शिवमहापुराण – प्रथम विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 17
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
सत्रहवाँ अध्याय
षड्लिंगस्वरूप प्रणव का माहात्म्य, उसके सूक्ष्म रूप ( ॐकार) और स्थूल रूप (पंचाक्षर मन्त्र) का विवेचन, उसके जप की विधि एवं महिमा, कार्यब्रह्म के लोकों से लेकर कारणरुद्र के लोकों तक का विवेचन करके कालातीत, पंचावरण विशिष्ट शिवलोक के अनिर्वचनीय वैभव का निरूपण तथा शिवभक्तों के सत्कार की महत्ता

ऋषिगण बोले — हे महामुने ! हे प्रभो ! आप हमारे लिये क्रमशः षड्लिंगस्वरूप प्रणव का माहात्म्य तथा शिवभक्त के पूजन की विधि बताइये ॥ १ ॥

सूतजी ने कहा — महर्षियो ! आपलोग तपस्या के धनी हैं, आपने यह बड़ा सुन्दर प्रश्न उपस्थित किया है । किंतु इसका ठीक-ठीक उत्तर महादेवजी ही जानते हैं, दूसरा कोई नहीं । तथापि भगवान् शिव की कृपा से ही मैं इस विषय का वर्णन करूँगा । वे भगवान् शिव हमारी और आपलोगों की रक्षा का महान् भार बारम्बार स्वयं ही ग्रहण करें ॥ २-३ ॥

शिवमहापुराण

‘प्र’ नाम है प्रकृति से उत्पन्न संसाररूपी महासागर का । ‘प्रणव’ इसे पार करने के लिये दूसरी (नव) नाव है । इसलिये विद्वान् इस ओंकार को ‘प्रणव’ की संज्ञा देते हैं । [ॐकार अपने जप करनेवाले साधकों से कहता है-] ‘प्र-प्रपंच, न-नहीं है, वः-तुमलोगों के लिये । अतः इस भाव को लेकर भी ज्ञानी पुरुष ‘ओम्’ को ‘प्रणव’ नाम से जानते हैं । इसका दूसरा भाव यह है ‘प्र-प्रकर्षेण, न-नयेत्, वः-युष्मान् मोक्षम् इति वा प्रणवः । अर्थात् यह तुम सब उपासकों को बलपूर्वक मोक्ष तक पहुँचा देगा ।’ इस अभिप्राय से भी इसे ऋषि-मुनि ‘प्रणव’ कहते हैं ॥ ४-५ ॥

अपना जप करनेवाले योगियों के तथा अपने मन्त्र की पूजा करनेवाले उपासक के समस्त कर्मों का नाश करके यह दिव्य नूतन ज्ञान देता है; इसलिये भी इसका नाम प्रणव है । उन मायारहित महेश्वर को ही नव अर्थात् नूतन कहते हैं । वे परमात्मा प्रकृष्टरूप से नव अर्थात् शुद्धस्वरूप हैं, इसलिये ‘प्रणव’ कहलाते हैं । प्रणव साधक को नव अर्थात नवीन (शिवस्वरूप) कर देता है । इसलिये भी विद्वान् पुरुष उसे ‘प्रणव’ कहते हैं । अथवा प्रकृष्टरूप से नव-दिव्य परमात्मज्ञान प्रकट करता है, इसलिये वह प्रणव कहा गया है ॥ ६-७१/२ ॥

प्रणव के दो भेद बताये गये हैं — स्थूल और सूक्ष्म । एक अक्षररूप जो ‘ओम्’ है, उसे सूक्ष्म प्रणव जानना चाहिये और ‘नमः शिवाय’ इस पाँच अक्षरवाले मन्त्र को स्थूल प्रणव समझना चाहिये । जिसमें पाँच अक्षर व्यक्त नहीं हैं, वह सूक्ष्म है और जिसमें पाँचों अक्षर सुस्पष्टरूप से व्यक्त हैं, वह स्थूल है । जीवन्मुक्त पुरुष के लिये सूक्ष्म प्रणव जप का विधान है । वही उसके लिये समस्त साधनों का सार है । (यद्यपि जीवन्मुक्त के लिये किसी साधन की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह सिद्धरूप है, तथापि दूसरों की दृष्टि में जबतक उसका शरीर रहता है, तबतक उसके द्वारा प्रणव-जप की सहज साधना स्वतः होती रहती है । वह अपनी देह का विलय होने तक सूक्ष्म प्रणव मन्त्र का जप और उसके अर्थभूत परमात्म-तत्त्व का अनुसंधान करता रहता है । जब शरीर नष्ट हो जाता है, तब वह पूर्ण ब्रह्मस्वरूप शिव को प्राप्त कर लेता है —यह सुनिश्चित है ॥ ८-१०१/२ ॥

जो केवल मन्त्र का जप करता है, उसे निश्चय ही योग की प्राप्ति होती है । जिसने छत्तीस करोड़ मन्त्र का जप कर लिया हो, उसे अवश्य ही योग प्राप्त हो जाता है । सूक्ष्म प्रणव के भी ह्रस्व और दीर्घ के भेद से दो रूप जानने चाहिये । अकार, उकार, मकार, बिन्दु, नाद, शब्द, काल और कला — इनसे युक्त जो प्रणव है, उसे ‘दीर्घ प्रणव’ कहते हैं । वह योगियों के ही हृदय में स्थित होता है । मकारपर्यन्त जो ओम् है, वह अ उ म् — इन तीन तत्त्वों से युक्त है । इसी को ‘ह्रस्व प्रणव’ कहते हैं । ‘अ’ शिव है, ‘उ’ शक्ति है और मकार इन दोनों की एकता है; वह त्रितत्त्वरूप है, ऐसा समझकर ह्रस्व प्रणव का जप करना चाहिये । जो अपने समस्त पापों का क्षय करना चाहते हैं, उनके लिये इस ह्रस्व प्रणव का जप अत्यन्त आवश्यक है ॥ ११-१५ ॥

पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश — ये पाँच भूत तथा शब्द, स्पर्श आदि इनके पाँच विषय — ये सब मिलकर दस वस्तुएँ मनुष्यों की कामना के विषय हैं । इनकी आशा मन में लेकर जो कर्मों के अनुष्ठान में संलग्न होते हैं, वे दस प्रकार के पुरुष प्रवृत्त अथवा प्रवृत्तिमार्गी कहलाते हैं तथा जो निष्कामभाव से शास्त्रविहित कर्मों का अनुष्ठान करते हैं, वे निवृत्त अथवा निवृत्तिमार्गी कहे गये हैं । प्रवृत्त पुरुषों को ह्रस्व प्रणव का ही जप करना चाहिये और निवृत्त पुरुषों को दीर्घ प्रणव का । व्याहृतियों तथा अन्य मन्त्रों के आदि में इच्छानुसार शब्द और कला से युक्त प्रणव का उच्चारण करना चाहिये । वेद के आदि में और दोनों संध्याओं की उपासना के समय भी ओंकार का उच्चारण करना चाहिये ॥ १६-१७१/२ ॥

प्रणव का नौ करोड़ जप करने से मनुष्य शुद्ध हो जाता है । पुनः नौ करोड़ का जप करने से वह पृथ्वी तत्त्व पर विजय पा लेता है । तत्पश्चात् पुनः नौ करोड़ का जप करके वह जल-तत्त्व को जीत लेता है । पुनः नौ करोड़ जप से वह अग्नितत्त्व पर विजय पाता है । तदनन्तर फिर नौ करोड़ का जप करके वह वायु-तत्त्व पर विजयी होता है और फिर नौ करोड़ के जप से आकाश को अपने अधिकार में कर लेता है । इसी प्रकार नौ-नौ करोड़ का जप करके वह क्रमशः गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द पर विजय पाता है, इसके बाद फिर नौ करोड़ का जप करके अहंकार को भी जीत लेता है ॥ १८-२१ ॥

हे द्विजो ! मनुष्य एक हजार मन्त्रों के जप करने से नित्य शुद्ध होता है, इसके अनन्तर अपनी सिद्धि के लिये जप किया जाता है ॥ २२ ॥ इस तरह एक सौ आठ करोड प्रणव का जप करके उत्कृष्ट बोध को प्राप्त हुआ पुरुष शुद्ध योग प्राप्त कर लेता है । शुद्ध योग से युक्त होने पर वह जीवन्मुक्त हो जाता है । इसमें संशय नहीं है । सदा प्रणव का जप और प्रणवरूपी शिव का ध्यान करते-करते समाधि में स्थित हुआ महायोगी पुरुष साक्षात् शिव ही है; इसमें संशय नहीं है । पहले अपने शरीर में प्रणव के ऋषि, छन्द और देवता आदि का न्यास करके फिर जप आरम्भ करना चाहिये । अकारादि मातृकावर्णों से युक्त प्रणव का अपने अंगों में न्यास करके मनुष्य ऋषि हो जाता है । मन्त्रों के दशविध* संस्कार, मातृकान्यास तथा षडध्वशोधन1 आदि के साथ सम्पूर्ण न्यास का फल उसे प्राप्त हो जाता है । प्रवृत्ति तथा प्रवृत्ति-निवृत्ति से मिश्रित भाववाले पुरुषों के लिये स्थूल प्रणव का जप ही अभीष्ट का साधक होता है ॥ २३-२६१/२ ॥

क्रिया, तप और जप के योग से शिवयोगी तीन प्रकार के होते हैं — [वे क्रमशः क्रियायोगी, तपोयोगी और जपयोगी कहलाते हैं।] जो धन आदि वैभवों से पूजासामग्री का संचय करके हाथ आदि अंगों से नमस्कारादि क्रिया करते हुए इष्टदेव की पूजा में लगा रहता है, वह ‘क्रियायोगी’ कहलाता है । पूजा में संलग्न रहकर जो परिमित भोजन करता हुआ बाह्य इन्द्रियों को जीतकर वश में किये रहता है और मन को भी वश में करके परद्रोह आदि से दूर रहता है, वह ‘तपोयोगी’ कहलाता है । इन सभी सद्गुणों से युक्त होकर जो सदा शुद्धभाव से रहता तथा समस्त काम आदि दोषों से रहित हो शान्तचित्त से निरन्तर जप किया करता है, उसे महात्मा पुरुष ‘जपयोगी’ मानते हैं । जो मनुष्य सोलह प्रकार के उपचारों से शिवयोगी महात्माओं की पूजा करता है, वह शुद्ध होकर सालोक्य आदि के क्रम से उत्तरोत्तर उत्कृष्ट मुक्ति को प्राप्त कर लेता है ॥ २७-३१ ॥

हे द्विजो ! अब मैं जपयोग का वर्णन करता हूँ, आप सब लोग ध्यान देकर सुनें । तपस्या करनेवाले के लिये जप का उपदेश किया गया है; क्योंकि वह जप करते-करते अपने आपको सर्वथा शुद्ध (निष्पाप) कर लेता है । हे ब्राह्मणो ! पहले ‘नमः’ पद हो, उसके बाद चतुर्थी विभक्ति में ‘शिव’ शब्द हो, तो पंचतत्त्वात्मक ‘नमः शिवाय’ मन्त्र होता है । इसे ‘शिव-पंचाक्षर’ कहते हैं । यह स्थूल प्रणवरूप है । इस पंचाक्षर के जप से ही मनुष्य सम्पूर्ण सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है । पंचाक्षरमन्त्र के आदि में ओंकार लगाकर ही सदा उसका जप करना चाहिये । हे द्विजो ! गुरु के मुख से पंचाक्षरमन्त्र का उपदेश पाकर जहाँ सुखपूर्वक निवास किया जा सके, ऐसी उत्तम भूमि पर महीने के पूर्वपक्ष (शुक्ल) में प्रतिपदा से आरम्भ करके कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तक निरन्तर जप करता रहे । माघ और भादों के महीने अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं । यह समय सब समयों से उत्तमोत्तम माना गया है ॥ ३२-३५/२ ॥

