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शिवमहापुराण – प्रथम विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 02
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
दूसरा अध्याय
शिवपुराण का माहात्म्य एवं परिचय

सूतजी बोले — हे साधु-महात्माओ ! आप सबने तीनों लोकों का हित करनेवाली अच्छी बात पूछी है । मैं गुरुदेव व्यासजी का स्मरण करके आप लोगों के स्नेहवश इस विषय का वर्णन करूँगा, आपलोग आदरपूर्वक सुनें ॥ १ ॥ सबसे उत्तम जो शिवपुराण है, वह वेदान्त का सार-सर्वस्व है तथा वक्ता और श्रोता का समस्त पापराशियों से उद्धार करनेवाला है; [इतना ही नहीं] वह परलोक में परमार्थ वस्तु को देनेवाला है । कलि की कल्मषराशि का वह विनाशक है । उसमें भगवान् शिव के उत्तम यश का वर्णन है । हे ब्राह्मणो ! धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष — इन चारों पुरुषार्थों को देनेवाला वह पुराण सदा ही अपने प्रभाव से विस्तार को प्राप्त हो रहा है ॥ २-३ ॥

शिवमहापुराण

हे विप्रवरो ! उस सर्वोत्तम शिवपुराण के अध्ययनमात्र से वे कलियुग के पापासक्त जीव श्रेष्ठतम गति को प्राप्त हो जायँगे ॥ ४ ॥ अहो ! ब्रह्महत्या आदि महान् पाप तभी तक रहेंगे अर्थात् अपने फल को देने में समर्थ होंगे, जबतक जगत् में शिवपुराण का उदय नहीं होगा । [आशय यह है कि शिवपुराण सुनने के बाद अन्त:करण शिवभक्तिपरायण होकर अतिशय स्वच्छ हो जायगा । अतः किसी भी पापकर्म में मानव की प्रवृत्ति ही नहीं होगी, तब ब्रह्महत्या आदि भयंकर पाप न होने के कारण उस पाप के फलभोग की सम्भावना ही नहीं है] ॥ ५ ॥ कलियुग के महान् उत्पात तभी तक निर्भय होकर विचरेंगे, जब तक यहाँ जगत् में शिवपुराण का उदय नहीं होगा ॥ ६ ॥ सभी शास्त्र परस्पर तभी तक विवाद करेंगे, जबतक जगत् में शिवपुराण का उदय नहीं होगा [अर्थात् शिवपुराण के आ जाने पर किसी प्रकार का विवाद ही नहीं रह जायगा । सभी प्रकार से भुक्ति-मुक्तिप्रदाता यही रहेगा] ॥ ७ ॥

अहो ! महान् व्यक्तियों के लिये भी तभी तक शिव का स्वरूप दुर्बोध्य रहेगा, जबतक इस जगत् में शिवपुराण का उदय नहीं होगा ॥ ८ ॥ अहो ! क्रूर यमदूत तभी तक निर्भय होकर पृथ्वी पर घूमेंगे, जब तक जगत् में शिवपुराण का उदय नहीं होगा ॥ ९ ॥ सभी पुराण पृथिवी पर गर्जन तभी तक करेंगे, जब तक शिवपुराण का जगत् में उदय नहीं होगा ॥ १० ॥ इस पृथिवी पर तीर्थों का विवाद तभी तक रहेगा, जब तक इस जगत् में शिवपुराण का उदय नहीं होगा । [आशय यह है कि मुक्ति प्राप्त्यर्थ एवं पाप के नाश के लिये मानव विभिन्न तीर्थों का सेवन करेंगे, किंतु शिवपुराण के आने के बाद सभी लोग सभी पापों के नाश के लिये शिवपुराण का ही सेवन करेंगे]। सभी मन्त्र पृथ्वी पर तभी तक आनन्दपूर्वक विवाद करेंगे, जब तक पृथ्वी पर शिवपुराण का उदय नहीं होगा ॥ ११-१२ ॥

