शिवमहापुराण — वायवीयसंहिता [उत्तरखण्ड] — अध्याय 08
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
वायवीयसंहिता [उत्तरखण्ड] आठवाँ अध्याय
शिव-ज्ञान, शिवकी उपासनासे देवताओंको उनका दर्शन, सूर्यदेवमें शिवकी पूजा करके अर्घ्यदानकी विधि तथा व्यासावतारोंका वर्णन

श्रीकृष्ण बोले – भगवन्! अब मैं उस शिव-ज्ञानको सुनना चाहता हूँ, जो वेदोंका सारतत्त्व है तथा जिसे भगवान् शिवने अपने शरणागत भक्तोंकी मुक्तिके लिये कहा है ॥ १ ॥ वह भक्तिहीन, [निर्मल] बुद्धिसे रहित तथा चंचल चित्तवाले लोगोंके लिये अज्ञेय है; वह [ शिवके सर्गादि पंचकृत्यरूप] पाँच प्रयोजनोंसे युक्त, अतिगम्भीर तथा बुद्धिमानोंके द्वारा समादृत है, वर्णाश्रम धर्मोंसे कहीं विपरीत तथा कहीं उनके अनुकूल है और अंगोंसहित वेदोंसे एवं सांख्य तथा योगसे पूर्णतः ग्रहण करके सौ करोड़ श्लोकसंख्यामें विस्तारसे शिवजीके द्वारा कहा गया है। उसमें प्रभु शिवकी पूजा किस प्रकार बतायी गयी है? ॥ २–४ ॥ पूजा आदिमें किसका अधिकार है तथा ज्ञानयोग आदि कैसे सिद्ध होते हैं ? उत्तम व्रतका पालन करनेवाले मुनीश्वर ! ये सब बातें विस्तारपूर्वक बताइये ॥ ५ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


उपमन्युने कहा – भगवान् शिवने जिस वेदोक्त ज्ञानको संक्षिप्त करके कहा है, वही शैव – ज्ञान है । वह निन्दा – स्तुति आदिसे रहित तथा श्रवणमात्रसे ही अपने प्रति विश्वास उत्पन्न करनेवाला है ॥ ६ ॥ यह दिव्य ज्ञान गुरुकी कृपासे प्राप्त होता है और अनायास ही मोक्ष देनेवाला है । मैं उसे संक्षेपमें ही बताऊँगा; क्योंकि उसका विस्तारपूर्वक वर्णन कोई कर ही नहीं सकता है ॥ ७ ॥

पूर्वकालमें महेश्वर शिव सृष्टिकी इच्छा करके सत्कार्य-कारणोंसे नियुक्त हो स्वयं ही अव्यक्तसे व्यक्तरूपमें प्रकट हुए ॥ ८ ॥ उस समय ज्ञानस्वरूप भगवान् विश्वनाथने देवताओंमें सबसे प्रथम देवता वेदपति ब्रह्माजीको उत्पन्न किया ॥ ९ ॥ ब्रह्माने उत्पन्न होकर अपने पिता महादेवको देखा तथा ब्रह्माजीके जनक महादेवजीने भी उत्पन्न हुए ब्रह्माकी ओर स्नेहपूर्ण दृष्टिसे देखा और उन्हें सृष्टि रचनेकी आज्ञा दी। रुद्रदेवकी कृपादृष्टिसे देखे जानेपर सृष्टिके सामर्थ्यसे युक्त हो उन ब्रह्मदेवने समस्त संसारकी रचना की और पृथक्-पृथक् वर्णों तथा आश्रमोंकी व्यवस्था की ॥ १०-११ ॥ उन्होंने यज्ञके लिये सोमकी सृष्टि की। सोमसे द्युलोकका प्रादुर्भाव हुआ। फिर पृथ्वी, अग्नि, सूर्य, यज्ञमय विष्णु और शचीपति इन्द्र प्रकट हुए। वे सब तथा अन्य देवता रुद्राध्याय पढ़कर रुद्रदेवकी स्तुति करने लगे । तब भगवान् महेश्वर अपनी लीला प्रकट करनेके लिये उन सबका ज्ञान हरणकर प्रसन्नमुखसे उन देवताओंके आगे खड़े हो गये ॥ १२-१३ ॥

