यकशिपु के क्रम से ह्राद, अनुह्राद, संह्राद तथा प्रह्लाद नामक चार दैत्यश्रेष्ठ पुत्र हुए ॥ १०-११ ॥

उन सभी में प्रह्लाद अत्यन्त जितेन्द्रिय तथा भगवान् विष्णु का परम भक्त था, जिसका नाश करने में कोई भी दैत्य समर्थ नहीं हुआ । उस प्रह्लाद का पुत्र विरोचन हुआ, जो दानियों में श्रेष्ठ था और जिसने ब्राह्मणरूपी इन्द्र के माँगने पर अपना सिर ही दे दिया ॥ १२-१३ ॥ उस विरोचन का पुत्र महादानी एवं शिवप्रिय बलि हुआ, जिसने वामनावतार धारणकर याचना करनेवाले विष्णु को सम्पूर्ण पृथ्वी दान कर दी ॥ १४ ॥ उसी बलि का औरस पुत्र बाण हुआ, जो शिवभक्त, मान्य, दानी, बुद्धिमान्, सत्यप्रतिज्ञ एवं हजारों का दान करनेवाला था । वह दैत्यराज बाणासुर अपने बल से तीनों लोकों को तथा उसके स्वामियों को जीतकर शोणित नामक पुर में रहकर राज्य करता था ॥ १५-१६ ॥

सभी देवगण शंकरजी की कृपा से शिवभक्त उस बाणासुर के दास की भाँति हो गये ॥ १७ ॥ उस बाणासुर के राज्य में देवताओं को छोड़कर अन्य प्रजाएँ दुखी नहीं थीं । देवगणों के दुःख का कारण यह था कि बाणासुर उनका शत्रु था एवं वह असुरकुल में उत्पन्न हुआ था । एक समय उस महादैत्य ने अपनी हजार भुजाओं को बजाकर ताण्डव नृत्य द्वारा उन महेश्वर को प्रसन्न कर लिया । भक्तवत्सल भगवान् शंकर उस नृत्य से सन्तुष्ट तथा अत्यन्त प्रसन्न हो गये और उन्होंने कृपादृष्टि से उसकी ओर देखा ॥ १८-२० ॥ सर्वलोकेश, शरणागतवत्सल एवं भक्तों की कामना पूर्ण करनेवाले भगवान् शंकर ने उस बलिपुत्र बाणासुर को वर प्रदान करने की इच्छा की ॥ २१ ॥

सनत्कुमार बोले — [हे मुने!] अत्यन्त बुद्धिमान् एवं शिवभक्त वह बलि-पुत्र बाणासुर परमेश्वर शिव को भक्ति से प्रणामकर स्तुति करने लगा — ॥ २२ ॥

बाणासुर बोला — हे देवदेव ! हे महादेव ! हे शरणागतवत्सल ! हे महेशान ! हे विभो ! हे प्रभो ! यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं, तो मेरे नगर के अधिपति बनकर अपने पुत्रों एवं गणों के सहित इसी के समीप निवासकर मेरा हित करते हुए मेरी रक्षा कीजिये ॥ २३-२४ ॥

सनत्कुमार बोले — शिवजी की माया से मोहित हुए बलिपुत्र बाणासुर ने मुक्ति देनेवाले दुराराध्य शिव से केवल इतना ही वर माँगा । भक्तवत्सल प्रभु शंकर उस बाणासुर को उन वरों को देकर गणों तथा पुत्रोंसहित उसके पुर में निवास करने लगे । किसी समय बाणासुर के शोणितपुर नामक मनोहर नगर में नदी के तटपर शिवजी ने देवगणों एवं दैत्यों के साथ क्रीड़ा की ॥ २५–२७ ॥