साधक को चाहिये कि वह प्रतिदिन एक बार परिमित भोजन करे, मौन रहे, इन्द्रियों को वश में रखे, अपने स्वामी एवं माता-पिता की नित्य सेवा करे । इस नियम से रहकर जप करनेवाला पुरुष एक हजार जप से ही शुद्ध हो जाता है, अन्यथा वह ऋणी होता है । भगवान् शिव का निरन्तर चिन्तन करते हुए पंचाक्षरमन्त्र का पाँच लाख जप करे । [जपकाल में इस प्रकार ध्यान करे]2 कल्याणदाता भगवान् शिव कमल के आसन पर विराजमान हैं, उनका मस्तक श्रीगंगाजी तथा चन्द्रमा की कला से सुशोभित है, उनकी बायीं जाँघ पर आदिशक्ति भगवती उमा बैठी हैं, वहाँ खड़े हुए बड़े-बड़े गण भगवान् शिव की शोभा बढ़ा रहे हैं, महादेवजी अपने चार हाथों में मृगमुद्रा, टंक तथा वर एवं अभय की मुद्राएँ धारण किये हुए हैं । इस प्रकार सदा सबपर अनुग्रह करनेवाले भगवान् सदाशिव का बार-बार स्मरण करते हुए हृदय अथवा सूर्यमण्डल में पहले उनकी मानसिक पूजा करके फिर पूर्वाभिमुख हो पूर्वोक्त पंचाक्षरी विद्या का जप करे । उन दिनों साधक सदा शुद्ध कर्म ही करे । जप की समाप्ति के दिन कृष्णपक्ष को चतुर्दशी को प्रातःकाल नित्यकर्म सम्पन्न करके शुद्ध एवं सुन्दर स्थान में [शौचसंतोषादि] नियमों से युक्त होकर शुद्ध हृदय से पंचाक्षरमन्त्र का बारह हजार जप करे ॥ ३६-४२ ॥

तत्पश्चात् सपत्नीक पाँच ब्राह्मणों का, जो श्रेष्ठ एवं शिवभक्त हों, वरण करे । इनके अतिरिक्त एक श्रेष्ठ आचार्य का भी वरण करे और उसे साम्बसदाशिव का स्वरूप समझे । ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा सद्योजात — इन पाँचों के प्रतीकस्वरूप श्रेष्ठ और शिवभक्त ब्राह्मणों का वरण करने के पश्चात् पूजन-सामग्री को एकत्र करके भगवान् शिव का पूजन आरम्भ करे । विधिपूर्वक शिव की पूजा सम्पन्न करके होम आरम्भ करे । अपने गृह्यसूत्र के अनुसार मुखान्त कर्म करने के [अर्थात् परिसमूहन, उपलेपन, उल्लेखन, मृद्-उद्धरण और अभ्युक्षण — इन पंच भू-संस्कारों के पश्चात् वेदी पर स्वाभिमुख अग्नि को स्थापित करके कुशकण्डिका करने के अनन्तर प्रज्वलित अग्नि में आज्यभागान्त आहुति देकर] पश्चात् होम का कार्य आरम्भ करे । कपिला गाय के घी से ग्यारह, एक सौ एक अथवा एक हजार एक आहुतियाँ स्वयं ही दे अथवा विद्वान् पुरुष शिवभक्त ब्राह्मणों से एक सौ आठ आहुतियाँ दिलाये ॥ ४३-४७ ॥

होमकर्म समाप्त होने पर गुरु को दक्षिणा के रूप में एक गाय और बैल देने चाहिये । ईशान आदि के प्रतीकरूप जिन पाँच ब्राह्मणों का वरण किया गया हो, उनको ईशान आदि का ही स्वरूप समझे तथा आचार्य को साम्बसदाशिव का स्वरूप माने । इसी भावना के साथ उन सबके चरण धोये और उनके चरणोदक से अपने मस्तक को सींचे । ऐसा करने से वह साधक छत्तीस करोड़ तीर्थों में स्नान करने का फल तत्काल प्राप्त कर लेता है । उन ब्राह्मणों को भक्तिपूर्वक दशांग अन्न देना चाहिये । गुरुपत्नी को पराशक्ति मानकर उनका भी पूजन करे । ईशानादि-क्रम से उन सभी ब्राह्मणों का उत्तम अन्न से पूजन करके अपने वैभव-विस्तार के अनुसार रुद्राक्ष, वस्त्र, बड़ा और पूआ आदि अर्पित करे । तदनन्तर दिक्पालादि को बलि देकर ब्राह्मणों को भरपूर भोजन कराये । इसके बाद देवेश्वर शिव से प्रार्थना करके अपना जप समाप्त करे । इस प्रकार पुरश्चरण करके मनुष्य उस मन्त्र को सिद्ध कर लेता है । फिर पाँच लाख जप करने से उसके समस्त पापों का नाश हो जाता है । तदनन्तर पुनः पाँच लाख जप करने पर मनुष्य अतल से लेकर सत्यलोक तक के लोकों का ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता है ॥ ४८-५४ ॥