उस समय लीलावश भगवान् महेश्वरने उनके ज्ञानका अपहरण कर लिया, तब देवताओंने मोहित होकर उनसे पूछा—’आप कौन हैं?’ वे भगवान् रुद्र बोले—’ श्रेष्ठ देवताओ ! सबसे पहले मैं ही था । इस समय भी सर्वत्र मैं ही हूँ और भविष्यमें भी मैं ही रहूँगा । मेरे सिवा दूसरा कोई नहीं है । मैं ही अपने तेजसे सम्पूर्ण जगत् को तृप्त करता हूँ ॥ १४–१६ ॥ मुझसे अधिक और मेरे समान कोई नहीं है। जो मुझे जानता है, वह मुक्त हो जाता है ।’ ऐसा कहकर भगवान् रुद्र वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ १७ ॥

जब देवताओंने उन महेश्वरको नहीं देखा, तब वे सामवेदके मन्त्रोंद्वारा उनकी स्तुति करने लगे । अथर्वशीर्षमें वर्णित पाशुपत – व्रतको ग्रहण करके उन अमरगणोंने अपने सम्पूर्ण अंगोंमें भस्म लगा लिया । यह देख उनपर कृपा करनेके लिये पशुपति महादेव अपने गणों और उमाके साथ उनके निकट आये ॥ १८-१९१/२ ॥ प्राणायामके द्वारा श्वासको जीतकर निद्रारहित एवं निष्पाप हुए योगीजन अपने हृदयमें जिनका दर्शन करते हैं, उन्हीं महादेवको उन देवेश्वरोंने वहाँ देखा । जिन्हें ईश्वरकी इच्छाका अनुसरण करनेवाली पराशक्ति कहते हैं, उन वामलोचना भवानीको भी उन्होंने वामदेव महेश्वरके वामभागमें विराजमान देखा ॥ २०–२११/२ ॥ जो संसारको त्यागकर शिवके परमपदको प्राप्त हो चुके हैं तथा जो नित्य सिद्ध हैं, उन गणेश्वरोंका भी देवताओंने दर्शन किया। तत्पश्चात् देवता महेश्वरसम्बन्धी वैदिक और पौराणिक दिव्य स्तोत्रोंद्वारा देवीसहित महेश्वरकी स्तुति करने लगे। तब वृषभध्वज महादेवजी भी उन देवताओंकी ओर कृपापूर्वक देखकर अत्यन्त प्रसन्न हो स्वभावतः मधुर वाणीमें बोले-‘मैं तुमलोगोंपर बहुत संतुष्ट हूँ।’ उन प्रार्थनीय एवं पूज्यतम भगवान् वृषभध्वजको अत्यन्त प्रसन्नचित्त जान देवताओंने प्रणाम करके आदरपूर्वक उनसे अतीव महत्त्वपूर्ण विषय पूछा ॥ २२–२५ ॥

देवता बोले- भगवन् ! इस भूतलपर किस मार्गसे आपकी पूजा होनी चाहिये और उस पूजामें किसका अधिकार है? यह ठीक-ठीक बतानेकी कृपा करें ॥ २६ ॥

तब देवेश्वर शिवने देवीकी ओर मुसकराते हुए देखा और अपने परम घोर सूर्यमय स्वरूपको दिखाया ॥ २७ ॥ उनका वह स्वरूप सम्पूर्ण ऐश्वर्य – गुणोंसे सम्पन्न, सर्वतेजोमय, सर्वोत्कृष्ट तथा शक्तियों, मूर्तियों, अंगों, ग्रहों और देवताओंसे घिरा हुआ था । उसके आठ भुजाएँ और चार मुख थे। उसका आधा भाग नारीके रूपमें था। उस अद्भुत आकृतिवाले आश्चर्यजनक स्वरूपको देखते ही सब देवता यह जान गये कि सूर्यदेव, पार्वतीदेवी, चन्द्रमा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी तथा शेष पदार्थ भी शिवके ही स्वरूप हैं । सम्पूर्ण चराचर जगत् शिवमय ही है ॥ २८-३० ॥ परस्पर ऐसा कहकर उन्होंने भगवान् सूर्यको अर्घ्य दिया और नमस्कार किया ॥ ३१ ॥

अर्घ्य देते समय वे इस प्रकार बोले-

सिंदूरवर्णाय सुमण्डलाय सुवर्णवर्णाभरणाय तुभ्यम् ।
पद्माभनेत्राय सपंकजाय ब्रह्मेन्द्रनारायणकारणाय ॥ ३२ ॥

‘ जिनका वर्ण सिन्दूरके समान है और मण्डल सुन्दर है, जो सुवर्णके समान कान्तिमान् आभूषणोंसे विभूषित हैं, जिनके नेत्र कमलके समान हैं, जिनके हाथमें भी कमल हैं, जो ब्रह्मा, इन्द्र और नारायणके भी कारण हैं, उन भगवान्‌को नमस्कार है।’ ॥ ३२ ॥