उस समय गन्धर्व एवं अप्सराएँ नाचने-हँसने लगीं । मुनियों ने शिव को प्रणाम किया, उनका जप, पूजन तथा स्तवन किया । प्रमथगण अट्टहास करने लगे, ऋषिलोग हवन करने लगे एवं सिद्धगण यहाँ आये और शिव की क्रीड़ा देखने लगे ॥ २८-२९ ॥ म्लेच्छ, कुमार्गी तथा कुतर्की विनष्ट हो गये । समस्त देवमाताएँ शिवजी के सम्मुख उपस्थित हो गयीं तथा सभी प्रकार के भय नष्ट हो गये ॥ ३० ॥ उस क्रीड़ा से रुद्र में सद्भावना रखनेवाले भक्तों के सांसारिक दोष दूर हो गये । उस समय शिवजी का दर्शन करते ही सभी प्रजाएँ अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं ॥ ३१ ॥

मुनि तथा सिद्धगण स्त्रियों की अद्भुत चेष्टा को देखकर अट्टहास करने लगे । समस्त ऋतुएँ वहाँ अपना-अपना प्रभाव प्रकट करने लगीं ॥ ३२ ॥ पुष्पों के पराग से मिश्रित सुगन्धित वायु बहने लगी, पक्षिसमूह कूजन करने लगे एवं पुष्पों के भार से अवनत वृक्ष-शाखाओं पर मधु-लम्पट कोयलें वनों तथा उपवनों में कामोत्पादक मधुर शब्द करने लगीं ॥ ३३-३४ ॥ उस समय क्रीडाविहार में उन्मत्त तथा काम पर विजय न प्राप्तकर उससे देखे जानेमात्र से ही काम के वशीभूत सदाशिव ने नन्दी से कहा — ॥ ३५ ॥

चन्द्रशेखर बोले — हे नन्दिन् ! तुम शीघ्र ही इस वन से कैलास जाकर मेरा सन्देश कहकर शृंगार से युक्त गौरी को यहाँ ले आओ ॥ ३६ ॥

सनत्कुमार बोले — ‘ऐसा ही करूँगा’, इस प्रकार की प्रतिज्ञाकर वहाँ जाकर शंकर के दूत नन्दी ने हाथ जोड़कर एकान्त में पार्वती से कहा — ॥ ३७ ॥

नन्दीश्वर बोले — हे देवि ! देवदेव महादेव महेश्वर शृंगार से युक्त अपनी भार्या को देखना चाहते हैं, मैंने उनके आदेश से ऐसा कहा है ॥ ३८ ॥

सनत्कुमार बोले — हे मुनिश्रेष्ठ ! उनके इस वचन को सुनकर पतिव्रतधर्मपरायणा भगवती पार्वती बड़ी प्रसन्नता से अपना शृंगार करने लगी और नन्दी से बोलीं — तुम मेरी आज्ञा से शीघ्र शिवजी के पास जाओ और उनसे कहो कि मैं अभी आ रही हूँ । यह सुनकर मन की गति के समान चलनेवाले नन्दीश्वर महादेव के पास चले आये ॥ ३९-४० ॥

नन्दी को अकेले आया देख शिवजी ने नन्दी से पुनः कहा — हे तात ! तुम पुनः जाओ और पार्वती को शीघ्र लिवा लाओ । तब नन्दी ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर वहाँ जाकर मनोहर नेत्रवाली गौरी से कहा — आपके पति श्रृंगार की हुई आप मनोरमा को देखना चाहते हैं । हे देवि ! विहार करने की उत्कण्ठा से वे उत्सुकतापूर्वक आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, अतः हे गिरिनन्दिनि ! आप अपने पति के पास शीघ्र चलिये ॥ ४१-४३ ॥

