July 23, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – प्रथम विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 14 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः चौदहवाँ अध्याय अग्नियज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ आदि का वर्णन, भगवान् शिव के द्वारा सातों वारों का निर्माण तथा उनमें देवाराधन से विभिन्न प्रकार के फलों की प्राप्ति का कथन ऋषिगण बोले — हे प्रभो ! अग्नियज्ञ, देवयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, गुरुपूजा तथा ब्रह्मतृप्ति का क्रमशः हमारे समक्ष वर्णन कीजिये ॥ १ ॥ सूतजी बोले — हे महर्षियो ! गृहस्थ पुरुष अग्नि में सायंकाल और प्रातःकाल जो चावल आदि द्रव्य की आहुति देता है, उसी को अग्नियज्ञ कहते हैं । जो ब्रह्मचर्य आश्रम में स्थित हैं, उन ब्रह्मचारियों के लिये समिधा का आधान ही अग्नियज्ञ है । वे समिधा का ही अग्नि में हवन करें । हे ब्राह्मणो ! ब्रह्मचर्य आश्रम में निवास करनेवाले द्विजों का जबतक विवाह न हो जाय और वे औपासनाग्नि की प्रतिष्ठा न कर लें, तबतक उनके लिये अग्नि में समिधा की आहुति, व्रत आदि का पालन तथा विशेष यजन आदि ही कर्तव्य है (यही उनके लिये अग्नियज्ञ है)। हे द्विजो ! जिन्होंने बाह्य अग्नि को विसर्जित करके अपनी आत्मा में ही अग्नि का आरोप कर लिया है, ऐसे वानप्रस्थियों और संन्यासियों के लिये यही हवन या अग्नियज्ञ है कि वे विहित समय पर हितकर, परिमित और पवित्र अन्न का भोजन कर लें ॥ २-४ ॥ शिवमहापुराण औपासनाग्नि को ग्रहण करके जब कुण्ड अथवा भाण्ड में सुरक्षित कर लिया जाय, तब उसे ‘अजस्र’ कहा जाता है । राजविप्लव या दुर्दैव से अग्नित्याग का भय उपस्थित हो जाने पर जब अग्नि को स्वयं आत्मा में अथवा अरणी में स्थापित कर लिया जाता है, तब उसे ‘समारोपित’ कहते हैं ॥ ५-६ ॥ हे ब्राह्मणो ! सायंकाल अग्नि के लिये दी हुई आहुति सम्पत्ति प्रदान करनेवाली होती है, ऐसा जानना चाहिये और प्रातःकाल सूर्यदेव को दी हुई आहुति आयु की वृद्धि करनेवाली होती है, यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये । दिन में अग्निदेव सूर्य में ही प्रविष्ट हो जाते हैं । अतः प्रातःकाल सूर्य को दी हुई आहुति भी अग्नियज्ञ ही है ॥ ७ ॥ इन्द्र आदि समस्त देवताओं के उद्देश्य से अग्नि में जो आहुति दी जाती है, उसे देवयज्ञ समझना चाहिये । स्थालीपाक आदि यज्ञों को देवयज्ञ ही मानना चाहिये । लौकिक अग्नि में प्रतिष्ठित जो चूडाकरण आदि संस्कारनिमित्तक हवन-कर्म हैं, उन्हें भी देवयज्ञ के ही अन्तर्गत जानना चाहिये । [अब ब्रह्मयज्ञ का वर्णन सुनिये।] द्विज को चाहिये कि वह देवताओं की तृप्ति के लिये निरन्तर ब्रह्मयज्ञ करे । वेदों का जो नित्य अध्ययन होता है, उसी को ब्रह्मयज्ञ कहा गया है । प्रातः नित्यकर्म के अनन्तर सायंकाल तक ब्रह्मयज्ञ किया जा सकता है । उसके बाद रात में इसका विधान नहीं है ॥ ८-१०१/२ ॥ अग्नि के बिना देवयज्ञ कैसे सम्पन्न होता है, इसे आपलोग श्रद्धा से और आदरपूर्वक सुनिये । सृष्टि के आरम्भ में सर्वज्ञ, दयालु और सर्वसमर्थ महादेवजी ने समस्त लोकों के उपकार के लिये वारों की कल्पना की । वे भगवान् शिव संसाररूपी रोग को दूर करने के लिये वैद्य हैं । सबके ज्ञाता तथा समस्त औषधों के भी औषध हैं । उन भगवान् ने पहले अपने वार की कल्पना की, जो आरोग्य प्रदान करनेवाला है । तत्पश्चात् उन्होंने अपनी मायाशक्ति का वार बनाया, जो सम्पत्ति प्रदान करनेवाला है । जन्मकाल में दुर्गतिग्रस्त बालक की रक्षा के लिये उन्होंने कुमार के वार की कल्पना की । तत्पश्चात् सर्वसमर्थ महादेवजी ने आलस्य और पाप की निवृत्ति तथा समस्त लोकों का हित करने की इच्छा से लोकरक्षक भगवान् विष्णु का वार बनाया । इसके बाद सबके स्वामी भगवान् शिव ने पुष्टि और रक्षा के लिये आयुःकर्ता तथा त्रिलोकस्रष्टा परमेष्ठी ब्रह्मा का आयुष्कारक वार बनाया, जिससे सम्पूर्ण जगत् के आयुष्य की सिद्धि हो सके । इसके बाद तीनों लोकों की वृद्धि के लिये पहले पुण्य-पाप की रचना की; तत्पश्चात् उनके करनेवाले लोगों को शुभाशुभ फल देने के लिये भगवान् शिव ने इन्द्र और यम के वारों का निर्माण किया । ये दोनों वार क्रमशः भोग देनेवाले तथा लोगों के मृत्युभय को दूर करनेवाले हैं ॥ ११-१८१/२ ॥ इसके बाद सूर्य आदि सात ग्रहों को, जो अपने ही स्वरूपभूत तथा प्राणियों के लिये सुख-दुःख के सूचक हैं; भगवान् शिव ने उपर्युक्त सात वारों का स्वामी निश्चित किया । वे सब-के-सब ग्रह नक्षत्रों के ज्योतिर्मय मण्डल में प्रतिष्ठित हैं । [शिव के वार या दिन के स्वामी सूर्य हैं । शक्तिसम्बन्धी वार के स्वामी सोम हैं । कुमारसम्बन्धी दिन के अधिपति मंगल हैं । विष्णुवार के स्वामी बुध हैं । ब्रह्माजी के वार के अधिपति बृहस्पति हैं । इन्द्रवार के स्वामी शुक्र और यमवार के स्वामी शनैश्चर हैं।] अपने-अपने वार में की हुई उन देवताओं की पूजा उनके अपने-अपने फल को देनेवाली होती है ॥ १९-२० ॥ सूर्य आरोग्य के और चन्द्रमा सम्पत्ति के दाता हैं । मंगल व्याधियों का निवारण करते हैं, बुध पुष्टि देते हैं, बृहस्पति आयु की वृद्धि करते हैं, शुक्र भोग देते हैं और शनैश्चर मृत्यु का निवारण करते हैं । ये सात वारों के क्रमशः फल बताये गये हैं, जो उन-उन देवताओं की प्रीति से प्राप्त होते हैं । अन्य देवताओं की भी पूजा का फल देनेवाले भगवान् शिव ही हैं । देवताओं की प्रसन्नता के लिये पूजा की पाँच प्रकार की ही पद्धति बनायी गयी । उन-उन देवताओं के मन्त्रों का जप यह पहला प्रकार है । उनके लिये होम करना दूसरा, दान करना तीसरा तथा तप करना चौथा प्रकार है । किसी वेदी पर, प्रतिमा में, अग्नि में अथवा ब्राह्मण के शरीर में आराध्य देवता की भावना करके सोलह उपचारों से उनकी पूजा या आराधना करना पाँचवाँ प्रकार है ॥ २१-२४ ॥ इनमें पूजा के उत्तरोत्तर आधार श्रेष्ठ हैं । पूर्व – पूर्व के अभाव में उत्तरोत्तर आधार का अवलम्बन करना चाहिये । दोनों नेत्रों तथा मस्तक के रोग और कुष्ठ रोग की शान्ति के लिये भगवान् सूर्य की पूजा करके ब्राह्मणों को भोजन कराये । तदनन्तर एक दिन, एक मास, एक वर्ष अथवा तीन वर्ष तक लगातार ऐसा साधन करना चाहिये । इससे यदि प्रबल प्रारब्ध का निर्माण हो जाय तो रोग एवं जरा आदि का नाश हो जाता है । इष्टदेव के नाममन्त्रों का जप आदि साधन वार आदि के अनुसार फल देते हैं ॥ २५-२७ ॥ रविवार को सूर्यदेव के लिये, अन्य देवताओं के लिये तथा ब्राह्मणों के लिये विशिष्ट वस्तू अर्पित करे । यह साधन विशिष्ट फल देनेवाला होता है तथा इसके द्वारा विशेषरूप से पापों की शान्ति होती है ॥ २८ ॥ विद्वान् पुरुष सोमवार को सम्पत्ति की प्राप्ति के लिये लक्ष्मी आदि की पूजा करे तथा सपत्नीक ब्राह्मणों को घृतपक्व अन्न का भोजन कराये । मंगलवार को रोगों की शान्ति के लिये काली आदि की पूजा करे तथा उड़द, मूंग एवं अरहर की दाल आदि से युक्त अन्न ब्राह्मणों को भोजन कराये ॥ २९-३० ॥ विद्वान् पुरुष बुधवार को दधियुक्त अन्न से भगवान् विष्णु का पूजन करे — ऐसा करने से सदा पुत्र, मित्र और स्त्री आदि की पुष्टि होती है । जो दीर्घायु होने की इच्छा रखता हो, वह गुरुवार को देवताओं की पुष्टि के लिये वस्त्र, यज्ञोपवीत तथा घृतमिश्रित खीर से यजन-पूजन करे ॥ ३१-३२ ॥ भोगों की प्राप्ति के लिये शुक्रवार को एकाग्रचित्त होकर देवताओं का पूजन करे और ब्राह्मणों की तृप्ति के लिये षड्रसयुक्त अन्न का दान करे । इसी प्रकार स्त्रियों की प्रसन्नता के लिये सुन्दर वस्त्र आदि का दान करे । शनैश्चर अपमृत्यु का निवारण करनेवाला है, उस दिन बुद्धिमान् पुरुष रुद्र आदि की पूजा करे । तिल के होम से, दान से देवताओं को सन्तुष्ट करके ब्राह्मणों को तिलमिश्रित अन्न भोजन कराये । जो इस तरह देवताओं की पूजा करेगा, वह आरोग्य आदि फल का भागी होगा ॥ ३३-३५ ॥ देवताओं के नित्य-पूजन, विशेष-पूजन, स्नान, दान, जप, होम तथा ब्राह्मण-तर्पण आदि में एवं रवि आदि वारों में विशेष तिथि और नक्षत्रों का योग प्राप्त होने पर विभिन्न देवताओं के पूजन में सर्वज्ञ जगदीश्वर भगवान् शिव ही उन-उन देवताओं के रूप में पूजित होकर सब लोगों को आरोग्य आदि फल प्रदान करते हैं । देश, काल, पात्र, द्रव्य, श्रद्धा एवं लोक के अनुसार उनके तारतम्य क्रम का ध्यान रखते हुए महादेवजी आराधना करनेवाले लोगों को आरोग्य आदि फल देते हैं ॥ ३६-३९ ॥ शुभ (मांगलिक कर्म)-के आरम्भ में और अशुभ (अन्त्येष्टि आदि कर्म)-के अन्त में तथा जन्म-नक्षत्रों के आने पर गृहस्थ पुरुष अपने घर में आरोग्य आदि की समृद्धि के लिये सूर्य आदि ग्रहों का पूजन करे । इससे सिद्ध है कि देवताओं का यजन सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला है । ब्राह्मणों का देवयजन कर्म वैदिक मन्त्र के साथ होना चाहिये [यहाँ ब्राह्मण शब्द क्षत्रिय और वैश्य का भी उपलक्षण है]। शूद्र आदि दूसरों का देवयज्ञ तान्त्रिक विधि से होना चाहिये । शुभ फल की इच्छा रखनेवाले मनुष्यों को सातों ही दिन अपनी शक्ति के अनुसार सदा देवपूजन करना चाहिये ॥ ४०-४२ ॥ निर्धन मनुष्य तपस्या (व्रत आदिके कष्ट-सहन) द्वारा और धनी धन के द्वारा देवताओं की आराधना करे । वह बार-बार श्रद्धापूर्वक इस तरह के धर्म का अनुष्ठान करता है और बारम्बार पुण्यलोकों में नाना प्रकार के फल भोगकर पुनः इस पृथ्वी पर जन्म ग्रहण करता है । धनवान् पुरुष सदा भोगसिद्धि के लिये मार्ग में वृक्ष आदि लगाकर लोगों के लिये छाया की व्यवस्था करे, जलाशय (कुआँ, बावली और पोखरे) बनवाये, वेद-शास्त्रों की प्रतिष्ठा के लिये पाठशाला का निर्माण करे तथा अन्यान्य प्रकार से भी धर्म का संग्रह करता रहे । समयानुसार पुण्यकर्मों के परिपाक से [अन्तःकरण शुद्ध होनेपर] ज्ञान की सिद्धि हो जाती है । द्विजो ! जो इस अध्याय को सुनता, पढ़ता, अथवा दूसरों को सुनाता है, उसे देवयज्ञ का फल प्राप्त होता है ॥ ४३-४६ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत प्रथम विद्येश्वरसंहिता में अग्नियज्ञ आदि का वर्णन नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १४ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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