यदि अनुष्ठान पूर्ण होने के पहले बीच में ही साधक की मृत्यु हो जाय तो वह परलोक में उत्तम भोग भोगने के पश्चात् पुनः पृथ्वी पर जन्म लेकर पंचाक्षरमन्त्र के जप का अनुष्ठान करता है । [समस्त लोकों का ऐश्वर्य पाने के पश्चात् मन्त्र को सिद्ध करनेवाला] वह पुरुष यदि पुनः पाँच लाख जप करे तो उसे ब्रह्माजी का सामीप्य प्राप्त होता है । पुनः पाँच लाख जप करने से उसे सारूप्य नामक ऐश्वर्य प्राप्त होता है । सौ लाख जप करने से वह साक्षात् ब्रह्मा के समान हो जाता है । इस तरह कार्य-ब्रह्म (हिरण्यगर्भ)-का सायुज्य प्राप्त करके वह उस ब्रह्मा का प्रलय होने तक उस लोक में यथेष्ट भोग भोगता है । फिर दूसरे कल्प का आरम्भ होने पर वह ब्रह्माजी का पुत्र होता है । उस समय फिर तपस्या करके दिव्य तेज से प्रकाशित होकर वह क्रमशः मुक्त हो जाता है ॥ ५५-५८ ॥

पृथ्वी आदि कार्यस्वरूप भूतों द्वारा पाताल से लेकर सत्यलोकपर्यन्त ब्रह्माजी के चौदह लोक क्रमशः निर्मित हुए हैं । सत्यलोक से ऊपर क्षमालोक तक जो चौदह भुवन हैं, वे भगवान् विष्णु के लोक हैं । उस क्षमालोक वाले श्रेष्ठ वैकुण्ठ में महाभोगी कार्यविष्णु कार्यलक्ष्मी सहित सबकी रक्षा करते हुए विराजमान रहते हैं । क्षमालोक से ऊपर शुचिलोकपर्यन्त अट्ठाईस भुवन स्थित हैं । शुचिलोक के अन्तर्गत कैलास में प्राणियों का संहार करनेवाले रुद्रदेव विराजमान हैं । शुचिलोक से ऊपर अहिंसालोकपर्यन्त छप्पन भुवनों की स्थिति है । अहिंसालोक का आश्रय लेकर जो ज्ञान-कैलास नामक नगर शोभा पाता है, उसमें कार्यभूत महेश्वर सबको अदृश्य करके रहते हैं । अहिंसालोक के अन्त में कालचक्र की स्थिति है । तदनन्तर कालातीत स्थित है; जहाँ कालचक्रेश्वर नामक शिव माहिष धर्म का आश्रय लेकर सबको काल से संयुक्त किये रहते हैं ॥ ५९-६४१/२ ॥

असत्य, अशुचि, हिंसा, निर्दयता-ये असत्य आदि चार पाद कामरूप धारण करनेवाले शिव के अंश हैं । नास्तिकतायुक्त लक्ष्मी, दुःसंग, वेदबाह्य शब्द, क्रोध का संग, कृष्ण वर्ण — ये महामहिष के रूपवाले हैं । यहाँ तक महेश्वर के विराट्-स्वरूप का वर्णन किया गया । वहीं तक लोकों का तिरोधान अथवा लय होता है । उससे नीचे कर्मों का भोग है और उससे ऊपर ज्ञान का भोग, उसके नीचे कर्ममाया है और उसके ऊपर ज्ञानमाया ॥ ६५-६८ ॥

[अब मैं कर्ममाया और ज्ञानमाया का तात्पर्य बता रहा हूँ-] ‘मा’ का अर्थ है लक्ष्मी; उससे कर्मभोग यात — प्राप्त होता है, इसलिये वह माया अथवा कर्ममाया कहलाती है । इसी तरह मा अर्थात् लक्ष्मी से ज्ञानभोग यात अर्थात् प्राप्त होता है, इसलिये उसे माया या ज्ञानमाया कहा गया है । उपर्युक्त सीमा से नीचे नश्वर भोग हैं और ऊपर नित्य भोग । उससे नीचे ही तिरोधान अथवा लय है, ऊपर तिरोधान नहीं है । वहाँ से नीचे ही कर्ममय पाशों द्वारा बन्धन होता है । ऊपर बन्धन का सदा अभाव है । उससे नीचे ही जीव सकाम कर्मों का अनुसरण करते हुए विभिन्न लोकों और योनियों में चक्कर काटते हैं । उससे ऊपर के लोकों में निष्काम कर्म का ही भोग बताया गया है ॥ ६९-७११/२ ॥

बिन्दुपूजा में तत्पर रहनेवाले उपासक वहाँ से नीचे के लोकों में ही घूमते हैं । उसके ऊपर तो निष्कामभाव से शिवलिंग की पूजा करनेवाले उपासक ही जाते हैं । उसके नीचे शिव के अतिरिक्त अन्य देवताओं की पूजा करनेवाले घूमते रहते हैं । जो एकमात्र शिव की ही उपासना में तत्पर हैं, वे उससे ऊपर के लोकों में जाते हैं । वहाँ से नीचे जीवकोटि है और ऊपर ईश्वरकोटि ॥ ७२-७४ ॥

नीचे संसारी जीव रहते हैं और ऊपर मुक्त लोग । प्राकृत द्रव्यों से पूजा करनेवाले उसके नीचे रहते हैं और पौरुष द्रव्यों से पूजा करने वाले उससे ऊपर जाते हैं । उसके नीचे शक्तिलिंग है और उसके ऊपर शिवलिंग । उसके नीचे सगुण लिंग है और उसके ऊपर निर्गुण लिंग । उसके नीचे कल्पित लिंग है और उसके ऊपर कल्पित नहीं है । उसके नीचे आधिभौतिक लिंग और उसके ऊपर आध्यात्मिक लिंग है । उसके नीचे एक सौ बारह शक्ति-लोक हैं । उसके नीचे बिन्दुरूप और उसके ऊपर नादरूप है । उसके नीचे कर्मलोक है और उसके ऊपर ज्ञानलोक ॥ ७५-७९ ॥

इसी प्रकार उसके ऊपर मद और अहंकार का नाश करनेवाली नम्रता है, वहाँ जन्मजनित तिरोधान नहीं है । उसका निवारण किये बिना वहाँ किसी का प्रवेश सम्भव नहीं है । इस प्रकार तिरोधान का निवारण करने से वहाँ ज्ञानशब्द का अर्थ ही प्रकाशित होता है । आधिभौतिक पूजा करनेवाले लोग उससे नीचे के लोकों में ही चक्कर काटते हैं । जो आध्यात्मिक उपासना करनेवाले हैं, वे ही उससे ऊपर को जाते हैं । इस प्रकार वहाँ तक महालोकरूपी आत्मलिंग में विभाग को जानना चाहिये और प्रकृति आदि (प्रकृति, महत्, अहंकार, पंच तन्मात्राएँ) आठ बन्धों को भी जाने । इस प्रकार सब लौकिक तथा वैदिक स्वरूप को जानना चाहिये ॥ ८०-८३ ॥

जो सत्य-अहिंसा आदि धर्मों से युक्त होकर भगवान् शिव के पूजन में तत्पर रहते हैं, वे अधर्मरूप भैंसे पर आरूढ़ कालचक्र को पार कर जाते हैं । कालचक्रेश्वर की सीमा तक जो विराट् महेश्वरलोक बताया गया है, उससे ऊपर वृषभ के आकार में धर्म की स्थिति है । वह ब्रह्मचर्य का मूर्तिमान् रूप हैं । उसके सत्य, शौच, अहिंसा और दया — ये चार पाद हैं । वह शिवलोक के आगे स्थित है । क्षमा उसके सींग हैं, शम कान हैं, वे वेदध्वनिरूपी शब्द से विभूषित हैं । आस्तिकता उसके दोनों नेत्र हैं, निःश्वास ही उसकी श्रेष्ठ बुद्धि एवं मन है । क्रिया आदि धर्मरूपी जो वृषभ हैं, वे कारण आदि में सर्वदा स्थित हैं — ऐसा जानना चाहिये । उस क्रियारूप वृषभाकार धर्म पर कालातीत शिव आरूढ होते हैं ॥ ८४-८७ ॥

ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर की जो अपनी-अपनी आयु है, उसी को दिन कहते हैं । जहाँ धर्मरूपी वृषभ की स्थिति है, उससे ऊपर न दिन है, न रात्रि और वहाँ जन्म-मरण आदि भी नहीं है । फिर कारणस्वरूप ब्रह्मा के भी कारण सत्यलोकपर्यन्त चौदह लोक स्थित हैं, जो पांचभौतिक गन्ध आदि से परे हैं । उनकी सनातन स्थिति है । सूक्ष्म गन्ध ही उनका स्वरूप है ॥ ८८-८९१/२ ॥ इसके ऊपर कारणरूप विष्णु के चौदह लोक स्थित हैं । उनसे भी ऊपर फिर कारणरूपी रुद्र के अट्ठाईस लोकों की स्थिति मानी गयी है । फिर उनसे भी ऊपर कारणेश शिव के छप्पन लोक विद्यमान हैं । तदनन्तर शिवसम्मत ब्रह्मचर्यलोक है और वहीं पाँच आवरणों से युक्त ज्ञानमय कैलास है; वहाँ पर पाँच मण्डलों, पाँच ब्रह्मकलाओं और आदिशक्ति से संयुक्त आदिलिंग प्रतिष्ठित है । उसे परमात्मा शिव का शिवालय कहा गया है । वहीं पराशक्ति से युक्त परमेश्वर शिव निवास करते हैं । वे सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह — इन पाँचों कृत्यों में प्रवीण हैं । उनका श्रीविग्रह सच्चिदानन्दस्वरूप है ॥ ९०-९५ ॥

वे सदा ध्यानरूपी धर्म में ही स्थित रहते हैं और सदा सबपर अनुग्रह किया करते हैं । वे स्वात्माराम हैं और समाधिरूपी आसन पर आसीन हो सुशोभित होते हैं । कर्म एवं ध्यान आदि का अनुष्ठान करने से क्रमशः साधनपथ में आगे बढ़ने पर उनका दर्शन साध्य होता है । नित्य-नैमित्तिक आदि कर्मों द्वारा देवताओं का यजन करने से भगवान् शिव के समाराधन-कर्म में मन लगता है । क्रिया आदि जो शिवसम्बन्धी कर्म हैं, उनके द्वारा शिवज्ञान सिद्ध करे । जिन्होंने शिवतत्त्व का साक्षात्कार कर लिया है अथवा जिन पर शिव की कृपादृष्टि पड़ चुकी है, वे सब मुक्त ही हैं; इसमें संशय नहीं है ॥ ९६-९८ ॥

आत्मस्वरूप से जो स्थिति है, वही मुक्ति है । एकमात्र अपने आत्मा में रमण या आनन्द का अनुभव करना ही मुक्ति का स्वरूप है । जो पुरुष क्रिया, तप, जप, ज्ञान और ध्यानरूपी धर्मों में भली-भाँति स्थित है, वह शिव का साक्षात्कार करके स्वात्मारामत्वस्वरूप मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है । जैसे सूर्य अपनी किरणों से अशुद्धि को दूर कर देते हैं, उसी प्रकार कृपा करने में कुशल भगवान् शिव अपने भक्त के अज्ञान को मिटा देते हैं । अज्ञान की निवृत्ति हो जाने पर शिवज्ञान स्वतः प्रकट हो जाता है । शिवज्ञान से अपना विशुद्ध स्वरूप आत्मारामत्व प्राप्त होता है और आत्मारामत्व की सम्यक् सिद्धि हो जाने पर मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है ॥ ९९-१०२ ॥

(शिव मन्त्र का) सौ लाख जप करने से ब्रह्मपद की प्राप्ति होती है और फिर सौ लाख जप करने से विष्णुपद प्राप्त होता है ॥ १०३ ॥ पुनः सौ लाख (शिवमन्त्र का) जप करने से रुद्र का पद प्राप्त होता है । उसके बाद फिर सौ लाख जप करने पर ऐश्वर्यमय पद की प्राप्ति हो जाती है ॥ १०४ ॥ फिर इसी प्रकार सम्यक् रूप से जप करने पर शिवलोक के आदिभूत अर्थात् शिवलोक के आधारभूत निर्माता कालचक्र को प्राप्त किया जा सकता है ॥ १०५ ॥ यह कालचक्र पंचचक्रों से युक्त है, जो एक के पश्चात् एक में स्थित हैं । सृष्टि और मोह से युक्त ब्रह्मचक्र, भोग तथा मोह से युक्त वैष्णवचक्र, कोप एवं मोह से युक्त रौद्रचक्र, भ्रमण से युक्त ईश्वरचक्र और ज्ञान तथा मोह से युक्त शिवचक्र है । ऐसा इन पाँच चक्रों के विषय में बुद्धिमानों का कहना है ॥ १०६-१०७ ॥ पुनः दस करोड़ (शिवमन्त्र का) जप करने पर कारणब्रह्म का पद प्राप्त होता है । तदनन्तर दस करोड़ जप करने से ऐश्वर्ययुक्त पद की प्राप्ति होती है ॥ १०८ ॥ इस प्रकार क्रमशः जप करता हुआ प्राणी महान् ओजस्वी विष्णु के पद को प्राप्तकर पुनः उसी क्रम से जपता हुआ महात्माओं के उस ऐश्वर्यपद को प्राप्त करता है ॥ १०९ ॥

बिना असावधानी किये १०५ करोड मन्त्रों का जप करने के पश्चात् वह प्राणी पाँच आवरणों (पशु, पाश, माया, शक्ति, रोध) — से बाहर स्थित शिवलोक प्राप्त करता है ॥ ११०॥ वहाँ (उस शिवलोकमें) राजसमण्डप है, नन्दीश्वर का उत्तम निवास है । तपस्यारूपी वृषभ वहीं पर दिखायी देता है ॥ १११ ॥ वहीं पर पाँचों आवरणों से बाहर सद्योजात (अर्थात् तत्काल आवरणरहित हुए भगवान् शिव)-का स्थान है । पुनः चतुर्थ आवरण में वामदेव का स्थान है ॥ ११२ ॥ उसके पश्चात् तृतीयावरण में अघोर शिव का, दूसरे आवरण में साम्बशिव का मंगलमय तथा प्रथमावरण में ईशान शिव का निवासस्थान है । उसके पश्चात् पंचम मण्डप है, जहाँ ध्यान और धर्म का निवास रहता है ॥ ११३-११४ ॥ तदनन्तर चतुर्थ मण्डप है, वहाँ पर चन्द्रशेखर की मूर्ति से युक्त भगवान् बलिनाथ का वासस्थान है, जो पूर्ण अमृत को प्रदान करनेवाला है ॥ ११५ ॥

तृतीय मण्डप में सोमस्कन्द का परम निवासस्थान है । उसके पश्चात् द्वितीय मण्डप है, आस्तिक लोग जिसे नृत्यमण्डप कहते हैं ॥ ११६ ॥ प्रथम मण्डप में मूलमाया का स्थान है, वहाँ पर अत्यन्त शोभा वास करती है । उसके परे गर्भगृह है, जहाँ पर शिव का लिंगस्थान है ॥ ११७ ॥ नन्दीस्थान के पश्चात् शिव के वैभव को कोई नहीं जान सकता है । नन्दीश्वर (गर्भगृह से) बाहर रहकर शिव के पंचाक्षर मन्त्र की उपासना करते हैं ॥ ११८ ॥ इस प्रकार गुरुपरम्परा से नन्दीश्वर और सनत्कुमार के संवाद की जानकारी मुझे हुई है । उसके पश्चात् का परम रहस्य स्वसंवेद्य है, जिसका अनुभव स्वयं शिव करते हैं ॥ ११९ ॥ आस्तिकजनों का कहना है कि साक्षात् शिव की कृपा से ही शिवलोक के ऐश्वर्य को लोग जान सकते हैं, अन्यथा असम्भव है ॥ १२० ॥ इस प्रकार से शिव का साक्षात्कार प्राप्तकर जितेन्द्रिय ब्राह्मण मुक्त हो जाते हैं अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं । अब मैं अन्य क्षत्रियादि वर्णों के विषय में कहूँगा । उसे आदरपूर्वक आप सब सुनें ॥ १२१ ॥