[यों कह] उत्तम रत्नोंसे पूर्ण, सुवर्ण, कुंकुम, कुश और पुष्पसे युक्त जल सोनेके पात्रमें लेकर उन देवेश्वरको उत्कृष्ट अर्घ्य दे [और कहे— ] ‘भगवन्! आप प्रसन्न हों । आप सबके आदिकारण हैं। आप ही रुद्र, विष्णु, ब्रह्मा और सूर्यरूप हैं। गणोंसहित आप शान्त शिवको नमस्कार है।’॥ ३३-३४ ॥ जो एकाग्रचित्त हो सूर्यमण्डलमें शिवका पूजन करके प्रातःकाल, मध्याह्नकाल और सायंकालमें उनके लिये उत्तम अर्घ्य देता है, प्रणाम करता है और इन श्रवणसुखद श्लोकोंको पढ़ता है, उसके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं है। यदि वह भक्त है तो अवश्य ही मुक्त हो जाता है। इसलिये प्रतिदिन शिवरूपी सूर्यका पूजन करना चाहिये । धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके लिये मन, वाणी तथा क्रियाद्वारा उनकी आराधना करनी चाहिये ॥ ३५-३७ ॥

तत्पश्चात् मण्डलमें विराजमान महेश्वर देवताओंकी ओर देखकर और उन्हें सम्पूर्ण शास्त्रोंमें श्रेष्ठ शिवशास्त्र देकर वहीं अन्तर्धान हो गये । उस शास्त्रमें शिवपूजाका अधिकार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंको दिया गया है। यह जानकर देवेश्वर शिवको प्रणाम करके देवता जैसे आये थे, वैसे चले गये ॥ ३८-३९ ॥ तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् जब वह शास्त्र लुप्त हो गया, तब भगवान् शंकरके अंकमें बैठी हुई महेश्वरी शिवाने पतिदेवसे उसके विषयमें पूछा ॥ ४० ॥

तब देवीसे प्रेरित हो चन्द्रभूषण महादेवने वेदोंका सार निकालकर सम्पूर्ण आगमोंमें श्रेष्ठ शास्त्रका उपदेश किया, फिर उन परमेश्वरकी आज्ञासे मैंने, गुरुदेव अगस्त्यने और महर्षि दधीचिने भी लोकमें उस शास्त्रका प्रचार किया । शूलपाणि महादेव स्वयं भी युग-युगमें भूतलपर अवतार ले अपने आश्रितजनोंकी मुक्तिके लिये ज्ञानका प्रसार करते हैं ॥ ४१-४३ ॥  ऋभु, सत्य, भार्गव, अंगिरा, सविता, मृत्यु, बुद्धिशील, इन्द्र, मुनिवर वसिष्ठ, सारस्वत, त्रिधामा, मुनिश्रेष्ठ त्रिवृत्, शततेजा, साक्षात् धर्मस्वरूप नारायण, स्वरक्ष, बुद्धिमान् आरुणि, कृतंजय, भरद्वाज, श्रेष्ठ विद्वान् गौतम, वाचः श्रवा मुनि, पवित्र सूक्ष्मायणि, तृणविन्दु मुनि, कृष्ण, शक्ति, शाक्तेय (पाराशर), उत्तर, जातूकर्ण्य और साक्षात् नारायणस्वरूप कृष्णद्वैपायन मुनि – ये सब व्यासावतार हैं। अब क्रमशः कल्प- योगेश्वरोंका वर्णन सुनो ॥ ४४-४८ ॥

लिंगपुराणमें द्वापरके अन्तमें होनेवाले उत्तम व्रतधारी व्यासावतार तथा योगाचार्यावतारोंका वर्णन है । भगवान् शिवके शिष्यों में भी जो प्रसिद्ध हैं, उनका वर्णन है। उन अवतारोंमें भगवान् के मुख्यरूपसे चार महातेजस्वी शिष्य होते हैं। फिर उनके सैकड़ों, हजारों शिष्य – प्रशिष्य हो जाते हैं ॥ ४९-५० ॥ लोकमें उनके उपदेशके अनुसार भगवान् शिवकी आज्ञा पालन करने आदिके द्वारा भक्तिसे अत्यन्त भावित हो भाग्यवान् पुरुष मुक्त हो जाते हैं ॥ ५१ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके उत्तरखण्डमें शिवतत्त्वज्ञानके प्रसंगमें व्यासावतारवर्णन नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८ ॥

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