सभी क्षेत्र तभी तक पृथ्वी पर विवाद करेंगे, जब तक पृथ्वी पर शिवपुराण का उदय नहीं होगा ॥ १३ ॥ सभी पीठ तभी तक पृथ्वी पर विवाद करेंगे, जब तक पृथ्वी पर शिवपुराण का उदय नहीं होगा ॥ १४ ॥ सभी दान पृथ्वी पर तभी तक विवाद करेंगे, जबतक शिवपुराण का पृथ्वी पर उदय नहीं होगा ॥ १५ ॥ सभी देवगण तभीतक पृथ्वीपर विवाद करेंगे, जबतक शिवपुराण का पृथ्वीपर उदय नहीं होगा ॥ १६ ॥ सभी सिद्धान्त तभी तक पृथ्वीपर विवाद करेंगे, जबतक शिवपुराण का पृथ्वी पर उदय नहीं होगा ॥ १७ ॥

हे विप्रो ! हे श्रेष्ठ मुनिगण ! इस शिवपुराण के कीर्तन करने और सुनने से जो-जो फल होते हैं, उन फलों को मैं सम्पूर्ण रूपसे नहीं कह सकता हूँ, [अर्थात् शब्दों के द्वारा इसके सभी फलों को नहीं कहा जा सकता है] ॥ १८ ॥ हे निष्पाप मुनिगण ! तथापि शिवपुराण का कुछ माहात्म्य आप लोगों से कहता हूँ, जो व्यासजी ने पहले मुझसे कहा था, आपलोग चित्त लगाकर ध्यानपूर्वक सुनें ॥ १९ ॥ जो भक्तिपूर्वक इस शिवपुराणका एक श्लोक या आधा श्लोक भी पढ़ता है, वह उसी क्षण पाप से छुटकारा पा जाता है ॥ २० ॥ जो आलस्यरहित होकर प्रतिदिन भक्तिपूर्वक इस शिवपुराण का यथाशक्ति पाठ करता है, वह जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ २१ ॥ जो इस शिवपुराण की सदा पूजा करता है, वह निःसन्देह प्रतिदिन अश्वमेधयज्ञ का फल प्राप्त करता है ॥ २२ ॥

जो व्यक्ति साधारण पद की प्राप्ति की इच्छा से इस शिवपुराण को मुझसे अथवा अन्य किसी से सुनता है, वह भी पातकों से मुक्त हो जाता है ॥ २३ ॥ जो इस शिवपुराण को समीप से प्रणाम करता है, वह सभी देवों की पूजा का फल प्राप्त करता है; इसमें संशय नहीं है ॥ २४ ॥ जो इस शिवपुराण को स्वयं लिखकर शिवभक्तों को दान करता है, उसके पुण्यफल को सुनें ॥ २५ ॥

शास्त्रों का अध्ययन करने और वेदों का पाठ करने से जो दुर्लभ फल प्राप्त होता है, वह फल उसको प्राप्त होता है । जो चतुर्दशी तिथि के दिन उपवास करके इस शिवपुराण का शिवभक्तों के समाज में पाठ करता है – वह श्रेष्ठ पुरुष है । वह व्यक्ति शिवपुराण के प्रत्येक अक्षर की संख्या के अनुरूप गायत्री के पुरश्चरण का फल प्राप्त करता है और इस लोक में सभी अभीष्ट सुखों को भोगकर अन्त में मोक्ष प्राप्त करता है ॥ २७-२८ ॥ जो चतुर्दशी की रात में उपवासपूर्वक जागरण करके शिवपुराण का पाठ करता है या इसे सुनता है, उसका पुण्य-फल मैं कहता हूँ ॥ २९ ॥ कुरुक्षेत्र आदि सभी तीर्थों में, पूर्ण सूर्यग्रहण में अपनी शक्ति के अनुसार विप्रों को और मुख्य कथावाचकों को धन देने से जो फल प्राप्त होता है, वही फल उस व्यक्ति को प्राप्त होता है, यह सत्य है, सत्य है; इसमें कोई संदेह नहीं है ॥ ३०-३१ ॥

जो व्यक्ति इस शिवपुराण का दिन-रात गान करता है, इन्द्र आदि देवगण उसकी आज्ञा की प्रतीक्षा करते रहते हैं ॥ ३२ ॥ इस शिवपुराण का पाठ करनेवाला और सुननेवाला व्यक्ति जो-जो श्रेष्ठ कर्म करता है, वह कोटिगुना हो जाता है [अर्थात् कोटिगुना फल देता है] ॥ ३३ ॥ जो भलीभाँति ध्यानपूर्वक उसमें भी श्रीरुद्रसंहिता का पाठ करता है, वह यदि ब्रह्मघाती भी हो तो तीन दिनों में पवित्रात्मा हो जाता है ॥ ३४ ॥

जो भैरव की मूर्ति के पास मौन धारणकर श्रीरुद्रसंहिता का प्रतिदिन तीन बार पाठ करता है, वह सभी कामनाओं को प्राप्त कर लेता है ॥ ३५ ॥ जो व्यक्ति वट और बिल्ववृक्ष की प्रदक्षिणा करते हुए उस रुद्रसंहिता का पाठ करता है, वह ब्रह्महत्या के दोष से भी छुटकारा पा जाता है ॥ ३६ ॥ प्रणव के अर्थ को प्रकाशित करनेवाली ब्रह्मरूपिणी साक्षात् कैलाससंहिता रुद्रसंहिता से भी श्रेष्ठ कही गयी है ॥ ३७ ॥ हे द्विजो ! कैलाससंहिता का सम्पूर्ण माहात्म्य तो शंकरजी ही जानते हैं, उससे आधा माहात्म्य व्यासजी जानते हैं और उसका भी आधा मैं जानता हूँ ॥ ३८ ॥

उसके सम्पूर्ण माहात्म्य का वर्णन तो मैं नहीं कर सकता, कुछ ही अंश कहूँगा, जिसको जानकर उसी क्षण चित्त की शुद्धि प्राप्त हो जायगी ॥ ३९ ॥ हे द्विजो ! लोक में ढूँढ़ने पर भी मैंने ऐसे किसी पाप को नहीं देखा, जिसे वह रुद्रसंहिता नष्ट न कर सके ॥ ४० ॥ उपनिषद्रूपी सागर का मन्थन करके शिव ने आनन्दपूर्वक इस रुद्रसंहितारूपी अमृत को उत्पन्न किया और कुमार कार्तिकेय को समर्पित किया; जिसे पीकर मानव अमर हो जाता है ॥ ४१ ॥ ब्रह्महत्या आदि पापों की निष्कृति करने के लिये तत्पर मनुष्य महीनेभर रुद्रसंहिता का पाठ करके उन पापों से मुक्त हो जाता है ॥ ४२ ॥

दुष्प्रतिग्रह, दुर्भोज्य, दुरालाप से जो पाप होता है; वह इस रौद्रीसंहिता का एक बार कीर्तन करने से नष्ट हो जाता है ॥ ४३ ॥ जो व्यक्ति शिवालय में अथवा बेल के वन में इस संहिता का पाठ करता है, वह उससे जो फल प्राप्त करता है, उसका वर्णन वाणी से नहीं किया जा सकता ॥ ४४ ॥ जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक इस संहिता का पाठ करते हुए श्राद्ध के समय ब्राह्मणों को भोजन कराता है, उसके सभी पितर शम्भु के परम पद को प्राप्त करते हैं ॥ ४५ ॥ चतुर्दशी के दिन निराहार रहकर जो बेल के वृक्ष के नीचे इस संहिता का पाठ करता है, वह साक्षात् शिव होकर सभी देवों से पूजित होता है ॥ ४६ ॥

उसमें अन्य संहिताएँ सभी कामनाओं के फल को पूर्ण करनेवाली हैं, किंतु लीला और विज्ञान से परिपूर्ण इन दोनों संहिताओं को विशिष्ट समझना चाहिये ॥ ४७ ॥ इस शिवपुराण को वेद के तुल्य माना गया है । इस वेदकल्प पुराण का सबसे पहले भगवान् शिव ने ही प्रणयन किया था ॥ ४८ ॥ विद्येश्वरसंहिता, रुद्रसंहिता, विनायकसंहिता, उमासंहिता, मातृसंहिता, एकादशरुद्रसंहिता, कैलाससंहिता, शतरुद्रसंहिता, कोटिरुद्रसंहिता, सहस्रकोटिरुद्रसंहिता, वायवीयसंहिता तथा धर्मसंहिता — इस प्रकार इस पुराण के बारह भेद हैं ॥ ४९-५० ॥

