September 25, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 39 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः उनतालीसवाँ अध्याय शिव और शंखचूड के महाभयंकर युद्ध में शंखचूड के सैनिकों के संहार का वर्णन व्यासजी बोले — हे महाप्राज्ञ ! भद्रकाली के वचन को सुनकर शिवजी ने क्या कहा और क्या किया ? उसे आप तत्त्वतः कहिये, मुझे सुनने की बड़ी ही उत्सुकता है ॥ १ ॥ शिवमहापुराण सनत्कुमार बोले — काली के द्वारा कहे गये वचन को सुनकर महान् लीला करनेवाले कल्याणकारी परमेश्वर शम्भु उन काली को आश्वस्त करते हुए हँसने लगे ॥ २ ॥ तत्त्वज्ञानविशारद शिवजी आकाशवाणी को सुनकर अपने गणों को साथ लेकर स्वयं युद्धस्थल में गये ॥ ३ ॥ वीरभद्रादि गणों एवं अपने समान भैरवों तथा क्षेत्रपालों को साथ लिये हुए महावृषभ पर आरूढ़ होकर महेश्वर वीररूप धारणकर युद्धभूमि में पहुँचे । उस समय वे रुद्र मूर्तिमान् काल ही प्रतीत हो रहे थे ॥ ४-५ ॥ शंखचूड ने शिवजी को देखकर विमान से उतरकर परमभक्तिपूर्वक भूमि में गिरकर सिर से उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया । उन्हें प्रणाम करके वह योगमार्ग से पुनः विमान पर जा चढ़ा और शीघ्र ही उसने कवच धारणकर धनुष-बाण उठा लिया ॥ ६-७ ॥ उसके बाद शिव तथा उन दानवों का सौ वर्षपर्यन्त घनघोर युद्ध होता रहा, जिसमें निरन्तर वर्षा करते हुए मेघों के समान बाणों की वर्षा हो रही थी । महावीर शंखचूड शिवजी पर दारुण बाण छोड़ रहा था, किंतु शंकरजी अपने बाणों से उन्हें छिन्न-भिन्न कर देते थे ॥ ८-९ ॥ दुष्टों को दण्ड देनेवाले तथा सज्जनों के रक्षक विरूपाक्ष महारुद्र ने अत्यन्त क्रोधपूर्वक अपने शस्त्रसमूहों से उसके अंगों पर प्रहार किया । उस दानव ने भी वेगयुक्त होकर अपनी तीक्ष्ण तलवार एवं ढाल लेकर शिवजी के श्रेष्ठ वाहन वृषभ के सिर पर प्रहार किया ॥ १०-११ ॥ वृषभ पर प्रहार किये जाने पर शंकरजी ने तीक्ष्ण धारवाले छुरे से लीलापूर्वक शीघ्र ही उसके खड्ग एवं अति उज्ज्वल ढाल को काट दिया ॥ १२ ॥ तब ढाल के कट जानेपर उस दानव ने शक्ति चलायी, किंतु शिवजी ने अपने बाण से सामने आयी हुई उस शक्ति के दो टुकड़े कर दिये ॥ १३ ॥ तब क्रोध से व्याकुल दानव शंखचूड ने चक्र से प्रहार किया, किंतु शिवजी ने सहसा अपनी मुष्टि के प्रहार से उसे भी चूर्ण कर दिया । इसके बाद उसने शिवजी पर बड़े वेग से गदा से प्रहार किया, किंतु शिवजी ने उसे भी छिन्न-भिन्न करके भस्म कर दिया ॥ १४-१५ ॥ तब क्रोध से व्याकुल दानवेश्वर शंखचूड हाथ में परशु लेकर वेग से शिवजी की ओर दौड़ा । शंकर ने बड़ी शीघ्रता से लीलापूर्वक अपने बाणसमूहों से हाथ में परशु लिये हुए उस असुर को आहतकर पृथ्वी पर गिरा दिया ॥ १६-१७ ॥ तत्पश्चात् थोड़ी ही देर में वह सचेत हो रथ पर आरूढ़ होकर दिव्य आयुध एवं बाण धारणकर समस्त आकाशमण्डल को व्याप्तकर शोभित होने लगा ॥ १८ ॥ उसे अपनी ओर आता हुआ देखकर शिवजी ने आदरपूर्वक डमरू बजाया और धनुष की प्रत्यंचा की दुःसह ध्वनि भी की । प्रभु गिरीश ने शृंगनाद के द्वारा सारी दिशाएँ पूरित कर दी और स्वयं असुरों को भयभीत करते हुए गर्जना करने लगे ॥ १९-२० ॥ नन्दीश्वर ने हाथी के महागर्व को छुड़ा देनेवाले महानादों से सहसा पृथ्वी, आकाश तथा आठों दिशाओं को पूर्ण कर दिया । महाकाल ने बड़ी तेजी से दौड़कर अपने दोनों हाथों को पृथ्वी एवं आकाश पर पटक दिया, जिससे पहले के शब्द तिरोहित हो गये ॥ २१-२२ ॥ इसी प्रकार उस महायुद्ध में क्षेत्रपाल ने अशुभसूचक अट्टहास किया तथा भैरव ने भी नाद किया ॥ २३ ॥ युद्धस्थल में महान् कोलाहल होने लगा और गणों के मध्य में चारों ओर सिंहगर्जना होने लगी ॥ २४ ॥ उन भयदायक एवं कर्कश शब्दों से सभी दानव व्याकुल हो उठे । महाबलवान् दानवेन्द्र उसे सुनकर अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा । जब शिवजी ने कहा — रे दुष्ट ! खड़ा रह, खड़ा रह, उसी समय देवताओं एवं गणों ने भी शीघ्र जय-जयकार की । इसके बाद महाप्रतापी दम्भपुत्र ने आकर ज्वाला-माला के समान अत्यन्त भीषण शक्ति शिवजी पर चलायी ॥ २५–२७ ॥ क्षेत्रपाल ने अग्निज्वाला के समान आती हुई उस शक्ति को बड़ी शीघ्रता से युद्ध में आगे बढ़कर अपने मुख से उत्पन्न उल्का से नष्ट कर दिया । उसके अनन्तर पुनः शिवजी एवं उस दानव का महाभयंकर युद्ध होने लगा, जिससे पर्वत, समुद्र एवं जलाशयों के सहित पृथ्वी एवं द्युलोक कम्पित हो उठे । दम्भपुत्र शंखचूड के द्वारा छोड़े गये सैकड़ों-हजारों बाणों को शिवजी अपने उग्र बाणों से छिन्न-भिन्न कर रहे थे तथा शिवजी के द्वारा छोड़े गये सैकड़ों-हजारों बाणों को वह भी अपने उग्र बाणों से छिन्न-भिन्न कर देता था ॥ २८-३० ॥ तब शिवजी ने अत्यधिक क्रोधित हो अपने त्रिशूल से दानव पर प्रहार किया, उसके प्रहार को सहने में असमर्थ वह मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा ॥ ३१ ॥ इसके बाद क्षणमात्र में ही चेतना प्राप्तकर वह असुर धनुष लेकर बाणों से शिवजी पर प्रहार करने लगा ॥ ३२ ॥ उस प्रतापी दानवराज शंखचूड ने दस हजार भुजाओं का निर्माणकर दस हजार चक्रों से शंकरजी को ढक दिया । तदनन्तर कठिन दुर्गति के नाशकर्ता दुर्गापति शंकरजी ने कुपित होकर अपने श्रेष्ठ बाणों से शीघ्र ही उन चक्रों को काट दिया । तब बहुत-सारी सेना से घिरा हुआ वह दानव बड़े वेग से सहसा गदा उठाकर शंकरजी को मारने के लिये दौड़ा ॥ ३३-३५ ॥ दुष्टों के गर्व को नष्ट करनेवाले शिवजी ने क्रुद्ध होकर तीक्ष्ण धारवाली तलवार से शीघ्र ही उसकी गदा भी काट दी । तब अपनी गदा के छिन्न-भिन्न हो जाने पर उस दानव को बड़ा क्रोध उत्पन्न हुआ और उस तेजस्वी ने शत्रुओं के लिये असह्य अपना प्रज्वलित त्रिशूल धारण किया । शिवजी ने हाथ में त्रिशूल लेकर आते हुए उस सुदर्शन दनुजेश्वर के हृदय में बड़े वेग से अपने त्रिशूल से प्रहार किया ॥ ३६-३८ ॥ तब त्रिशूल से विदीर्ण शंखचूड के हृदय से एक पराक्रमी श्रेष्ठ पुरुष निकला और ‘खड़े रहो, खड़े रहो’ — इस प्रकार कहने लगा ॥ ३९ ॥ उसके निकलते ही शिवजी ने हँसकर शीघ्र अपने खड्ग से उसके शब्द करनेवाले भयंकर सिर को काट दिया, जिससे वह पृथ्वी पर गिर पड़ा । इधर काली ने अपना उग्र मुख फैलाकर बड़े क्रोध से अपने दाँतों से उन असुरों के सिरों को पीस-पीसकर चबाना प्रारम्भ कर दिया ॥ ४०-४१ ॥ इसी प्रकार क्षेत्रपाल भी क्रोध में भरकर अनेक असुरों को खाने लगे और जो अन्य शेष बचे, वे भैरव के अस्त्र से छिन्न-भिन्न होकर नष्ट हो गये ॥ ४२ ॥ वीरभद्र ने क्रोधपूर्वक दूसरे बहुत-से वीरों को नष्ट कर दिया एवं नन्दीश्वर ने अन्य बहुत-से देवशत्रु असुरों को मार डाला । इसी प्रकार उस समय शिवजी के बहुत-से गणों ने देवताओं को कष्ट देनेवाले अनेक दैत्यों तथा असुरों को नष्ट कर दिया ॥ ४३-४४ ॥ इस प्रकार उसकी बहुत-सी सेना नष्ट हो गयी और भय से व्याकुल हुए अनेक दूसरे वीर भाग गये ॥ ४५ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में शंखचूडसैन्यवधवर्णन नामक उनतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३९ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe