शिवमहापुराण – प्रथम विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 05
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
पाँचवाँ अध्याय
भगवान् शिव के लिंग एवं साकार विग्रह की पूजा के रहस्य तथा महत्त्व का वर्णन

सूतजी बोले — हे शौनक ! जो श्रवण, कीर्तन और मनन — इन तीनों साधनों के अनुष्ठान में समर्थ न हो, वह भगवान् शंकर के लिंग एवं मूर्ति की स्थापना कर नित्य उसकी पूजा करके संसारसागर से पार हो सकता है ॥ १ ॥ छल न करते हुए अपनी शक्ति के अनुसार धनराशि ले जाय और उसे शिवलिंग अथवा शिवमूर्ति की सेवा के लिये अर्पित कर दे, साथ ही निरन्तर उस लिंग एवं मूर्ति की पूजा भी करे ॥ २ ॥

शिवमहापुराण

उसके लिये भक्तिभाव से मण्डप, गोपुर, तीर्थ, मठ एवं क्षेत्र की स्थापना करे तथा उत्सव करे और वस्त्र, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप तथा मालपुआ आदि व्यंजनों से युक्त भाँति-भाँति के भक्ष्य-भोज्य अन्न नैवेद्य के रूप में समर्पित करे । छत्र, ध्वजा, व्यजन, चामर तथा अन्य अंगोंसहित राजोपचार की भाँति सब वस्तुएँ भगवान् शिव के लिंग एवं मूर्ति पर चढ़ाये । प्रदक्षिणा, नमस्कार तथा यथाशक्ति जप करे ॥ ३-५ ॥ आवाहन से लेकर विसर्जन तक सारा कार्य प्रतिदिन भक्तिभाव से सम्पन्न करे । इस प्रकार शिवलिंग अथवा शिवमूर्ति में भगवान् शंकर की पूजा करनेवाला पुरुष श्रवण आदि साधनों का अनुष्ठान न करे तो भी भगवान् शिव की प्रसन्नता से सिद्धि प्राप्त कर लेता है । पहले के बहुत से महात्मा पुरुष लिंग तथा शिवमूर्ति की पूजा करनेमात्र से भवबन्धन से मुक्त हो चुके हैं ॥ ६-७ ॥

ऋषिगण बोले — मूर्ति में ही सर्वत्र देवताओं की पूजा होती है, परंतु भगवान् शिव की पूजा सब जगह मूर्ति में और लिंग में भी क्यों की जाती है ? ॥ ८ ॥

सूतजी बोले — हे मुनीश्वरो ! आप लोगों का यह प्रश्न तो बड़ा ही पवित्र और अत्यन्त अद्भुत है । इस विषय में महादेवजी ही वक्ता हो सकते हैं; कोई पुरुष कभी और कहीं भी इसका यथार्थ प्रतिपादन नहीं कर सकता ॥ ९ ॥ इस विषय में भगवान् शिव ने जो कुछ कहा है और उसे मैंने गुरुजी के मुख से जिस प्रकार सुना है, उसी तरह क्रमशः वर्णन करूँगा । एकमात्र भगवान् शिव ही ब्रह्मरूप होने के कारण निष्कल (निराकार) कहे गये हैं ॥ १० ॥ रूपवान् होने के कारण उन्हें ‘सकल’ भी कहा गया है । इसलिये वे सकल और निष्कल दोनों हैं । शिव के निष्कल-निराकार होने के कारण ही उनकी पूजा का आधारभूत लिंग भी निराकार ही प्राप्त हुआ है अर्थात् शिवलिंग शिव के निराकार स्वरूप का प्रतीक है ॥ ११ ॥

इसी तरह शिव के सकल या साकार होने के कारण उनकी पूजा का आधारभूत विग्रह साकार प्राप्त होता है अर्थात् शिव का साकार विग्रह उनके साकार स्वरूप का प्रतीक होता है । सकल और अकल (समस्त अंग-आकार सहित साकार और अंग-आकार से सर्वथा रहित निराकार) — रूप होने से ही वे ‘ब्रह्म’ शब्द से कहे जानेवाले परमात्मा हैं ॥ १२ ॥ यही कारण है कि सब लोग लिंग (निराकार) और मूर्ति (साकार)—दोनों में ही सदा भगवान् शिव की पूजा करते हैं । शिव से भिन्न जो देवता हैं, वे साक्षात् ब्रह्म नहीं हैं, इसलिये कहीं भी उनके लिये निराकार लिंग नहीं उपलब्ध होता ॥ १३ ॥

