September 27, 2019 | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 44 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः चौवालीसवाँ अध्याय अन्धकासुर की तपस्या, ब्रह्मा द्वारा उसे अनेक वरों की प्राप्ति, त्रिलोकी को जीतकर उसका स्वेच्छाचार में प्रवृत्त होना, मन्त्रियों द्वारा पार्वती के सौन्दर्य को सुनकर मुग्ध हो शिव के पास सन्देश भेजना और शिव का उत्तर सुनकर क्रुद्ध हो युद्ध के लिये उद्योग करना सनत्कुमार बोले — किसी समय जब हिरण्याक्षपुत्र अन्धक भाइयों के साथ खेल रहा था, तब क्रीड़ा में आसक्त तथा मदान्ध उसके भाइयों ने [उपहास करते हुए] उससे कहा — हे अन्धक ! तुम्हें राज्य से क्या प्रयोजन? ॥ १ ॥ [तुम्हारा पिता] हिरण्याक्ष निश्चय ही बड़ा मूर्ख था, जिसने घोर तपस्या के द्वारा शिवजी को प्रसन्नकर तुम्हारे-जैसा कलहप्रिय, अन्धा, विकृत एवं कुरूप पुत्र प्राप्त किया । तुम निश्चय ही राज्य के भागी नहीं हो । क्या दूसरे से उत्पन्न हुआ व्यक्ति राज्य का अधिकारी बन सकता है ? तुम्ही विचार करो, उसके अधिकारी तो सचमुच हमलोग ही हैं ॥ २-३ ॥ शिवमहापुराण सनत्कुमार बोले — उनके उन वचनों को वह बुद्धि से स्वयं विचार करके दीन हो गया और उन्हें नाना प्रकार के वचनों से सान्त्वना देकर रात में ही अकेले निर्जन वन को चला गया । वहाँ निराहार रहकर वह एक पैर पर खड़ा हो दोनों भुजाओं को उठाकर दस हजार वर्षपर्यन्त घोर तप एवं मन्त्र का जप करने लगा, जो देवता एवं राक्षसों से भी सम्भव नहीं था । वह अग्नि जलाकर तीक्ष्ण शस्त्र से अपने शरीर से मांस काटकर वर्षपर्यन्त प्रतिदिन मन्त्रपूर्वक रक्तयुक्त मांस का होम करने लगा ॥ ४-६ ॥ जब उसके शरीर में मांस नहीं रह गया, केवल स्नायु एवं अस्थिमात्र शेष रह गया, समस्त रक्त नष्ट हो गया, तब उसने अपने शरीर को ही अग्नि में डाल देने का विचार किया । उसके अनन्तर सभी देवता अत्यन्त विस्मित एवं भयभीत होकर उसकी ओर देखने लगे, तब उन देवताओं ने ब्रह्माजी को नमस्कारकर अनेक स्तुतियों से शीघ्र ही उन्हें प्रसन्न किया । ब्रह्मा ने उसे तपस्या से विरत करके कहा — हे दानव ! आज तुम वर माँगो, समस्त लोक में जो दुर्लभ है एवं जिसकी प्राप्ति के लिये तुम इच्छुक हो, उस वर को मुझसे प्राप्त कर लो ॥ ७–९ ॥ ब्रह्मा के इस वचन को सुनकर दीन एवं विनम्र होकर उस दैत्य ने कहा — हे ब्रह्मन् ! प्रह्लाद आदि मेरे जिन निष्ठुर भाइयों ने मेरा राज्य छीन लिया है, वे मेरे सेवक हों ॥ १० ॥ मुझ अन्धे को दिव्य नेत्र की प्राप्ति हो जाय एवं इन्द्रादि देवता मुझे कर प्रदान करें । मेरी मृत्यु देव, दैत्य, गन्धर्व, यक्ष, सर्प, राक्षस, मनुष्य, दैत्यों के शत्रु श्रीनारायण, आदि किसी प्राणी तथा सर्वमय शंकर से भी न हो । उसके उस कठिन वचन को सुनकर ब्रह्माजी शंकित हो उससे कहने लगे — ॥ ११-१२ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे दैत्येन्द्र ! यह सब पूर्ण होगा, किंतु अपनी मृत्यु का कोई कारण अवश्य वरण करो; क्योंकि न तो ऐसा हुआ है और न होगा, जो काल के मुख में प्रविष्ट न हुआ हो ॥ १३ ॥ अतः आप-जैसे सत्पुरुष अत्यन्त दीर्घ जीवन की इच्छा का त्याग कर दें । ब्रह्मा के इस अनुनयपूर्ण वचन को सुनकर वह दैत्य पुनः कहने लगा — ॥ १४ ॥ अन्धक बोला — [हे ब्रह्मदेव!] तीनों कालों में जितनी भी श्रेष्ठ, मध्यम तथा कनिष्ठ स्त्रियाँ हैं, उन सभी में जो रत्नस्वरूप सर्वश्रेष्ठ हो, वही मेरी माता के समान हो । हे भगवन् ! हे स्वयम्भू ! जो मनुष्यलोक के लिये दुर्लभ तथा मन, वाणी और शरीर से सर्वथा अगम्य हो, जब मैं दैत्येन्द्रभाव से उसकी कामना करूँ, तब मेरा नाश हो जाय ॥ १५-१६ ॥ उसका वचन सुनकर ब्रह्माजी ने आश्चर्यचकित हो शिव के चरणकमलों का स्मरण किया और शम्भु की आज्ञा प्राप्त करके उस अन्धक से शीघ्र कहा — ॥ १७ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे दैत्य ! तुम जो भी अभिलाषा करते हो, तुम्हारी वे सभी कामनाएँ पूर्ण होंगी । हे दैत्येन्द्र ! अपना अभीष्ट प्राप्त करो और वीरों के साथ सदा युद्ध करो ॥ १८ ॥ हे मुनीश्वर ! ब्रह्माजी के ऐसे वचन सुनकर स्नायु तथा अस्थिमात्रशेष वह हिरण्याक्षपुत्र अन्धक ब्रह्माजी को भक्तिपूर्वक प्रणामकर उन प्रभु से कहने लगा — ॥ १९ ॥ अन्धक बोला — हे विभो ! मैं इस विकृत शरीर से शत्रुओं की सेना में प्रविष्ट होकर किस प्रकार युद्ध कर सकता हूँ ? अतः अपने पवित्र हाथ से मुझे स्पर्श कीजिये और स्नायु तथा अस्थिशेष इस शरीर को शीघ्र ही मांस से पुष्ट कर दीजिये ॥ २० ॥ सनत्कुमार बोले — उसका वचन सुनकर वे ब्रह्मा उसके शरीर का स्पर्श करके मुनियों तथा सिद्धों से पूजित होते हुए देवेश्वरों के साथ अपने धाम को चले गये ॥ २१ ॥ ब्रह्मा के स्पर्शमात्र से ही वह दैत्यराज सम्पूर्ण शरीरवाला तथा बलसम्पन्न हो गया । वह नेत्रयुक्त तथा सुन्दर हो गया और प्रसन्न होकर अपने नगर में प्रविष्ट हुआ ॥ २२ ॥ तदनन्तर प्रह्लाद आदि सभी दैत्येन्द्र उसे वर प्राप्तकर आया हुआ समझकर सम्पूर्ण राज्य उसके लिये छोड़कर उसके अधीन होकर उसके सेवक हो गये ॥ २३ ॥ तदनन्तर अन्धक ने अपने भृत्यों एवं सेनाओं के साथ विजय की इच्छा से स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया और वहाँ युद्ध में समस्त देवताओं को जीतकर वज्र को धारण करनेवाले इन्द्र को भी करदाता बना दिया । उसने नागों, पक्षियों, बड़े-बड़े राक्षसों, गन्धर्वो, यक्षों, मनुष्यों, पर्वतों, वृक्षों एवं सिंहादि समस्त पशुओं को भी युद्ध में जीत लिया ॥ २४-२५ ॥ उसने इस चराचर त्रैलोक्य पर अधिकार करके उसे अपने वश में कर लिया । इसके बाद अपने अनुकूल सुन्दर हजारों स्त्रियों के साथ विहार करता हुआ पाताल, पृथ्वीलोक तथा स्वर्ग में जितनी रूपवती स्त्रियाँ थीं, उनके साथ पर्वतों तथा मनोहर नदी-तटों पर वह रमण करने लगा ॥ २६-२७ ॥ उनके मध्य में क्रीड़ा करता हुआ वह दैत्येन्द्र कामप्रवृत्ति के लिये स्त्रियों के पीने से बचे हुए दिव्य एवं मानुष पेयों को प्रसन्नता के साथ पीता था ॥ २८ ॥ वह नाना प्रकार के दिव्य रस, फल, सुगन्धित पुष्प प्राप्त करके मय [दानव]-द्वारा निर्मित उत्तम गृहों तथा यानों एवं सुन्दर वाहनों का सेवन करता था ॥ २९ ॥ अद्भुत दर्शनवाले पुष्प, अर्घ्य, धूप, मिष्टान्न, अंगराग आदि से युक्त हो क्रीड़ा करते हुए उस अन्धक दैत्य के उत्तम दस हजार वर्ष बीत गये ॥ ३० ॥ इस प्रकार भोग करते हुए उसे परलोक में अपने कल्याण करनेवाले पुण्य का ज्ञान न रहा और वह मूर्ख दैत्यराज मदान्धबुद्धि होकर दुष्टों के साथ निवास करने लगा ॥ ३१ ॥ इसके बाद वह महात्मा प्रमत्त होकर कुतर्कयुक्त बातचीत से अपने प्रधान पुत्रों को तिरस्कृतकर सभी वैदिक धर्मों का विनाश करता हुआ दैत्यों के साथ विचरण करने लगा ॥ ३२ ॥ धन के अहंकार से मदान्ध वह वेदों, ब्राह्मणों, देवताओं तथा गुरुओं का अपमान करने लगा और दैववश हतायु हो अपनी आयु को स्वेच्छाचारपूर्वक क्षीण करता हुआ रमण करने लगा ॥ ३३ ॥ इस प्रकार इस पृथ्वीतल पर करोड़ों वर्ष निवास करते हुए वह [अन्धक] किसी समय हर्षित होकर अपनी सेना के साथ मन्दराचल पर गया और वहाँ की स्वर्णिम शोभा देखकर मानमत्त हो सैनिकों के साथ घूमने लगा । वह क्रीडा के लिये उस पर्वत पर आकर मोहवश वहाँ निवास करने का विचार करने लगा ॥ ३४-३५ ॥ उसने अपने पराक्रम से प्रसन्नतापूर्वक मनोहर एवं दृढ़ नगर का निर्माणकर स्वयं उसके शिखर पर अपने निवासहेतु महासुन्दर भवन बनवाया ॥ ३६ ॥ उस दैत्येन्द्र के दुर्योधन, वैधस तथा हस्ती नामक मन्त्री थे । किसी समय उन तीनों मन्त्रियों ने उस पर्वतशिखर पर एक रूपवती सुन्दर स्त्री को देखा ॥ ३७ ॥ शीघ्रगामी उन सभी दैत्यों ने हर्षित होकर उस वीरवर दैत्येन्द्र अन्धक के समीप आकर जैसा देखा था, वैसा प्रेमपूर्वक कहा — ॥ ३८ ॥ मन्त्री बोले — हे दैत्येन्द्र ! मन्दराचल की गुफा में ध्यान में नेत्र बन्द किये हुए, रूपवान्, चन्द्र की आधी कला को मस्तकपर धारण किये तथा कटिप्रदेश में व्याघ्रचर्म लपेटे हुए कोई मुनि दिखायी पड़े हैं ॥ ३९ ॥ उनके सारे शरीर में भुजंग लिपटे हुए हैं, वे सिर पर जटा तथा गले में कपाल की माला धारण किये हुए हैं, हाथ में त्रिशूल लिये हुए, बाण तथा तरकस धारण किये हुए हैं, महान् धनुष धारण किये हुए और अक्षसूत्र पहने हुए हैं, वे लकुट, त्रिशूल एवं खड्ग धारण किये हुए हैं, वे जटाजूट से युक्त, चार भुजाओंवाले, गौर वर्णवाले तथा भस्म से लिप्त हैं, वे महातेजस्वी प्रतीत हो रहे हैं, उनका सम्पूर्ण वेष अद्भुत है ॥ ४०-४१ ॥ उनसे थोड़ी ही दूर पर एक पुरुष दिखायी पड़ा, वह वानर के समान महाभयंकर मुखवाला, विकराल, हाथों में सम्पूर्ण अस्त्र लिये उनकी रक्षा करता हुआ स्थित है । वहीं पर शुक्लवर्ण का एक श्वेत वृद्ध बैल भी है ॥ ४२ ॥ हमलोगों ने बैठे हुए उस तपस्वी के निकट पृथ्वी पर रत्नभूता एक सुन्दर रूपवाली मनोहर युवती भी देखी है । वह स्त्री प्रवाल, मुक्तामणि तथा रत्नों से निर्मित आभूषणों तथा वस्त्रों को धारण की हुई है । वह मनोहर माला से सुशोभित है । जिसने उस महासुन्दरी को देख लिया है, वास्तव में वही दृष्टिवाला है, उसे देख लेने पर अन्य को देखने का कोई प्रयोजन नहीं है । वह दिव्य नारी उन महापुण्यवान् महर्षि महेश्वर की प्रिया भार्या है । हे दैत्येन्द्र ! आप सुन्दर रत्नों के भोक्ता हैं, अतः उसे अपने घर लाकर भली-भाँति देखने में समर्थ हैं ॥ ४३-४५ ॥ सनत्कुमार बोले — उन मन्त्रियों की इस बात को सुनकर वह दैत्य कामातुर हो उठा और उसका सारा शरीर घूमने लगा । उसने दुर्योधनादि मन्त्रियों को उन मुनि के समीप शीघ्र ही भेजा ॥ ४६ ॥ हे मुनीश ! उत्तम राजनीति में परम प्रवीण उन श्रेष्ठ मन्त्रियों ने महाव्रती एवं अप्रमेय उन मुनि के पास जाकर प्रणाम करके उस दैत्य की आज्ञा इस प्रकार कही — ॥ ४७ ॥ मन्त्री बोले — हिरण्याक्ष के पुत्र दैत्याधिराज त्रैलोक्यस्वामी महामना, जिनका नाम अन्धक है; वे ब्रह्माजी की आज्ञा से विहार करते हुए इस मन्दराचल पर विराजमान हैं ॥ ४८ ॥ हे तपस्विन् ! हम उनके अंगरक्षक तथा मन्त्री हैं, उनके द्वारा भेजे गये हमलोग आपके समीप आये हैं और उन्होंने जो सन्देश दिया है, उसे ध्यान देकर आप सुनें ॥ ४९ ॥ हे बुद्धिमान् मुनिवर ! आप किसके पुत्र हैं और किस कारण यहाँ सुखपूर्वक बैठे हुए हैं, ऐसी महासुन्दरी यह तरुणी किसकी भार्या है ? हे मुनीन्द्र ! आप इसे शीघ्र ही दैत्यराज को समर्पित कर दें ॥ ५० ॥ कहाँ तो भस्म से लिप्त, कपालमालायुक्त, महाकुरूप तुम्हारा यह शरीर और कहाँ तरकस-धनुष-बाण, खड्ग, भुशुण्डी, त्रिशूल, बाण एवं तोमर आदि दिव्यास्त्र । कहाँ जटा के अग्रभाग में परम पवित्र गंगा तथा सिर पर मनोहर चन्द्रमा और कहाँ दुर्गन्धयुक्त अस्थिखण्ड । कहाँ विषवमन करनेवाले दीर्घमुख सर्प और कहाँ सुपुष्ट स्तनवाली स्त्री का संगम ? ॥ ५१-५२ ॥ बूढ़े बैल की सवारी करना प्रशस्त नहीं है, क्षमावान् तपस्वी का ऐसा व्यवहार नहीं देखा जाता और सन्ध्यावन्दन आदि ही तपस्वियों का धर्म है, लोकविरुद्ध भोजन उनके लिये निषिद्ध है ॥ ५३ ॥ अरे मूर्ख ! तुम इस स्त्री को शान्तिपूर्वक मुझे समर्पित करो, स्त्री के साथ तपस्या क्यों कर रहे हो ? यह तुम्हारे लिये अनुचित है और तुम्हारे अनुकूल नहीं है; क्योंकि मैं तीनों लोकों का रत्नपति हूँ । अतः तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि पहले शस्त्रों का त्याग करो, इसके बाद शुद्ध तप करो । मेरी अलंघनीय आज्ञा का उल्लंघन करने पर तुम्हें अपने शरीर को छोड़ना पड़ेगा ॥ ५४-५५ ॥ तब लौकिक भाव का आश्रयकर जगत्प्रधान शिवजी ने उस दूत के सम्पूर्ण वचन को सुनकर अन्धक को दुष्टबुद्धि जानकर हँसते हुए उससे कहा — ॥ ५६ ॥ शिवजी बोले — हे दैत्यनाथ ! यदि मैं रुद्र हूँ, तो तुम्हारा मुझसे क्या तात्पर्य है, तुम इस प्रकार मिथ्या क्यों बोलते हो ? तुम्हें ऐसा कहना उचित नहीं, तुम मेरे प्रभाव को सुनो ॥ ५७ ॥ मुझे अपने माता-पिता का स्मरण नहीं, इस गुफा में महामूर्ख तथा विकृत रूपवाला मैं अन्यों के लिये दुर्लभ इस घोर पाशुपतव्रत का आचरण करता हूँ ॥ ५८ ॥ मेरे विषय में ऐसी प्रसिद्धि है कि मूलरहित तथा दुस्त्यज यह सारा जगत् मुझसे ही उत्पन्न हुआ है और सुन्दर रूपवाली, सब कुछ सहनेवाली तथा मुझ सर्वव्यापक की सिद्धिरूपा यह तरुणी मेरी भार्या है ॥ ५९ ॥ हे राक्षस ! इस समय तुम्हें जो-जो अच्छा लगे, उसे तुम ग्रहण करो । उनके सामने ऐसा कहकर तपस्वीवेशधारी सदाशिव ने मौन धारण कर लिया ॥ ६० ॥ सनत्कुमार बोले — यह गम्भीर वचन सुनकर उन दानवों ने उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया, तदनन्तर त्रैलोक्यविनाश के लिये प्रतिज्ञा करनेवाले हिरण्याक्षपुत्र अन्धक दैत्य के पास गये । उन सभी पराक्रमी दैत्यों ने उस मदोन्मत्त दैत्यपति को प्रणामकर जयशब्द का उच्चारण करते हुए हँसकर शिवजी ने जो बात कही थी, उसे सुनाया ॥ ६१-६२ ॥ मन्त्री [अन्धकासुर से ] बोले — [हे राजन् ! तपस्वी शिव ने आपके विषय में कहा है कि] निशाचर, अस्थिर वीरता-धीरतावाला, सामर्थ्यरहित, क्रूरकर्मा, कृतघ्न, कृपण तथा सर्वदा पाप करनेवाला वह दानव क्या सूर्यपुत्र यमराज से नहीं डरता [जो मुझसे युद्ध की इच्छा कर रहा है ?] सभी दैत्यों के स्वामी हे राजन् ! अपनी बुद्धि से त्रैलोक्य को तृणवत् समझनेवाले महान् तेजस्वी, तपोनिष्ठ तथा परमवीर उस मुनि ने हँसते हुए आपके विषय में पुनः कहा है — कहाँ तो वृद्धावस्था के कारण जर्जर अंगोंवाला मैं और कहाँ ये [तुम्हारे] दारुण शस्त्र और मृत्यु को भी आतंकित करनेवाला युद्ध ! कहाँ वह वानर के जैसा मुखवाला मेरा गण वीरक और कहाँ [परम समर्थ] वह राक्षस ! कहाँ तो [राक्षस का दुर्धर्ष] वह स्वरूप और कहाँ मन्दभाग्य मैं ! कहाँ तुम्हारा [अतुलनीय] सैन्यबल और कहाँ [ मेरे आश्रयभूत] ये वृक्ष-लता आदि ! इसपर भी यदि तुम अपने को सामर्थ्य-सम्पन्न मानते हो तो प्रयत्न करो, युद्ध करने के लिये यहाँ आओ और कुछ [सामर्थ्य प्रदर्शन] करो । [कहाँ तो] मेरे पास तुम-जैसे लोगों को नष्ट कर देनेवाला महाभयंकर अस्त्र और कहाँ कोमल कमल के समान तुम्हारा शरीर, अतः विचार करके तुम वैसा ही करो, जैसा तुम्हें अच्छा लगता हो ॥ ६३-६७ ॥ हे दैत्यपते ! इस प्रकार के अनेक वचन उस तपस्वी ने हँसते हुए आपसे कहे हैं । हे राजन् ! आपके लिये उसके साथ युद्ध करना उचित नहीं है ॥ ६८ ॥ यदि आप हमलोगों के द्वारा कहे गये अनुचित तथ्यहीन अनेक कथनों से तथा तप में निरत उस तपस्वी के द्वारा कहे वचनों से समझ जाते हैं, तब तो ठीक है, अन्यथा मुनि के इस वचन को आप बाद में याद करेंगे ॥ ६९ ॥ सनत्कुमार बोले — इसके बाद उनका सत्य, हितकर, कुटिल तथा तीक्ष्ण वचन सुनकर वह मन्दबुद्धि क्रोध से उसी प्रकार आगबबूला हो गया, जिस प्रकार घी डालने से आग प्रज्वलित हो जाती है ॥ ७० ॥ तदनन्तर प्रतिकूल भाग्यवाला, वरदान से प्रमत्त तथा कामबाण से बिँधा हुआ वह दैत्य खड़ग लेकर पवन के समान वेग से वहाँ जाने को उद्यत हो गया ॥ ७१ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में अन्धकगाणपत्यपदलाभोपाख्यान में दूतसंवादवर्णन नामक चौवालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४४ ॥ Related