यदि ब्राह्मण को आयु प्राप्त करने की इच्छा है तो उसे गुरु के द्वारा बताये गये उपदेश के अनुसार इस शिव के पंचाक्षरमन्त्र का विधिपूर्वक पाँच लाख जप करना चाहिये ॥ १२२ ॥ यदि स्त्री स्त्रीत्व अर्थात् स्त्रीयोनि से मुक्त होना चाहती है तो वह भी पाँच लाख पंचाक्षर मन्त्रों का जप करे । उन मन्त्रों के प्रभाव से पुरुष का जन्म लेकर वह क्रमशः मुक्त हो जाती है ॥ १२३ ॥ क्षत्रिय पाँच लाख मन्त्रों का जप करके क्षत्रियत्व को दूर कर लेता है अर्थात् क्षत्रियवर्ण में रहनेवाले गुणों से वह मुक्त हो जाता है । तदनन्तर पुनः पाँच लाख मन्त्रों का जप करने पर वह ब्राह्मण हो जाता है । फिर उतने ही मन्त्रों के जप से मन्त्रसिद्धि प्राप्त हो जाती है और तत्पश्चात् उसी क्रम से पाँच लाख मन्त्रों का जप करने पर वह मनुष्य मुक्त हो जाता है । वैश्य पंचलक्ष मन्त्रों का जप करने से अपने वैश्यत्व (गुण)-का परित्याग कर देता है । पुनः पंचलक्ष मन्त्र का जप करने पर वह मन्त्र-क्षत्रिय कहलाने का अधिकारी हो जाता है । उसके बाद पाँच लाख मन्त्रों का जप करनेसे क्षत्रियत्व को दूर कर देता है । तदनन्तर पुनः पंचलक्ष मन्त्र का जप करके मन्त्र-ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी हो जाता है । इसी प्रकार शूद्र भी मन्त्र के अन्त में नमः शब्द लगाकर यदि २५ लाख मन्त्रों का जप करता है तो वह शूद्र मन्त्रविप्रत्व को प्राप्त द्विज (ब्राह्मण) हो जाता है । चाहे स्त्री हो अथवा पुरुष, ब्राह्मण हो या अन्य ही कोई वर्ण हो, पंचाक्षर मन्त्र का जप करने से सभी शुद्ध हो जाते हैं ॥ १२४-१२८ ॥

जो कामनापूर्ति के लिये आतुर है, उसे चाहिये कि वह नमः को आदि-अन्त में लगाकर शिवमन्त्र का सदैव जप करता रहे । स्त्रियों तथा शूद्रों के लिये मन्त्रजप का जैसा स्वरूप कहा गया है, उसी के अनुसार गुरु को भी चाहिये कि वह उन्हें निर्देश दे ॥ १२९ ॥

साधक को चाहिये कि वह पाँच लाख जप करने के पश्चात् भगवान् शिव की प्रसन्नता के लिये महाभिषेक एवं नैवेद्य निवेदन करके शिवभक्तों का पूजन करे ॥ १३० ॥

शिवभक्त की पूजा से भगवान् शिव बहुत प्रसन्न होते हैं । शिव और उनके भक्त में कोई भेद नहीं है । वह साक्षात् शिवस्वरूप ही है ॥ १३१ ॥ शिवस्वरूप मन्त्र को धारण करके वह शिव ही हो जाता है, शिवभक्त का शरीर शिवरूप ही है । अतः उसकी सेवामें तत्पर रहना चाहिये ॥ १३२ ॥ जो शिव के भक्त हैं, वे लोक और वेद की सारी क्रियाओं को जानते हैं । जो क्रमशः जितना-जितना शिवमन्त्र का जप कर लेता है, उसके शरीर को उतना ही उतना शिव का सामीप्य प्राप्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है । शिवभक्त स्त्री का रूप देवी पार्वती का ही स्वरूप है । वह जितना मन्त्र जपती है, उसे उतना ही देवी का सांनिध्य प्राप्त होता जाता है ॥ १३३-१३४१/२ ॥

बुद्धिमान् व्यक्ति को शिव का पूजन करना चाहिये, इससे वह साक्षात् मन्त्ररूप हो जाता है । साधक स्वयं शिवस्वरूप होकर पराशक्ति का पूजन करे । शक्ति, वेर (मूर्ति) तथा लिंग का चित्र बनाकर अथवा मिट्टी आदि से इनकी आकृति का निर्माण करके प्राणप्रतिष्ठापूर्वक निष्कपट भाव से इनका पूजन करे ॥ १३५-१३६ ॥ शिवलिंग को शिव मानकर अपने को शक्तिरूप समझकर, शक्तिलिंग को देवी और अपने को शिवरूप समझकर शिवलिंग को नादरूप तथा शक्ति को बिन्दुरूप मानकर परस्पर सटे हुए शक्तिलिंग और शिवलिंग के प्रति उपप्रधान और प्रधान की भावना रखते हुए जो शिव और शक्ति का पूजन करता है, वह मूलरूपी भावना करने के कारण शिवरूप ही है । शिवभक्त शिवमन्त्ररूप होने के कारण शिव के ही स्वरूप हैं ॥ १३७–१३९ ॥

जो सोलह उपचारों से उनकी पूजा करता है, उसे अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति होती है । जो शिवलिंगोपासक शिवभक्त की सेवा आदि करके उसे आनन्द प्रदान करता है, उस विद्वान् पर भगवान् शिव बड़े प्रसन्न होते हैं । पाँच, दस या सौ सपत्नीक शिवभक्तों को बुलाकर भोजन आदि के द्वारा पत्नीसहित उनका सदैव समादर करे । धन में, देह में और मन्त्र में शिवभावना रखते हुए उन्हें शिव और शक्ति का स्वरूप जानकर निष्कपटभाव से उनकी पूजा करे । ऐसा करनेवाला पुरुष शिवशक्तिस्वरूप होकर इस भूतल पर फिर जन्म नहीं लेता है ॥ १४०-१४२१/२ ॥

शिवभक्त की नाभि के नीचे का भाग ब्रह्मभाग तथा नाभि से ऊपर कण्ठपर्यन्त तक का भाग विष्णुभाग और मुख शिवलिंगस्वरूप कहा गया है । मृत्यु के पश्चात् (जिनका) दाहादि संस्कार हुआ हो अथवा जो दाहादि संस्कार से रहित हों, उन पितरों के उद्देश्य से शिव को ही आदि पितर मानकर उनकी पूजा करनी चाहिये । पुनः आदिमाता शिव की शक्ति की पूजाकर शिवभक्तों का पूजन करना चाहिये । ऐसा करनेवाला पुरुष मरने के पश्चात् क्रमशः पितृलोक को प्राप्त करता है । तदनन्तर उसे मुक्ति प्राप्त हो जाती है । दस क्रियावान् पुरुषों से युक्त योगियों की अपेक्षा एक तपोयुक्त प्राणी श्रेष्ठ है ॥ १४३-१४६ ॥