ये बारहों संहिताएँ अत्यन्त पुण्यमयी मानी गयी हैं । ब्राह्मणो ! अब मैं उनके श्लोकों की संख्या बता रहा हूँ । आपलोग वह सब आदरपूर्वक सुनें । विद्येश्वरसंहिता में दस हजार श्लोक हैं । रुद्रसंहिता, विनायकसंहिता, उमासंहिता और मातृसंहिता — इनमें से प्रत्येक में आठ-आठ हजार श्लोक हैं ॥ ५१-५२ ॥ हे ब्राह्मणो ! एकादशरुद्रसंहिता में तेरह हजार, कैलाससंहिता में छ: हजार, शतरुद्रसंहिता में तीन हजार, कोटिरुद्रसंहिता में नौ हजार, सहस्रकोटिरुद्रसंहिता में ग्यारह हजार, वायवीयसंहिता में चार हजार तथा धर्मसंहिता में बारह हजार श्लोक हैं । इस प्रकार संख्या के अनुसार मूल शिवपुराण की श्लोकसंख्या एक लाख है ॥ ५३-५५ ॥ परंतु व्यासजी ने उसे चौबीस हजार श्लोकों में संक्षिप्त कर दिया है । पुराणों की क्रमसंख्या के विचार से इस शिवपुराण का स्थान चौथा है; इसमें सात संहिताएँ हैं ॥ ५६ ॥

पूर्वकाल में भगवान् शिव ने श्लोकसंख्या की दृष्टि से सौ करोड़ श्लोकों का एक ही पुराण ग्रन्थ बनाया था । सृष्टि के आदि में निर्मित हुआ वह पुराणसाहित्य अत्यन्त विस्तृत था ॥ ५७ ॥ तत्पश्चात् द्वापर आदि युगों में द्वैपायन व्यास आदि महर्षियों ने जब पुराण का अठारह भागों में विभाजन कर दिया, उस समय सम्पूर्ण पुराणों का संक्षिप्त स्वरूप केवल चार लाख श्लोकों का रह गया ॥ ५८ ॥ श्लोकसंख्या के अनुसार यह शिवपुराण चौबीस हजार श्लोकोंवाला कहा गया है । यह वेदतुल्य पुराण सात संहिताओं में विभाजित है ॥ ५९ ॥ इसकी पहली संहिताका नाम विद्येश्वरसंहिता है, दूसरी रुद्रसंहिता समझनी चाहिये, तीसरी का नाम शतरुद्रसंहिता, चौथी का कोटिरुद्रसंहिता, पाँचवीं का नाम उमासंहिता, छठी का कैलाससंहिता और सातवीं का नाम वायवीयसंहिता है । इस प्रकार ये सात संहिताएँ मानी गयी हैं ॥ ६०-६१ ॥

इन सात संहिताओं से युक्त दिव्य शिवपुराण वेद के तुल्य प्रामाणिक तथा सबसे उत्कृष्ट गति प्रदान करनेवाला है ॥ ६२ ॥ सात संहिताओं से समन्वित इस सम्पूर्ण शिवपुराण को जो आद्योपान्त आदरपूर्वक पढ़ता है, वह जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ ६३ ॥ वेद, स्मृति, पुराण, इतिहास तथा सैकड़ों आगम इस शिवपुराण की अल्प कला के समान भी नहीं हैं ॥ ६४ ॥ यह निर्मल शिवपुराण भगवान् शिव के द्वारा ही प्रतिपादित है । शैवशिरोमणि भगवान् व्यास ने इसे संक्षेपकर संकलित किया है । यह समस्त जीवसमुदाय के लिये उपकारक, त्रिविध तापों का नाशक, तुलनारहित एवं सत्पुरुषों को कल्याण प्रदान करनेवाला है ॥ ६५ ॥

इसमें वेदान्त-विज्ञानमय, प्रधान तथा निष्कपट धर्म का प्रतिपादन किया गया है । यह पुराण ईर्ष्यारहित अन्तःकरणवाले विद्वानों के लिये जानने की वस्तु है, इसमें श्रेष्ठ मन्त्र-समूहों का संकलन है और यह धर्म, अर्थ तथा काम से समन्वित है अर्थात्-इस त्रिवर्ग की प्राप्ति के साधन का भी इसमें वर्णन है ॥ ६६ ॥ यह उत्तम शिवपुराण समस्त पुराणों में श्रेष्ठ है । वेद-वेदान्त में वेद्यरूप से विलसित परम वस्तु-परमात्माका इसमें गान किया गया है । जो बड़े आदर से इसे पढ़ता और सुनता है, वह भगवान् शिव का प्रिय होकर परम गति प्राप्त कर लेता है ॥ ६७ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत प्रथम विद्येश्वरसंहितामें मुनिप्रश्नोत्तर-वर्णन नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २ ॥

 

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