July 25, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – प्रथम विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 18 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः अठारहवाँ अध्याय बन्धन और मोक्ष का विवेचन, शिवपूजा का उपदेश, लिंग आदि में शिवपूजन का विधान, भस्म के स्वरूप का निरूपण और महत्त्व, शिव के भस्मधारण का रहस्य, शिव एवं गुरु शब्द की व्युत्पत्ति तथा विघ्नशान्ति के उपाय और शिवधर्म का निरूपण ऋषिगण बोले — हे सर्वज्ञों में श्रेष्ठ ! बन्धन और मोक्ष का स्वरूप क्या है ? यह हमें बताइये ॥ १/२ ॥ सूतजी बोले — [हे महर्षियो!] मैं बन्धन और मोक्ष का स्वरूप तथा मोक्ष के उपाय का वर्णन करूँगा । आपलोग आदरपूर्वक सुनें । जो प्रकृति आदि आठ बन्धनों से बँधा हुआ है, वह जीव बद्ध कहलाता है और जो उन आठों बन्धनों से छूटा हुआ है, उसे मुक्त कहते हैं । प्रकृति आदि को वश में कर लेना मोक्ष कहलाता है । बन्धन आगन्तुक है और मोक्ष स्वतःसिद्ध है । बद्ध जीव जब बन्धन से मुक्त हो जाता है, तब उसे मुक्त जीव कहते हैं ॥ १-३ ॥ शिवमहापुराण प्रकृति, बुद्धि (महत्तत्त्व), त्रिगुणात्मक अहंकार और पाँच तन्मात्राएँ — इन्हें ज्ञानी पुरुष प्रकृत्याद्यष्टक मानते हैं । प्रकृति आदि आठ तत्त्वों के समूह से देह की उत्पत्ति हुई है । देह से कर्म उत्पन्न होता है और फिर कर्म से नूतन देह की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार बारबार जन्म और कर्म होते रहते हैं ॥ ४-५ ॥ शरीर को स्थूल, सूक्ष्म और कारण के भेद से तीन प्रकार का जानना चाहिये । स्थूल शरीर (जाग्रत्-अवस्था में) व्यापार करानेवाला, सूक्ष्म शरीर (जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाओं में) इन्द्रिय-भोग प्रदान करनेवाला तथा कारणशरीर (सुषुप्तावस्था में) आत्मानन्द की अनुभूति करानेवाला कहा गया है । जीव को उसके प्रारब्धकर्मानुसार सुख-दुःख प्राप्त होते हैं । वह अपने पुण्यकर्मों के फलस्वरूप सुख और पापकर्मों के फलस्वरूप दुःख प्राप्त करता है । अतः कर्मपाश से बँधा हुआ जीव अपने त्रिविध शरीर से होनेवाले शुभाशुभ कर्मों द्वारा सदा चक्र की भाँति बार-बार घुमाया जाता है ॥ ६-८ ॥ इस चक्रवत् भ्रमण की निवृत्ति के लिये चक्रकर्ता का स्तवन एवं आराधन करना चाहिये । प्रकृति आदि जो आठ पाश बतलाये गये हैं, उनका समुदाय ही महाचक्र है और जो प्रकृति से परे हैं, वे परमात्मा शिव हैं । भगवान् महेश्वर ही प्रकृति आदि महाचक्र के कर्ता हैं; क्योंकि वे प्रकृति से परे हैं । जैसे बकायन नामक वृक्ष का थाला जल को पीता और उगलता है, उसी प्रकार शिव प्रकृति आदि को अपने वश में करके उस पर शासन करते हैं । उन्होंने सबको वश में कर लिया है, इसीलिये वे शिव कहे गये हैं । शिव ही सर्वज्ञ, परिपूर्ण तथा नि:स्पृह हैं ॥ ९-११ ॥ सर्वज्ञता, तृप्ति, अनादिबोध, स्वतन्त्रता, नित्य अलुप्त शक्ति आदि से संयुक्त होना और अपने भीतर अनन्त शक्तियों को धारण करना — महेश्वर के इन छः प्रकार के मानसिक ऐश्वर्यों को केवल वेद जानता है । अतः भगवान् शिव के अनुग्रह से ही प्रकृति आदि आठों तत्त्व वश में होते हैं । भगवान् शिव का कृपाप्रसाद प्राप्त करने के लिये उन्हीं का पूजन करना चाहिये ॥ १२-१३ ॥ शिव तो परिपूर्ण हैं, निःस्पृह हैं; उनकी पूजा कैसे हो सकती है ? [इसका उत्तर यह है कि] भगवान् शिव के उद्देश्य से — उनकी प्रसन्नता के लिये किया हुआ सत्कर्म उनके कृपाप्रसाद को प्राप्त करानेवाला होता है । शिवलिंग में, शिव की प्रतिमा में तथा शिवभक्तजनों में शिव की भावना करके उनकी प्रसन्नता के लिये पूजा करनी चाहिये । वह पूजन शरीर से, मन से, वाणी से और धन से भी किया जा सकता है । उस पूजा से प्रकृति से परे महेश्वर पूजक पर विशेष कृपा करते हैं; यह सत्य है ॥ १४-१६ ॥ शिव की कृपा से कर्म आदि सभी बन्धन अपने वश में हो जाते हैं । कर्म से लेकर प्रकृतिपर्यन्त सब कुछ जब वश में हो जाता है, तब वह जीव मुक्त कहलाता है और स्वात्मारामरूप से विराजमान होता है । परमेश्वर शिव की कृपा से जब कर्मजनित शरीर अपने वश में हो जाता है, तब भगवान् शिव के लोक में निवास प्राप्त होता है; इसी को सालोक्यमुक्ति कहते हैं । जब तन्मात्राएँ वश में हो जाती हैं, तब जीव जगदम्बासहित शिव का सामीप्य प्राप्त कर लेता है । यह सामीप्यमुक्ति है, उसके आयुध आदि और क्रिया आदि सब कुछ भगवान् शिव के समान हो जाते हैं । भगवान् का महाप्रसाद प्राप्त होनेपर बुद्धि भी वश में हो जाती है । बुद्धि प्रकृति का कार्य है । उसका वश में होना साष्टिमुक्ति कही गयी है । पुनः भगवान् का महान् अनुग्रह प्राप्त होने पर प्रकृति वश में हो जायगी ॥ १७-२१ ॥ उस समय भगवान् शिव का मानसिक ऐश्वर्य बिना यत्न के ही प्राप्त हो जायगा । सर्वज्ञता आदि जो शिव के ऐश्वर्य हैं, उन्हें पाकर मुक्त पुरुष अपनी आत्मा में ही विराजमान होता है । वेद और शास्त्रों में विश्वास रखनेवाले विद्वान् पुरुष इसी को सायुज्यमुक्ति कहते हैं । इस प्रकार लिंग आदि में शिव की पूजा करने से क्रमशः मुक्ति स्वतः प्राप्त हो जाती है । इसलिये शिव का कृपाप्रसाद प्राप्त करने के लिये तत्सम्बन्धी क्रिया आदि के द्वारा उन्हीं का पूजन करना चाहिये । शिवक्रिया, शिवतप, शिवमन्त्रजप, शिवज्ञान और शिवध्यान के लिये सदा उत्तरोत्तर अभ्यास बढ़ाना चाहिये । प्रतिदिन प्रातःकाल से रात को सोते समय तक और जन्मकाल से लेकर मृत्युपर्यन्त सारा समय भगवान् शिव के चिन्तन में ही बिताना चाहिये । सद्योजातादि मन्त्रों तथा नाना प्रकार के पुष्पों से जो शिव की पूजा करता है, वह शिव को ही प्राप्त होगा ॥ २२-२५१/२ ॥ ऋषिगण बोले — हे सुव्रत ! अब आप लिंग आदि में शिवजी की पूजा का विधान बताइये ॥ २६ ॥ सूतजी बोले — हे द्विजो ! मैं लिंगों के क्रम का यथावत् वर्णन कर रहा हूँ, आप लोग सुनिये । वह प्रणव ही समस्त अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला प्रथम लिंग है । उसे सूक्ष्म प्रणवरूप समझिये । सूक्ष्मलिंग निष्कल होता है और स्थूललिंग सकल । पंचाक्षर मन्त्र को ही स्थूललिंग कहते हैं । उन दोनों प्रकार के लिंगों का पूजन तप कहलाता है । वे दोनों ही लिंग साक्षात् मोक्ष देनेवाले हैं । पौरुषलिंग और प्रकृतिलिंग के रूप में बहुत-से लिंग हैं । उन्हें भगवान् शिव ही विस्तारपूर्वक बता सकते हैं; दूसरा कोई नहीं जानता । पृथ्वी के विकारभूत जो-जो लिंग ज्ञात हैं, उन-उनको मैं आपलोगों को बता रहा हूँ ॥ २७-३० ॥ उनमें प्रथम स्वयम्भूलिंग, दूसरा बिन्दुलिंग, तीसरा प्रतिष्ठित लिंग, चौथा चरलिंग और पाँचवाँ गुरुलिंग है । देवर्षियों की तपस्या से सन्तुष्ट होकर उनके समीप प्रकट होने के लिये पृथ्वी के अन्तर्गत बीजरूप से व्याप्त हुए भगवान् शिव वृक्षों के अंकुर की भाँति भूमि को भेदकर नादलिंग रूप में व्याप्त हो जाते हैं । वे स्वतः व्यक्त हुए शिव ही स्वयं प्रकट होने के कारण स्वयम्भू नाम धारण करते हैं । ज्ञानीजन उन्हें स्वयम्भूलिंग के रूप में जानते हैं ॥ ३१-३३ ॥ उस स्वयम्भूलिंग की पूजा से उपासक का ज्ञान स्वयं ही बढ़ने लगता है । सोने-चाँदी आदि के पत्र पर, भूमि पर अथवा वेदी पर अपने हाथ से लिखित जो शुद्ध प्रणव मन्त्ररूप लिंग है, उसमें तथा यन्त्रलिंग का आलेखन करके उसमें भगवान् शिव की प्रतिष्ठा और आवाहन करे । ऐसा बिन्दुनादमय लिंग स्थावर और जंगम दोनों ही प्रकार का होता है । इसमें शिव का दर्शन भावनामय ही है; इसमें सन्देह नहीं है । जिसको जहाँ भगवान् शंकर के प्रकट होने का विश्वास हो, उसके लिये वहीं प्रकट होकर वे अभीष्ट फल प्रदान करते हैं । अपने हाथ से लिखे हुए यन्त्र में अथवा अकृत्रिम स्थावर आदि में भगवान् शिव का आवाहन करके सोलह उपचारों से उनकी पूजा करे । ऐसा करने से साधक स्वयं ही ऐश्वर्य को प्राप्त कर लेता है और इस साधन के अभ्यास से उसको ज्ञान भी प्राप्त हो जाता है ॥ ३४-३८ ॥ देवताओं और ऋषियों ने आत्मसिद्धि के लिये अपने हाथ से वैदिक मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक शुद्ध मण्डल में शुद्ध भावना द्वारा जिस उत्तम शिवलिंग की स्थापना की है, उसे पौरुषलिंग कहते हैं तथा वही प्रतिष्ठित लिंग कहलाता है । उस लिंग की पूजा करने से सदा पौरुष ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है । महान् ब्राह्मणों और महाधनी राजाओं द्वारा किसी शिल्पी से शिवलिंग का निर्माण कराकर मन्त्रपूर्वक जिस लिंग की स्थापना तथा प्रतिष्ठा की गयी हो, वह प्राकृतलिंग है, वह [शिवलिंग] प्राकृत ऐश्वर्य-भोग को देनेवाला होता है । जो शक्तिशाली और नित्य होता है, उसे पौरुषलिंग कहते हैं और जो दुर्बल तथा अनित्य होता है, वह प्राकृतलिंग कहलाता है ॥ ३९-४३ ॥ लिंग, नाभि, जिह्वा, नासिका का अग्र भाग और शिखा के क्रम से कटि, हृदय और मस्तक तीनों स्थानों में जो लिंग की भावना की गयी है, उस आध्यात्मिक लिंग को ही चरलिंग कहते हैं । पर्वत को पौरुषलिंग बताया गया है और भूतल को विद्वान् पुरुष प्राकृतलिंग मानते हैं । वृक्ष आदि को पौरुषलिंग जानना चाहिये । गुल्म आदि को प्राकृतलिंग कहा गया है । साठी नामक धान्य को प्राकृतलिंग समझना चाहिये और शालि (अगहनी) एवं गेहूँ को पौरुषलिंग । अणिमा आदि आठों सिद्धियों को देनेवाला जो ऐश्वर्य है, उसे पौरुष ऐश्वर्य जानना चाहिये । सुन्दर स्त्री तथा धन आदि विषयों को आस्तिक पुरुष प्राकृत ऐश्वर्य कहते हैं ॥ ४४-४६१/२ ॥ चरलिंगों में सबसे प्रथम रसलिंग का वर्णन किया जाता है । रसलिंग ब्राह्मणों को उनकी सारी अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला है । शुभकारक बाणलिंग क्षत्रियों को महान् राज्य की प्राप्ति करानेवाला है । सुवर्णलिंग वैश्यों को महाधनपति का पद प्रदान करानेवाला है तथा सुन्दर शिलालिंग शूद्रों को महाशुद्धि देनेवाला है । स्फटिकलिंग तथा बाणलिंग सब लोगों को उनकी समस्त कामनाएँ प्रदान करते हैं । अपना न हो तो दूसरे का स्फटिक या बाणलिंग भी पूजा के लिये निषिद्ध नहीं है । स्त्रियों, विशेषत: सधवाओं के लिये पार्थिवलिंग की पूजा का विधान है । प्रवृत्तिमार्ग में स्थित विधवाओं के लिये स्फटिकलिंग की पूजा बतायी गयी है । परंतु विरक्त विधवाओं के लिये रसलिंग की पूजा को ही श्रेष्ठ कहा गया है । हे सुव्रतो ! बचपन में, युवावस्था में और बुढ़ापे में भी शुद्ध स्फटिकमय शिवलिंग का पूजन स्त्रियों को समस्त भोग प्रदान करनेवाला है । गृहासक्त स्त्रियों के लिये पीठपूजा भूतल पर सम्पूर्ण अभीष्ट को देनेवाली है ॥ ४७–५३ ॥ प्रवृत्तिमार्ग में चलनेवाला पुरुष सुपात्र गुरु के सहयोग से ही समस्त पूजाकर्म सम्पन्न करे । इष्टदेव का अभिषेक करने के पश्चात् अगहनी के चावल से बने हुए [खीर आदि पक्वान्नों द्वारा] नैवेद्य अर्पण करे । पूजा के अन्त में शिवलिंग को पधराकर घर के भीतर पृथक् सम्पुट में स्थापित करे । जो निवृत्तिमार्गी पुरुष हैं, उनके लिये हाथ पर ही शिवलिंगपूजा का विधान है । उन्हें भिक्षादि से प्राप्त हुए अपने भोजन को ही नैवेद्यरूप में निवेदित करना चाहिये । निवृत्त पुरुषों के लिये सूक्ष्मलिंग ही श्रेष्ठ बताया जाता है । वे विभूति के द्वारा पूजन करें और विभूति को ही नैवेद्यरूप से निवेदित भी करें । पूजा करके उस लिंग को सदा अपने मस्तक पर धारण करें ॥ ५४-५६१/२ ॥ विभूति तीन प्रकार की बतायी गयी है लोकाग्नि-जनित, वेदाग्नि-जनित और शिवाग्नि-जनित । लोकाग्नि-जनित या लौकिक भस्म को द्रव्यों की शुद्धि के लिये लाकर रखे । मिट्टी, लकड़ी और लोहे के पात्रों की, धान्यों की, तिल आदि द्रव्यों की, वस्त्र आदि की तथा पर्युषित वस्तुओं की शुद्धि भस्म से होती है । कुत्ते आदि से दूषित हुए पात्रों की भी शुद्धि भस्म से ही मानी गयी है । वस्तु-विशेष की शुद्धि के लिये यथायोग्य सजल अथवा निर्जल भस्म का उपयोग करना चाहिये ॥ ५७-६० ॥ वेदाग्नि-जनित जो भस्म है, उसको उन-उन वैदिक कर्मों के अन्त में धारण करना चाहिये । मन्त्र और क्रिया से जनित जो होमकर्म है, वह अग्नि में भस्म का रूप धारण करता है । उस भस्म को धारण करने से वह कर्म आत्मा में आरोपित हो जाता है । अघोर-मूर्तिधारी शिव का जो अपना मन्त्र है, उसे पढ़कर बेल की लकड़ी को जलाये । उस मन्त्र से अभिमन्त्रित अग्नि को शिवाग्नि कहा गया है । उसके द्वारा जले हुए काष्ठ का जो भस्म है, वह शिवाग्नि-जनित है । कपिला गाय के गोबर अथवा गाय मात्र के गोबर को तथा शमी, पीपल, पलाश, वट, अमलतास और बिल्व —इनकी लकड़ियों को शिवाग्नि से जलाये । वह शुद्ध भस्म शिवाग्नि-जनित माना गया है अथवा कुश की अग्नि में शिवमन्त्र के उच्चारणपूर्वक काष्ठ को जलाये । फिर उस भस्म को कपड़े से अच्छी तरह छानकर नये घड़े में भरकर रख दे । उसे समय-समय पर अपनी कान्ति या शोभा की वृद्धि के लिये धारण करे । ऐसा करनेवाला पुरुष सम्मानित एवं पूजित होता है ॥ ६१-६५१/२ ॥ पूर्वकाल में भगवान् शिव ने भस्म शब्द का ऐसा ही अर्थ प्रकट किया था । जैसे राजा अपने राज्य में सारभूत कर को ग्रहण करता है, जैसे मनुष्य सस्य आदि को जलाकर (पकाकर) उसका सार ग्रहण करते हैं तथा जैसे जठरानल नाना प्रकार के भक्ष्य, भोज्य आदि पदार्थों को भारी मात्रा में ग्रहण करके उसे जलाकर सारतर वस्तु ग्रहण करता और उस सारतर वस्तु से स्वदेह का पोषण करता है, उसी प्रकार प्रपंचकर्ता परमेश्वर शिव ने भी अपने में आधेय रूप से विद्यमान प्रपंच को जलाकर भस्मरूप से उसके सारतत्त्व को ग्रहण किया है । प्रपंच को दग्ध करके शिव ने उसके भस्म को अपने शरीर में लगाया है । उन्होंने विभूति (भस्म) पोतने के बहाने जगत् के सार को ही ग्रहण किया है ॥ ६६-७० ॥ शिव ने अपने शरीर में अपने लिये रत्नस्वरूप भस्म को इस प्रकार स्थापित किया है — आकाश के सारतत्त्व से केश, वायु के सारतत्त्व से मुख, अग्नि के सारतत्त्व से हृदय, जल के सारतत्त्व से कटिभाग और पृथ्वी के सारतत्त्व से घुटने को धारण किया है । इसी तरह उनके सारे अंग विभिन्न वस्तुओं के साररूप हैं ॥ ७१-७२ ॥ महेश्वर ने अपने ललाट के मध्य में तिलकरूप से जो त्रिपुण्ड्र धारण किया है, वह ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र का सारतत्त्व है । वे इन सब वस्तुओं को जगत् के अभ्युदय का हेतु मानते हैं । इन भगवान् शिव ने ही प्रपंच के सार-सर्वस्व को अपने वश में किया है । अतः इन्हें अपने वश में करनेवाला दूसरा कोई नहीं है, इसीलिये वे शिव कहे जाते हैं । जैसे समस्त मृगों का हिंसक मृग (पशु) सिंह कहलाता है और उसकी हिंसा करनेवाला दूसरा कोई मृग नहीं है, अतएव उसे सिंह कहा गया है ॥ ७३-७५१/२ ॥ श-कार का अर्थ है नित्यसुख एवं आनन्द । इ-कार को पुरुष और व-कार को अमृतस्वरूपा शक्ति कहा गया है । इन सबका सम्मिलित रूप ही शिव कहलाता है । अतः इस रूप में भगवान् शिव को अपनी आत्मा मानकर उनकी पूजा करनी चाहिये । [साधक] पहले अपने अंगों में भस्म लगाये, फिर ललाट में उत्तम त्रिपुण्ड्र धारण करे । पूजाकाल में सजल भस्म का उपयोग होता है और द्रव्यशुद्धि के लिये निर्जल भस्म का ॥ ७६-७८ ॥ दिन हो अथवा रात्रि, नारी हो या पुरुष, पूजा करने के लिये उसे भस्म जलसहित ही त्रिपुण्ड्ररूप में (ललाटपर) धारण करना चाहिये । जलमिश्रित भस्म को त्रिपुण्ड्ररूप में धारणकर जो व्यक्ति शिव की पूजा करता है, उसे सांग शिव की पूजा का फल तुरंत प्राप्त होता है, यह सुनिश्चित है । जो (प्राणी) शिवमन्त्र के द्वारा भस्म को धारण करता है, वह सभी (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास) आश्रमों में श्रेष्ठ होता है । उसे शिवाश्रमी कहा जाता है; क्योंकि वह एकमात्र शिव को ही परम श्रेष्ठ मानता है । शिव-व्रत में एकमात्र शिव में ही निष्ठा रखनेवाले को न तो अशौच का दोष लगता है और न तो सूतक का । ललाट के अग्रभाग में अपने हाथ से या गुरु के हाथ से श्वेत भस्म या मिट्टी से तिलक लगाना चाहिये, यह शिवभक्त का लक्षण है ॥ ७९-८२१/२ ॥ जो गुणों का रोध करता है, वह गुरु है — यह ‘गुरु’ शब्द का विग्रह कहा गया है । गुणातीत परम शिव राजस आदि सविकार गुणों का अवरोध करते हैं — दूर हटाते हैं, इसलिये वे सबके गुरुरूप का आश्रय लेकर स्थित हैं । गुरु विश्वासी शिष्यों के तीनों गुणों को पहले दूर करके उन्हें शिवतत्त्व का बोध कराते हैं, इसीलिये गुरु कहलाते हैं ॥ ८३-८५ ॥ अतः बुद्धिमान् शिष्य को उन गुरु के शरीर को गुरुलिंग समझना चाहिये । गुरुजी की सेवा-शुश्रूषा ही गुरुलिंग की पूजा होती है । शरीर, मन और वाणी से की गयी गुरुसेवा से शास्त्रज्ञान प्राप्त होता है । अपनी शक्ति से शक्य अथवा अशक्य जिस बात का भी आदेश गुरु ने दिया हो, उसका पालन प्राण और धन लगाकर पवित्रात्मा शिष्य करता है, इसीलिये इस प्रकार अनुशासित रहनेवाले को शिष्य कहा जाता है ॥ ८६-८८ ॥ सुशील शिष्य को शरीर-धारण के सभी साधन गुरु को अर्पित करके तथा अन्न का पहला पाक उन्हें समर्पित करके उनकी आज्ञा लेकर भोजन करना चाहिये । शिष्य को निरन्तर गुरु के सान्निध्य के कारण पुत्र कहा जाता है । जिह्वारूप लिंग से मन्त्ररूपी शुक्र का कानरूपी योनि में आधान करके जो पुत्र उत्पन्न होता है, उसे मन्त्रपुत्र कहते हैं । उसे अपने पितास्वरूप गुरु की सेवा करनी ही चाहिये । शरीर को उत्पन्न करनेवाला पिता तो संसारप्रपंच में पुत्र को डुबोता है । ज्ञान देनेवाला गुरुरूप पिता संसारसागर से पार कर देता है । इन दोनों पिताओं के अन्तर को जानकर गुरुरूप पिता की अपने कमाये धन से तथा अपने शरीर से विशेष सेवा-पूजा करनी चाहिये । पैर से केशपर्यन्त जो गुरु के शरीर के अंग हैं, उनकी भिन्न-भिन्न प्रकार से यथा-स्वयं अर्जित धन के द्वारा उपयोग की सामग्री प्राप्त कराकर, अपने हाथों से पैर दबाकर, स्नान-अभिषेक आदि कराकर तथा नैवेद्य-भोजनादि देकर पूजा करनी चाहिये ॥ ८९-९४ ॥ गुरु की पूजा ही परमात्मा शिव की पूजा है । गुरु के उपयोग से बचा हुआ सारा पदार्थ आत्मशुद्धि करनेवाला होता है ॥ ९५ ॥ हे द्विजो ! गुरु का शेष, जल तथा अन्न आदि से बना हुआ शिवोच्छिष्ट शिवभक्तों और शिष्यों के लिये ग्राह्य तथा भोज्य है । गुरु की आज्ञा के बिना उपयोग में लाया हुआ सब कुछ वैसा ही है, जैसे चोर चोरी करके लायी हुई वस्तु का उपयोग करता है । गुरु से भी विशेष ज्ञानवान् पुरुष मिल जाय, तो उसे भी यत्नपूर्वक गुरु बना लेना चाहिये । अज्ञानरूपी बन्धन से छूटना ही जीवमात्र के लिये साध्य पुरुषार्थ है । अतः जो विशेष ज्ञानवान् है, वही जीव को उस बन्धन से छुड़ा सकता है ॥ ९६-९७१/२ ॥ कर्म की सांगोपांग पूर्ति के लिये पहले विघ्नशान्ति करनी चाहिये । निर्विघ्नतापूर्वक तथा सांग सम्पन्न हुआ कार्य ही सफल होता है । इसलिये सभी कर्मों के प्रारम्भ में बुद्धिमान् व्यक्ति को विघ्नविनाशक गणपति का पूजन करना चाहिये । सभी बाधाओं को दूर करने के लिये विद्वान् व्यक्ति को सभी देवताओं की पूजा करनी चाहिये ॥ ९८-९९१/२ ॥ ज्वर आदि ग्रन्थिरोग आध्यात्मिक बाधा कही जाती है । पिशाच और सियार आदि का दीखना, बाँबी का जमीन पर उठ आना, अकस्मात् छिपकली आदि जन्तुओं का गिरना, घर में कच्छप, साँप, दुष्ट स्त्री का दीखना, वृक्ष, नारी और गौ आदि की प्रसूति का दर्शन होना आगामी दुःख का संकेत होता है । अतः यह आधिभौतिक बाधा मानी जाती है । किसी अपवित्र वस्तु का गिरना, बिजली गिरना, महामारी, ज्वरमारी, हैजा, गोमारी, मसूरि का (एक प्रकार का शीतला रोग), जन्मनक्षत्र पर ग्रहण, संक्रान्ति, अपनी राशि में अनेक ग्रहों का योग होना तथा दुःस्वप्नदर्शन आदि आधिदैविक बाधा कही जाती है ॥ १००-१०४१/२ ॥ शव, चाण्डाल और पतित का स्पर्श अथवा इनका घर के भीतर आना भावी दुःख का सूचक होता है । बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिये कि उस दोष की शान्ति के लिये शान्तियज्ञ करे । किसी मन्दिर, गोशाला, यज्ञशाला अथवा घर के आँगन में जहाँ दो हाथ पर ऊँची जमीन हो, उसे अच्छी तरह साफ करके उसपर एक भार धान रखकर उसे फैला दे । उसके बीच में कमल बनाये तथा कोणसहित आठों दिशाओं में भी कमल बना दे । फिर प्रधान कलश में सूत्र बाँधकर तथा गुग्गुल की धूप दिखाकर उसे बीच में तथा दिशाओं में बनाये गये कमलों पर अन्य आठ कलश स्थापित कर दे ॥ १०५-१०९ ॥ आठ कलशों में कमल, आम्रपल्लव, कुशा डालकर [गन्ध आदि] पंचद्रव्यों से युक्त मन्त्रपूत जल से उन्हें भरे । उन समस्त कलशों में नीलम आदि नवरत्नों को क्रमशः डालना चाहिये । तत्पश्चात् बुद्धिमान् यजमान कर्मकाण्ड को जाननेवाले सपत्नीक आचार्य का वरण करे । भगवान् विष्णु की स्वर्णप्रतिमा तथा इन्द्रादि देवताओं की भी प्रतिमाएँ बनाकर उन कलशों में छोड़े । पूर्णपात्र से ढके मध्यकलश पर भगवान् विष्णु का आवाहन करके उनकी पूजा करे । पूर्व दिशा से प्रारम्भ करके सभी दिशाओं में मन्त्रानुसार इन्द्रादि का क्रमशः पूजन करना चाहिये । उनके नामों में चतुर्थी विभक्तिसहित नमः का प्रयोग करते हुए उनका पूजन करना चाहिये ॥ ११०-११३ ॥ आवाहनादि सारे कार्य आचार्य द्वारा सम्पन्न कराये तथा आचार्य और ऋत्विजों सहित उन देवताओं के मन्त्रों को सौ-सौ बार जपे । कलशों की पश्चिम दिशा में जप के बाद होम करना चाहिये । हे विद्वज्जनो ! वह जपहोम करोड, लाख, हजार अथवा १०८ की संख्या में हो सकता है । इस विधि से एक दिन, नौ दिन अथवा चालीस दिनों में देश-काल की व्यवस्था के अनुसार [शान्तियज्ञ] यथोचित रूप में सम्पन्न करे ॥ ११४-११६ ॥ शान्ति के लिये शमी तथा वृत्ति (रोजगार)-के लिये पलाश की समिधा से, अन्न, घृत तथा [सुगन्धित] द्रव्यों से उन देवताओं के नाम अथवा मन्त्रों से हवन करना चाहिये । प्रारम्भ में जिस द्रव्य का उपयोग किया हो, अन्त तक उसी का प्रयोग करते रहना चाहिये । अन्तिम दिन पुण्याहवाचन कराकर कलशों के जल से प्रोक्षण करना चाहिये । तत्पश्चात् आहुति की संख्या के बराबर ब्राह्मणों को भोजन कराये । हे विद्वानो ! आचार्य और ऋत्विजों को हविष्य का भोजन कराना चाहिये ॥ ११७-११९ ॥ सूर्य आदि नवग्रहों का होम के अन्त में पूजन करना चाहिये । ऋत्विजों को क्रमानुसार नवरत्नों की दक्षिणा देनी चाहिये । तत्पश्चात् दश दान करे और उसके बाद भूयसीदान करना चाहिये । बालक, यज्ञोपवीती, गृहस्थाश्रमी और वानप्रस्थियों को धन का दान करना चाहिये । तत्पश्चात् कन्या, सधवा और विधवा स्त्रियों को देने के अनन्तर बची हुई तथा यज्ञ में बची हुई सारी सामग्री आचार्य को समर्पित कर देनी चाहिये ॥ १२०-१२२ ॥ उत्पात, महामारी और दुःखों के स्वामी यमराज माने जाते हैं । इसलिये यमराज की प्रसन्नता के लिये कालप्रतिमा का दान करना चाहिये । सौ निष्क या दस निष्क के परिमाण की पाश और अंकुश धारण की हुई पुरुष के आकार की स्वर्णप्रतिमा बनाये । उस स्वर्णप्रतिमा का दक्षिणासहित दान करना चाहिये । उसके बाद पूर्णायु प्राप्त करनेहेतु तिल का दान करना चाहिये । रोगनिवारण के लिये घृत में अपनी परछाईं देखकर दान करना चाहिये । हजार ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये, धनाभाव में सौ अथवा यथाशक्ति ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये ॥ १२३-१२६१/२ ॥ भूत आदि की शान्ति के लिये भैरव की महापूजा करे । अन्त में भगवान् शिव का महाभिषेक और नैवेद्य समर्पित करके ब्राह्मणों को भूरिभोजन कराना चाहिये ॥ १२७-१२८ ॥ इस प्रकार यज्ञ सम्पन्न करने से दोषों की शान्ति हो जाती है । इस शान्तियज्ञ का प्रतिवर्ष फाल्गुनमास में आयोजन करना चाहिये । अशुभ दर्शन होने पर तुरंत अथवा एक महीने के भीतर यज्ञ का आयोजन करना चाहिये । महापाप हो जाय, तो भैरव की पूजा करनी चाहिये । महाव्याधि हो जाय, तो यज्ञ का पुनः संकल्प लेकर उसे सम्पन्न करना चाहिये । अकिंचन दरिद्र व्यक्ति तो केवल दीपदान कर दे । उतना भी न हो सके, तो स्नान करके कुछ दान कर दे । एक सौ आठ, एक हजार, दस हजार, एक लाख या एक करोड़ मन्त्रों से भगवान् सूर्य को नमस्कार करे । इस नमस्कारात्मक यज्ञ से सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं ॥ १२९-१३३ ॥ भगवान् शिव की इस प्रकार प्रार्थना करे — ‘मेरी बुद्धि आपके ज्योतिर्मय पूर्णस्वरूप में लगी है । मुझमें जो अहंता थी, वह आपके दर्शन से नष्ट हो गयी है । मैं अपनी देह से आपको प्रणाम करता हूँ । हे प्रभो ! आप महान् हैं । आप पूर्ण हैं और मेरा स्वरूप भी आप ही हैं, तो भी इस समय मैं आपका दास हूँ ।’* इस प्रकार यथायोग्य नमस्कारपूर्वक स्वात्मयज्ञ करना चाहिये । तत्पश्चात् भगवान् शिव को नैवेद्य देकर ताम्बूल समर्पित करना चाहिये ॥ १३४-१३६ ॥ तब स्वयं १०८ बार शिव की प्रदक्षिणा करनी चाहिये । एक हजार, दस हजार, एक लाख या करोड़ प्रदक्षिणा दूसरों के द्वारा करायी जा सकती है । शिव की प्रदक्षिणा से सारे पापों का तत्क्षण नाश हो जाता है । दु:ख का मूल व्याधि है और व्याधि का मूल पाप में होता है । धर्माचरण से ही पापों का नाश बताया गया है । भगवान् शिव के उद्देश्य से किया गया धर्माचरण पापों का नाश करने में समर्थ होता है ॥ १३७–१३९ ॥ शिव के धर्मों में प्रदक्षिणा को प्रधान कहा गया है । क्रिया से जपरूप होकर प्रणव ही प्रदक्षिणा बन जाता है । जन्म और मरण का द्वन्द्व ही मायाचक्र कहा गया है । शिव का मायाचक्र ही बलिपीठ कहलाता है । बलिपीठ से आरम्भ करके प्रदक्षिणा के क्रम से एक पैर के पीछे दूसरा पैर रखते हुए बलिपीठ में पुनः प्रवेश करना चाहिये । तत्पश्चात् नमस्कार करना चाहिये । इसे प्रदक्षिणा कहा जाता है । बलिपीठ से बाहर निकलना जन्म प्राप्त होना और नमस्कार करना ही आत्मसमर्पण है ॥ १४०-१४३ ॥ जन्म और मरणरूप द्वन्द्व भगवान् शिव की माया से प्राप्त है । जो इन दोनों को शिव की माया को ही अर्पित कर देता है, वह फिर शरीर के बन्धन में नहीं पड़ता । जबतक शरीर रहता है, तबतक जो क्रिया के ही अधीन है, वह जीव बद्ध कहलाता है । स्थूल, सूक्ष्म और कारण — तीनों शरीरों को वश में कर लेने पर जीव का मोक्ष हो जाता है, ऐसा ज्ञानी पुरुषों का कथन है । मायाचक्र के निर्माता भगवान् शिव ही परम कारण हैं । वे अपनी माया के दिये हुए द्वन्द्व का स्वयं ही परिमार्जन करते हैं । अतः शिव के द्वारा कल्पित हुआ द्वन्द्व उन्हीं को समर्पित कर देना चाहिये ॥ १४४-१४६१/२ ॥ हे विद्वानो ! प्रदक्षिणा और नमस्कार शिव को अतिप्रिय हैं, ऐसा जानना चाहिये । भगवान् शिव की प्रदक्षिणा, नमस्कार और षोडशोपचार पूजन अत्यन्त फलदायी होता है । ऐसा कोई पाप इस पृथ्वी पर नहीं है, जो शिवप्रदक्षिणा से नष्ट न हो सके । इसलिये प्रदक्षिणा का आश्रय लेकर सभी पापों का नाश कर लेना चाहिये ॥ १४७-१४९ ॥ जो शिव की पूजा में तत्पर हो, वह मौन रहे, सत्य आदि गुणों से संयुक्त हो तथा क्रिया, जप, तप, ज्ञान और ध्यान में से एक-एक का अनुष्ठान करता रहे । ऐश्वर्य, दिव्य शरीर की प्राप्ति, ज्ञान का उदय, अज्ञान का निवारण और भगवान् शिव के सामीप्य का लाभ — ये क्रमशः क्रिया आदि के फल हैं । निष्काम कर्म करने से अज्ञान का निवारण हो जाने के कारण शिवभक्त पुरुष उसके यथोक्त फल को पाता है । शिवभक्त पुरुष देश, काल, शरीर और धन के अनुसार यथायोग्य क्रिया आदि का अनुष्ठान करे ॥ १५०-१५३ ॥ न्यायोपार्जित उत्तम धन से निर्वाह करते हुए विद्वान् पुरुष शिव के स्थान में निवास करे । जीवहिंसा आदि से रहित और अत्यन्त क्लेशशून्य जीवन बिताते हुए पंचाक्षर-मन्त्र के जप से अभिमन्त्रित अन्न और जल को सुखस्वरूप माना गया है अथवा यह भी कहते हैं कि दरिद्र पुरुष के लिये भिक्षा से प्राप्त हुआ अन्न ज्ञान देनेवाला होता है, शिवभक्त को भिक्षान्न प्राप्त हो, तो वह शिवभक्ति को बढ़ानेवाला होता है । शिवयोगी पुरुष भिक्षान्न को शम्भुसत्र कहते हैं । जिस किसी भी उपाय से जहाँ-कहीं भी भूतल पर शुद्ध अन्न का भोजन करते हुए सदा मौनभाव से रहे और अपने साधन का रहस्य किसी पर प्रकट न करे । भक्तों के समक्ष ही शिव के माहात्म्य को प्रकाशित करे । शिवमन्त्र के रहस्य को भगवान् शिव ही जानते हैं, दूसरा कोई नहीं जान पाता ॥ १५४-१५८ ॥ शिवभक्त को सदा शिवलिंग के आश्रित होकर वास करना चाहिये । हे ब्राह्मणो ! शिवलिंगाश्रय के प्रभाव से वह भक्त भी शिवरूप ही हो जाता है । चरलिंग की पूजा करने से वह क्रमशः अवश्य ही मुक्त हो जाता है । महर्षि व्यास ने पूर्वकाल में जो कहा था और मैंने जैसा सुना था, उस सब साध्य और साधन का संक्षेप में मैंने वर्णन कर दिया । आप सबका कल्याण हो और भगवान् शिव में आपकी दृढ़ भक्ति बनी रहे । जो मनुष्य इस अध्याय का पाठ करता है अथवा जो इसे सुनता है, हे विज्ञजनो ! वह भगवान् शिव की कृपा से शिवज्ञान को प्राप्त कर लेता है ॥ १५९-१६२ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत प्रथम विद्येश्वरसंहिता के साध्यसाधनखण्ड में शिवलिङ्ग के माहात्म्य का वर्णन नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥ * त्वत्स्वरूपेर्पिता बुद्धिर्नतेऽशून्ये च रोचति । या चास्त्यस्मदहंतेति त्वयि दृष्टे विवर्जिता ॥ १३४ ॥ नम्रोऽहं हि स्वदेहेन भो महांस्त्वमसि प्रभो । न शून्यो मत्स्वरूपो वै तव दासोऽस्मि सांप्रतम् ॥ १३५ ॥ Please follow and like us: Related