सौ तपोयुक्तों (तपस्वियों)-की अपेक्षा एक जपयुक्त जापक विशिष्ट है । सहस्र जपयुक्त जापकों की अपेक्षा एक शिवज्ञानी का विशेष महत्त्व है ॥ १४७ ॥ एक लाख शिवज्ञानियों से शिव का ध्यान करनेवाला एक ध्यानी श्रेष्ठ है और करोड़ ध्यानियों की अपेक्षा शिव के लिये एक समाधिस्थ श्रेष्ठ है ॥ १४८ ॥

इस प्रकार उत्तरोत्तर वैशिष्ट्य-क्रम से की जानेवाली पूजा से प्राप्त फल में भी विशिष्टता आ जाती है, जिसको जानना विद्वानों के लिये भी कठिन है । इस कारण से शिवभक्त की महिमा को कौन मनुष्य जान सकता है । जो मनुष्य शिवशक्ति और शिवभक्त की पूजा भक्तिपूर्वक करता है, वह शिवस्वरूप होकर सदैव कल्याण को प्राप्त करता है । जो ब्राह्मण इस वेदसम्मत अध्याय को अर्थसहित पढ़ता है, वह शिवज्ञानी होकर शिव के साथ आनन्द प्राप्त करता है । हे मुनीश्वरो ! विद्वान् पुरुष को चाहिये कि यह अध्याय वह शिवभक्तों को सुनाये ॥ १४९-१५२ ॥

हे बुधजनो ! ऐसा करने से भगवान् शिव की कृपा से उनका अनुग्रह प्राप्त हो जाता है ॥ १५३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत प्रथम विद्येश्वरसंहिता में प्रणवयुक्त पंचाक्षर मन्त्र का माहात्म्य-वर्णन नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥

* मन्त्रों के दस संस्कार ये हैं — जनन, दीपन, बोधन, ताड़न, अभिषेचन, विमलीकरण, जीवन, तर्पण, गोपन और आप्यायन । इनकी विधि इस प्रकार है —
भोजपत्र पर गोरोचन, कुंकुम, चन्दनादि से आत्माभिमुख त्रिकोण लिखे, फिर तीनों कोणों में छः-छः समान रेखाएँ खींचे । ऐसा करने पर ४९ त्रिकोण कोष्ठ बनेंगे । उनमें ईशानकोण से मातृकावर्ण लिखकर देवता का आवाहन-पूजन करके मन्त्र का एक-एक वर्ण उच्चारण करके अलग पत्र पर लिखे । ऐसा करने पर ‘जनन’ नाम का प्रथम संस्कार होगा ।
हंसमन्त्र का सम्पुट करने से एक हजार जप द्वारा मन्त्र का दूसरा ‘दीपन’ संस्कार होता है । यथा — हंसः रामाय नमः सोऽहम् ।
ह्रूँ — बीज-सम्पुटित मन्त्र का पाँच हजार जप करने से ‘बोधन’ नामक तीसरा संस्कार होता है । यथा — ह्रूँ रामाय नमः ह्रूँ ।
फट् — सम्पुटित मन्त्र का एक हजार जप करने से ‘ताड़न’ नामक चतुर्थ संस्कार होता है । यथा — फट् रामाय नमः फट् ।
भूर्जपत्र पर मन्त्र लिखकर ‘रों हंसः ओं’ इस मन्त्र से जल को अभिमन्त्रित करे और उस अभिमन्त्रित जल से अश्वत्थपत्रादि द्वारा मन्त्र का अभिषेक करे । ऐसा करने पर ‘अभिषेक’ नामक पाँचवाँ संस्कार होता है ।
‘ओं त्रों वषट्’ इन वर्णों से सम्पुटित मन्त्र का एक हजार जप करने से ‘विमलीकरण’ नामक छठा संस्कार होता है यथा — ओं त्रों वषट् रामाय नमः वषट् त्रों ओं ।
स्वधा–वषट् — सम्पुटित मूलमन्त्र का एक हजार जप करने से ‘जीवन’ नामक सातवाँ संस्कार होता है । यथा — स्वधा वषट् रामाय नमः वषट् स्वधा ।
दुग्ध, जल एवं घृत के द्वारा मूलमन्त्र से सौ बार तर्पण करना ही ‘तर्पण’ संस्कार है ।
ह्रीं — बीज-सम्पुटित एक हजार जप करने से ‘गोपन’ नामक नवम संस्कार होता है । यथा — ह्रीं रामाय नमः ह्रीं ।
ह्रौं — बीज-सम्पुटित एक हजार जप करने से ‘आप्यायन’ नामक दसवाँ संस्कार होता है । यथा — ह्रौं रामाय नमः ह्रौं ।
इस प्रकार संस्कृत किया हुआ मन्त्र शीघ्र सिद्धिप्रद होता है ।

1- षडध्व-शोधन का कार्य हौत्री दीक्षा के अन्तर्गत है । उसमें पहले कुण्ड में या वेदी पर अग्निस्थापन होता है । वहाँ षडध्वा का शोधन करके होम से ही दीक्षा सम्पन्न होती है ।
2॰- पद्मासनस्थं शिवदं गंगाचंद्र कलान्वितम् ॥ ३८ ॥
वामोरुस्थितशक्त्या च विराजं तं महागणैः ।
मृगटंकधरं देवं वरदाभयपाणिकम् ॥ ३९ ॥
सदानुग्रहकर्त्तारं सदा शिवमनुस्मरन् ।

 

 

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