September 28, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 45 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः पैंतालीसवाँ अध्याय अन्धकासुर का शिव की सेना के साथ युद्ध सनत्कुमार बोले — [हे व्यास!] तदनन्तर मदिरा पानकर नेत्रों को घुमाता हुआ मदमत्त गज के समान गतिवाला तथा श्रेष्ठ वीरों के साथ चलनेवाला वह प्रचण्ड वीर बहुत-सी सेना से युक्त हो वहाँ गया ॥ १ ॥ काम के बाण से बिँधे हुए उस दैत्य ने वीरक के द्वारा अवरुद्ध मार्गवाली उस गुफा को उसी प्रकार देखा, जैसे तैलपूर्ण जलते हुए दीपक को प्रेमपूर्वक देखकर उसे प्राप्तकर पतंग विनष्ट हो जाता है ॥ २ ॥ शिवमहापुराण उसी प्रकार बार-बार देखकर वीरक के द्वारा पीड़ित किये जाने पर भी वह मूर्ख महादैत्यपति अन्धक कामाग्नि से दग्ध शरीरवाला हो गया । वीरक ने पाषाण, वृक्ष, वज्र, जल, अग्नि, सर्प एवं अस्त्र-शस्त्रों से उसे पीड़ा पहुँचायी और पुनः पीड़ित करके पूछा कि तुम कौन हो और कहाँ से आये हो ? उसका वचन सुनकर अन्धक ने अपना अभिप्राय प्रकट किया और उस वीरक के साथ युद्ध करने लगा । आश्चर्य है कि उस अप्रमेय महावीर वीरक ने अन्धक को एक मुहूर्त में युद्ध में जीत लिया । महान् खड्ग के चूर-चूर हो जाने पर दुखी तथा विस्मयरहित वह अन्धक युद्धभूमि छोड़कर भूख-प्यास से व्याकुल हो भाग खड़ा हुआ ॥ ३-६ ॥ तत्पश्चात् प्रह्लाद आदि प्रधान दैत्य उसके साथ युद्ध करने लगे, किंतु अत्यन्त भयंकर वे दैत्य अनेक शस्त्रास्त्रों से लड़ते हुए पराजित होने के कारण लज्जित हो गये ॥ ७ ॥ तब विरोचन, बलि, हजारों भुजाओंवाला बाण, भजि, कुजम्भ, शम्बर एवं वृत्र आदि पराक्रमी दैत्य युद्ध करने लगे । चारों ओर से घेरकर युद्ध करते हुए उन दैत्यों को शिव के गण वीरक ने पराजित कर दिया । उनके दो टुकड़े कर दिये । बहुत से दानवों के मर जाने पर और कुछ के शेष रहने पर सिद्धसंघों ने जय-जयकार किया ॥ ८-९ ॥ मेदा, मांस, पीव से महाभयंकर उस युद्ध के बीच गीदड़ आनन्द से नाचने लगे एवं रुधिर के भयंकर कीचड़ में [विचरण करते हुए] मांसाहारी जन्तुओं से सारी रणभूमि भयंकर दिखायी पड़ने लगी । उस समय वीरक द्वारा दैत्यों के विनष्ट हो जाने पर भगवान् सदाशिव ने दाक्षायणी को सान्त्वना देकर कहा — हे प्रिये ! मैंने पूर्व में जिस कठिन महापाशुपत व्रत को किया था, उसे करने जा रहा हूँ ॥ १०-११ ॥ शिवजी बोले — हे देवि ! रात-दिन तुम्हारे साथ प्रसंग के कारण मेरी सेना का क्षय हो गया, मरणधर्मा दैत्यों के द्वारा मेरी अमर्त्य सेना का विनाश हुआ, यह किसी पुण्यनाशक ग्रह का ही प्रभाव है ॥ १२ ॥ हे सुन्दरि ! अब मैं वन में जाकर परम दिव्य एवं अद्भुत वर प्राप्तकर अत्यन्त कठिन व्रत करूँगा, तुम पूर्णरूप से भयरहित तथा शोकविहीन रहना ॥ १३ ॥ सनत्कुमार बोले — इतना वचन कहकर अत्यन्त तेजस्वी महात्मा शंकर [अपने शृंगीका] धीरे से शब्द करके अत्यन्त घोर पुण्यतम वन में जाकर पाशुपतव्रत का अनुष्ठान करने लगे ॥ १४ ॥ जिस व्रत को देवता एवं दानव भी करने में समर्थ नहीं हैं, उसे उन्होंने हजार वर्षपर्यन्त किया । उस समय पतिव्रता तथा शीलगुण से सम्पन्न पार्वती मन्दर पर्वत पर स्थित हो सदाशिव के आगमन की प्रतीक्षा करती हुई अकेले गुफा के अन्दर सदा भयभीत तथा दुखी रहा करती थीं, उस समय पुत्र वीरक ही उनकी रक्षा करता था ॥ १५-१६ ॥ इसके बाद वरदान से उन्मत्त तथा कामदेव के बाणों से धैर्यरहित वह दैत्य बड़ी शीघ्रता से प्रह्लाद आदि दैत्यों के साथ उस गुफा के पास आ गया ॥ १७ ॥ उसने भोजन, पान एवं निद्रा का परित्यागकर कुपित हो अपने सैनिकों को साथ लेकर पाँच-सौ-पाँच रात-दिन वीरक के साथ अत्यन्त अद्भुत युद्ध किया । खड्ग, बरछी, भिन्दिपाल, गदा, भुशुण्डी, अर्ध चन्द्रमा के समान, वितस्तिमात्र तथा कछुए के समान मुखवाले प्रकाशमान बाणों, तीक्ष्ण त्रिशूलों, परशु, तोमर, मुद्गर, खड्ग, गोले, पर्वत, वृक्ष तथा दिव्यास्त्रों से उस वीरक ने दैत्यों के साथ युद्ध किया ॥ १८-२० ॥ दैत्यों द्वारा चलाये गये उन शस्त्रों से गुफा के द्वार बन्द हो गये, कहीं लेशमात्र भी प्रकाश नहीं रहा, वीरक भी शस्त्रों की चोट से आहत होकर गुफा के द्वार पर मूर्च्छित होकर गिर पड़ा ॥ २१ ॥ सभी दैत्यों से तथा उनके अस्त्रों से मुहूर्तमात्र के लिये वीरक को आच्छादित देखकर तथा यह देखकर कि यह भयंकर दैत्यों को हटा नहीं पा रहा है, गुफा में स्थित देवी ने भयपूर्वक सखियों के साथ ब्रह्मा, विष्णु तथा समस्त गणों की सेना का स्मरण किया ॥ २२-२३ ॥ उनके स्मरणमात्र से ही ब्रह्मा, भगवान् विष्णु तथा इन्द्र सभी सैनिकों के साथ स्त्रीरूप धारणकर वहाँ आ गये । स्त्री बनकर वे देवता, मुनि, महात्मा, सिद्ध, नाग तथा गुह्यक पर्वतराज की पुत्री की गुफा के भीतर प्रविष्ट हुए ॥ २४-२५ ॥ उनके स्त्रीरूप धारण करने का कारण यह था कि उत्तम राजा के आसनस्थ होने पर उसके अन्तःपुर में पुरुषवेश में जाना निषिद्ध है, इसलिये वे स्त्रीसमूह के रूप में एकत्रित हो गये । वीरकार्य करनेवाली ये अद्भुत रूपवाली स्त्रियाँ जब पार्वती की गुफा में प्रविष्ट हुईं, तो उन स्त्रियों को देखकर पार्वती अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं ॥ २६-२७ ॥ उस समय सैकड़ों हजारों नितम्बिनी स्त्रियों के द्वारा प्रलयकालीन प्रचण्ड मेघ के समान घोषवाली तथा विजय देनेवाली हजारों भेरियाँ और शंख बजाये गये ॥ २८ ॥ अद्भुत तथा प्रचण्ड पराक्रमवाला वीरक भी मूर्च्छा त्यागकर शस्त्र को लेकर महारथियों के आगे खड़ा हो गया और उन्हीं शस्त्रों से दैत्यों का वध करने लगा ॥ २९ ॥ उस समय हाथ में दण्ड लिये हुए ब्राह्मी, क्रोध से युक्त चित्तवाली गौरी, अपने हाथों में शंख, गदा, चक्र तथा धनुष धारण की हुई नारायणी, हाथ में लांगल, दण्ड लिये कांचन के समान वर्णवाली व्योमालका तथा हाथ में हजारों धारवाले, प्रचण्ड वेग से युक्त, उग्र वेगवाले वज्र को लिये हुए ऐन्द्री युद्ध हेतु निकल पड़ीं ॥ ३०-३१ ॥ हजार नेत्रोंवाली, युद्ध में निश्चल रहनेवाली, अत्यन्त दुर्जय, सैकड़ों दैत्यों से कभी पराजित न होनेवाली तथा भयंकर मुखवाली वैश्वानरी तथा हाथ में दण्ड लिये हुए उग्र याम्या शक्ति भी युद्ध में प्रवृत्त हो गयीं ॥ ३२ ॥ हाथ में अत्यन्त तीक्ष्ण तलवार तथा घोर धनुष लेकर निर्ऋति शक्ति आयीं । वरुण का पाश हाथ में धारणकर युद्ध की अभिलाषा करती हुई तोयालिका निकल पड़ी । प्रचण्ड पवन की महाशक्ति भूख से व्याकुल हो हाथ में अंकुश लेकर एवं कुबेर की शक्ति हाथ में प्रलयकाल की अग्नि के समान गदा लेकर युद्धभूमि में आ पहुँचीं । तीक्ष्ण मुखवाली, कुरूपा, नखरूप आयुधवाली, नाग के समान भयंकर यक्षेश्वरी आदि देवियाँ तथा इसी प्रकार की अन्य सैकड़ों देवियाँ संग्रामभूमि में निकल पड़ीं ॥ ३३-३५ ॥ उसकी अपार सेना देखकर वे देवियाँ विस्मित. भय से व्याकुल, फीके वर्णवाली तथा अत्यन्त कातर हो गयीं । उसके बाद ब्रह्माणी आदि सभी देवशक्तियों ने पार्वती की सम्मति से अपने मन को समाहितकर वीरक को अपना सेनापति बनाया । इसके बाद वरदान से शक्तिसम्पन्न प्रधान दैत्य मन में यह विचारकर अभूतपूर्व युद्ध करने लगे कि आज इन नारियों से हम मृत्यु को प्राप्त होंगे अथवा इनपर विजय प्राप्त करेंगे । उस समय संग्रामभूमि में अद्भुत बुद्धिसम्पन्न वीरक को अपना सेनापति बनाकर पार्वती ने सखियों के साथ युद्ध में अद्भुत युद्धकौशल दिखलाया ॥ ३६-३९ ॥ महापराक्रमी हिरण्याक्षपुत्र राजा अन्धक ने भी महाव्यूह की रचना की और विष्णु की सम्भावना करके यम की शक्ति को अवस्थित देखकर [उनसे लड़ने के लिये] महाभयंकर गिल नामक राक्षस को नियुक्त किया ॥ ४० ॥ ब्रह्माजी की सेवा करने से उसका मुख अत्यन्त विकराल हो गया था, इसीलिये उसे मारने के लिये भगवान् विष्णु आये । उसी समय हजार वर्ष बीत जाने पर प्रलयकालीन हजारों सूर्य के समान कान्तिवाले व्याघ्रचर्मधारी भगवान् शिवजी भी कुपित होकर युद्धभूमि में आये । तब उन महेश्वर को युद्धभूमि में आया देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुई उन स्त्रियों ने वीरक को साथ लेकर महायुद्ध किया ॥ ४१-४२ ॥ उस समय सिर झुकाकर सदाशिव को प्रणाम करके पति का पराक्रम प्रदर्शित करती हुई गौरी ने प्रसन्नतापूर्वक घोर युद्ध किया । उसके बाद शंकरजी पार्वती को हृदय से लगाकर गुफा के भीतर प्रविष्ट हो गये । पार्वती ने उन हजारों स्त्रियों को अनेक प्रकार से सम्मानितकर विदा किया और वीरक को गुफा के द्वार पर रहने दिया ॥ ४३-४४ ॥ उसके बाद नीति में विचक्षण उस असुर ने गौरी एवं गिरीश को संग्रामभूमि में न देखकर शिवजी के पास विघस नामक अपना दूत भेजा ॥ ४५ ॥ उस संग्राम में देवताओं के प्रहार से क्षत-विक्षत शरीरवाले उस दैत्य ने शिवजी के पास जाकर उन्हें सिर से प्रणामकर गर्वयुक्त कठोर वचन कहा — ॥ ४६ ॥ दूत बोला — हे शम्भो ! अन्धक द्वारा भेजा गया मैं इस गुफा में प्रविष्ट हुआ हूँ । उस अन्धक ने आपको सन्देश भेजा है कि तुम्हें स्त्री से कोई प्रयोजन नहीं है, अतः इस रूपवती युवती नारी को शीघ्र त्याग दो ॥ ४७ ॥ प्रायः आप तपस्वी को अन्तःकरण को भूषित करनेवाले क्षमा आदि गुणों का सेवन करना चाहिये । मुनियों से विरोध नहीं करना चाहिये — ऐसा विचारकर मैं तुमसे विरोध नहीं करना चाहता, वस्तुतः तुम तपस्वी मुनि नहीं हो, किंतु शत्रु हो । हे धूर्त तापस ! तुम हम दैत्यों के महाविरोधी शत्रु हो, अतः शीघ्रता से मेरे साथ युद्ध करो, मैं आज ही तुम्हारा वध करके तुम्हें रसातल पहुँचाता हूँ ॥ ४८-४९ ॥ सनत्कुमार बोले — दूत के मुख से ये वचन सुनकर सज्जनों के रक्षक, दुष्टों के मद को नष्ट करनेवाले, कपालमाली, महान्, त्रिनेत्र शम्भु शोकाग्नि से जलते हुए बड़े क्रोध से उस दूत से कहने लगे — ॥ ५० ॥ शिवजी बोले — [हे दूत!] तुमने जो बात कही है, वह बड़ी कठोर है । अब तुम शीघ्र चले जाओ और उससे कहो — यदि तुम बलवान् हो तो शीघ्र आकर मेरे साथ बलपूर्वक युद्ध करो ॥ ५१ ॥ इस पृथ्वी पर जो अशक्त है, उसे मनोहर स्त्री तथा धन से क्या प्रयोजन ? बल से मत्त दैत्य आ जायँ; मैंने यह निश्चय किया है । अशक्त पुरुष तो शरीरयात्रा में भी असमर्थ हैं, अतः उनके लिये जो विहित हो, उसे करें और मुझे भी जो करना है, उसे मैं करूँगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५२-५३ ॥ सनत्कुमार बोले — शिवजी से यह वचन सुनकर वह विघस भी प्रसन्न होकर वहाँ से निकल पड़ा और उसके बाद गर्जनापूर्वक हुंकार भरता हुआ दैत्यपति के पास गया ॥ ५४ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में युद्धप्रारम्भ दूतसंवादवर्णन नामक पैंतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४५ ॥ Related