अतः सुरेश्वर (इन्द्र, ब्रह्मा) आदि देवगण भी निष्कल लिंग में पूजित नहीं होते हैं, सभी देवगण ब्रह्म न होने से, अपितु सगुण जीव होने के कारण केवल मूर्ति में ही पूजे जाते हैं । शंकर के अतिरिक्त अन्य देवों का जीवत्व और सदाशिव का ब्रह्मत्व वेदों के सारभूत उपनिषदों से सिद्ध होता है । वहाँ प्रणव (ॐकार)-के तत्त्वरूप से भगवान् शिव का ही प्रतिपादन किया गया है ॥ १४-१५१/२ ॥ इसी प्रकार पूर्व में मन्दराचल पर्वत पर ज्ञानवान् ब्रह्मपुत्र सनत्कुमार मुनि ने नन्दिकेश्वर से प्रश्न किया था ॥ १६१/२ ॥

सनत्कुमार बोले — [हे भगवन् !] शिव के अतिरिक्त उनके वश में रहनेवाले जो अन्य देवता हैं, उन सबकी पूजा के लिये सर्वत्र प्रायः वेर (मूर्ति)-मात्र ही अधिक संख्या में देखा और सुना जाता है । केवल भगवान् शिव की ही पूजा में लिंग और वेर दोनों का उपयोग देखने में आता है । अतः हे कल्याणमय नन्दिकेश्वर ! इस विषय में जो तत्त्व की बात हो, उसे मुझे इस प्रकार बताइये, जिससे अच्छी तरह समझ में आ जाय ॥ १७-१८१/२ ॥

नन्दिकेश्वर बोले — हे निष्पाप ब्रह्मकुमार ! हम जैसे लोगों के द्वारा आपके इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता; क्योंकि यह गोपनीय विषय है और लिंग साक्षात् ब्रह्म का प्रतीक है । इस विषय में भगवान् शिव ने जो कुछ बताया है, उसे मैं आप शिवभक्त के समक्ष कहता हूँ । भगवान् शिव ब्रह्मस्वरूप और निष्कल (निराकार) हैं; इसलिये उन्हीं की पूजा में निष्कल लिंग का उपयोग होता है । सम्पूर्ण वेदों का यही मत है । वे ही सकल हैं । इस प्रकार वे निराकार तथा साकार दोनों हैं । भगवान् शंकर निष्कल-निराकार होते हुए भी कलाओं से युक्त हैं, इसलिये उनकी साकार रूप में प्रतिमापूजा भी लोकसम्मत है ॥ १९-२११/२ ॥

शंकर के अतिरिक्त अन्य देवताओं में जीवत्व तथा सगुणत्व होने के कारण वेद के मत में उनकी मूर्तिमात्र में ही पूजा मान्य है । इसी प्रकार उन देवताओं के आविर्भाव के समय उनका समग्र साकार रूप प्रकट होता है, जबकि भगवान् सदाशिव के दर्शन में साकार और निराकार (ज्योतिरूप) दोनों की ही प्राप्ति होती है ॥ २२-२३१/२ ॥

सनत्कुमार बोले — हे महाभाग ! आपने भगवान् शिव तथा दूसरे देवताओं के पूजन में लिंग और वेर के प्रचार का जो रहस्य विभागपूर्वक बताया है, वह यथार्थ है । इसलिये लिंग और वेर की आदि उत्पत्ति का जो उत्तम वृत्तान्त है, उसीको मैं इस समय सुनना चाहता हूँ । हे योगीन्द्र ! लिंग के प्राकट्य का रहस्य सूचित करनेवाला प्रसंग मुझे सुनाइये ॥ २४-२५१/२ ॥

नन्दिकेश्वर बोले — हे वत्स ! आपके प्रति प्रीति के कारण मैं यथार्थ रूप में वर्णन करता हूँ, सुनिये । लोकविख्यात पूर्वकल्प के बहुत दिन व्यतीत हो जाने पर एक समय महात्मा ब्रह्मा और विष्णु परस्पर लड़ने लगे ॥ २६-२७ ॥ उन दोनों के अभिमान को मिटाने के लिये [त्रिगुणातीत] परमेश्वर ने उनके मध्य में निष्कल स्तम्भ के रूप में अपना स्वरूप प्रकट किया ॥ २८ ॥ जगत् का कल्याण करने की इच्छा से उस स्तम्भ से निराकार परमेश्वर शिव ने अपने लिंग-चिह्न के कारण लिंग का आविर्भाव किया ॥ २९ ॥ उसी समय से लोक में परमेश्वर शंकर के निर्गुण लिंग और सगुण मूर्ति की पूजा प्रचलित हुई ॥ ३० ॥ शिव के अतिरिक्त अन्य देवों की मूर्तिमात्र की ही प्रकल्पना हुई । वे देव-प्रतिमाएँ पूजित हो नियत शुभ कल्याण को देनेवाली हुईं और शिव का लिंग तथा उनकी प्रतिमा दोनों ही भोग और मोक्ष को देनेवाली हुईं ॥ ३१ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत प्रथम विद्येश्वरसंहिता में शिवलिंग की महिमा का वर्णन नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥

 

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