पार्वती के आने में देर देखकर समग्र अप्सराओं ने परस्पर मिलकर विचार किया कि शिवजी पार्वती को शीघ्र देखना चाहते हैं । इस अवस्था में वे जिस स्त्री का वरण करेंगे, वह स्त्री निश्चय ही समस्त दिव्य स्त्रियों की रानी होगी ॥ ४४-४५ ॥ इस समय कामशत्रु शिव को यह काम दुःख दे रहा है, इसलिये हम पार्वती का रूप धारण करें, कदाचित् हमें पार्वती के रूप में देखकर वे मन्मथगणों सहित हमारे साथ क्रीडा करें । वे आदरपूर्वक आपस में ऐसा विचार करने लगीं ॥ ४६ ॥ अतः जो स्त्री दाक्षायणी से रहित इन शंकर का स्पर्श कर सके, वही नि:शंक भाव से पार्वतीपति शिवजी के पास जाय और उन्हें मोहित करे ॥ ४७ ॥

तब कूष्माण्ड (कुम्भाण्ड)-की कन्या चित्रलेखा ने यह वचन कहा — ‘मैं गौरी का सुन्दर रूप धारणकर शिवजी का स्पर्श कर सकती हूँ ॥ ४८ ॥

चित्रलेखा बोली — केशव ने शिवजी को मोहित करने की इच्छा से परमार्थ के लिये वैष्णवयोग का आश्रय लेकर जिस मोहिनीरूप को धारण किया, उसीको मैं धारण करती हूँ । तदनन्तर उसने उर्वशी के परिवर्तित रूप को देखा, इसी प्रकार — उसने देखा कि घृताची ने कालीरूप, विश्वाची ने चण्डिकारूप, रम्भा ने सावित्रीरूप, मेनका ने गायत्रीरूप, सहजन्या ने जयारूप, पुंजिकस्थली ने विजया का रूप तथा समस्त अप्सराओं ने मातृगणों का रूप यत्नपूर्वक बना लिया है । उनके रूपों को देखकर कुम्भाण्डपुत्री चित्रलेखा ने भी वैष्णवयोग से सारे रहस्यों को जानकर अपने रूप को छिपा लिया ॥ ४९-५३ ॥

दिव्य योगविशारद बाणासुर की कन्या ऊषा ने वैष्णवयोग के प्रभाव से अत्यन्त मनोहर, सुन्दर और अद्भुत पार्वती का रूप धारण किया ॥ ५४ ॥ ऊषा के चरण लाल कमल के समान दिव्य कान्तिवाले, उत्तम प्रभा से सम्पन्न, दिव्य लक्षणों से संयुक्त एवं मन के अभिलषित पदार्थों को देनेवाले थे ॥ ५५ ॥ उसके बाद सर्वान्तर्यामिनी तथा सब कुछ जाननेवाली शिवा गिरिजा शिवजी के साथ उसकी रमण की इच्छा जानकर कहने लगीं — ॥ ५६ ॥

गिरिजा बोलीं — हे सखि ऊषे ! हे मानिनि ! तुमने समय प्राप्त होनेपर सकामभाव से मेरा रूप धारण किया, अतः तुम इसी कार्तिक मास में ऋतुधर्मिणी होओगी । वैशाख मास के शुक्लपक्ष की द्वादशी तिथि को घोर अर्धरात्रि में उपवासपूर्वक अन्तःपुर में सोयी हुई अवस्था में तुमसे जो कोई पुरुष आकर रमण करेगा, देवगणों ने उसीको तुम्हारा पति नियुक्त किया है । उसी के साथ तुम रमण करोगी; क्योंकि तुम बाल्यावस्था से ही आलस्यरहित होकर सर्वदा विष्णु में भक्ति रखनेवाली हो । तब ‘ऐसा ही हो’ — इस प्रकार ऊषा ने मन में कहा और वह लज्जित हो गयी ॥ ५७-६० ॥

इसके बाद शृंगार से युक्त होकर रुद्र के समीप आकर वे देवी पार्वती उन शम्भु के साथ क्रीड़ा करने लगीं ॥ ६१ ॥ हे मुने ! तदनन्तर रमण के अन्त में भगवान् सदाशिव स्त्रियों, गणों एवं देवताओं के साथ अन्तर्धान हो गये ॥ ६२ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में ऊषाचरित्रवर्णन के क्रम में शिवाशिवविहारवर्णन नामक इक्यावनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५१ ॥

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