October 12, 2024 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण — वायवीयसंहिता [ पूर्वखण्ड] — अध्याय 10 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥ श्रीशिवमहापुराण वायवीयसंहिता [ पूर्वखण्ड] दसवाँ अध्याय ब्रह्माण्डकी स्थिति, स्वरूप आदिका वर्णन वायु बोले- पहले ईश्वरकी आज्ञासे पुरुषसे समन्वित अव्यक्तसे बुद्धि आदिसे लेकर विशेषपर्यन्त सभी विकार क्रमशः उत्पन्न हुए ॥ १ ॥ इसके बाद उन्हीं विकारोंसे रुद्र, विष्णु एवं पितामह—ये तीन जगत्कारणभूत देवता उत्पन्न हुए ॥ २ ॥ तत्पश्चात् उन्होंने [ब्रह्मा आदिको ] इस संसार में सभी जगह व्याप्त रहनेवाली अप्रतिहत शक्ति, अप्रतिम ज्ञान, अणिमादि ऐश्वर्य और सृष्टि, स्थिति तथा लय- इन तीन कार्योंका सामर्थ्य प्रदान किया, [ इस प्रकार ] उन ब्रह्मादि देवोंको प्रभुत्वसे [ अनुगृहीत करते हुए ] उनपर महेश्वर प्रसन्न हुए। उन्होंने कल्पान्तरमें स्पर्धारहित तथा निर्भ्रान्त बुद्धिवाले इन देवगणोंको सृष्टि, स्थिति एवं प्रलयका कार्य क्रमसे सौंपा ॥ ३-५ ॥ ये [देवगण] परस्पर उत्पन्न होकर आपसमें एक- दूसरेको धारण करते हैं और परस्पर एक- दूसरेका अनुवर्तन करते हुए वृद्धिको प्राप्त होते रहते हैं ॥ ६ ॥ महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥ कभी ब्रह्मा, कभी विष्णु तथा कभी रुद्र प्रशंसित होते हैं, परंतु इससे उनके ऐश्वर्यकी न्यूनता अथवा अधिकता नहीं होती है। दुराग्रहसे युक्त मूर्खलोग वाणीसे उनकी निन्दा करते हैं और [ उस अपराधके कारण ] वे [दूसरे जन्ममें] राक्षस और पिशाच होते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ७-८ ॥ वे चतुर्व्यूहरूप महेश्वर देव तीनों गुणोंसे परे, कलायुक्त, सबको धारण करनेमें समर्थ तथा शक्तिकी उत्पत्तिके कारण हैं। लीलामात्रसे जगत् की रचना करनेवाले वे शिवजी [ ब्रह्मा आदि] तीनों देवताओं, प्रकृति तथा पुरुषके अधीश्वरके रूपमें विराजमान रहते हैं ॥ ९-१० ॥ जो परमेश्वर सबसे परे, नित्य तथा निष्कल हैं, वे ही सबके आधार, सबकी आत्मा तथा सभीमें अधिष्ठित । अतः महेश्वर, प्रकृति पुरुष, सदाशिव, भव, विष्णु, ब्रह्मा- ये सभी शिवात्मक हैं ॥ ११- १२ ॥ प्रधानसे सर्वप्रथम बुद्धि, ख्याति, मति तथा महत्तत्त्व उत्पन्न हुए, पुनः महत्तत्त्वके संक्षोभसे तीन प्रकारका अहंकार उत्पन्न हुआ। पंचमहाभूत, पंचतन्मात्राएँ एवं इन्द्रियाँ—ये अहंकारसे उत्पन्न हुए। सत्त्वप्रधान उस वैकारिक अहंकारसे सात्त्विक सर्ग उत्पन्न हुआ ॥ १३-१४ ॥ यह वैकारिक सर्ग एक साथ ही प्रवृत्त होता है । पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, इन दस इन्द्रियोंके अतिरिक्त ग्यारहवाँ मन भी एक इन्द्रिय है, जो अपने गुणोंसे कर्मेन्द्रिय एवं ज्ञानेन्द्रिय दोनों है-ये उत्पन्न हुए। तामस अहंकारसे महाभूतों तथा तन्मात्राओं की उत्पत्ति हुई। पंचभूतों से पहले उत्पन्न होनेके कारण उसे भूतादि कहा जाता है। भूतादि अहंकारसे सर्वप्रथम शब्दतन्मात्राकी उत्पत्ति हुई, जिससे आकाश उत्पन्न हुआ । आकाशसे स्पर्श उत्पन्न हुआ, स्पर्शसे वायुकी उत्पत्ति हुई । वायुसे रूप, रूपसे तेज, तेजसे रस उत्पन्न हुआ । रससे जल उत्पन्न हुआ, जलसे गन्ध उत्पन्न हुआ और गन्धसे पृथ्वी उत्पन्न हुई और इन पंचभूतोंद्वारा अन्य चराचरकी उत्पत्ति हुई ॥ १५–१९ ॥ वे पुरुषके अधिष्ठित होनेसे और अव्यक्तके अनुग्रहसे महत्तत्त्वसे लेकर विशेषपर्यन्त समस्त ब्रह्माण्डकी उत्पत्ति करते हैं। इस प्रकारका जब ब्रह्माजीका कार्य-कारणभाव सिद्ध हो गया, तब उस अण्डमें ब्रह्मसंज्ञक क्षेत्रज्ञ वृद्धिको प्राप्त होने लगा ॥ २०-२१ ॥ वही प्रथम शरीरी है और उसीको पुरुष भी कहा जाता है। प्राणियोंके कर्ता वही ब्रह्मा सबसे पहले उत्पन्न हुए ॥ २२ ॥ तदनन्तर क्षेत्राभिमानी उन ब्रह्माजीकी ज्ञान – वैराग्यसे युक्त, धर्मैश्वर्यप्रदायिनी, अतुलनीया ब्राह्मी बुद्धि उत्पन्न हुई | उन ब्रह्माजीने अपने मनमें जो-जो कामना की, वह सब अव्यक्त [प्रकृति] – से उत्पन्न हुई ॥ २३१/२ ॥ वे ब्रह्माजी स्वभावतः त्रिगुणके वशीभूत एवं [ प्रकृतिके] सापेक्ष होनेके कारण अपनेको तीन रूपोंमें विभक्तकर त्रैलोक्यमें भलीभाँति अधिष्ठित होते हैं और इन तीनों रूपोंके द्वारा सृजन, पालन तथा संहार करते हैं ॥ २४-२५ ॥ वे सृष्टि करते समय चतुर्मुख ब्रह्मा, लयकालमें रुद्र तथा पालनकालमें सहस्र सिरवाले पुरुष विष्णु कहे गये हैं। स्वयम्भू परमात्माकी ये तीन अवस्थाएँ हैं ॥ २६ ॥ उन विभुके ब्रह्मरूप धारण करनेमें सत्त्वगुण तथा रजोगुण, [संहारक] कालस्वरूप धारण करनेमें रजोगुण एवं तमोगुण तथा विष्णुरूप धारण करनेमें सत्त्वगुणकी कारणता कही जाती है । ये गुणवृद्धिके तीन प्रकार हैं। वे ब्रह्माके रूपमें लोकोंकी रचना करते हैं, रुद्ररूपमें लोकोंका संहार करते हैं और पुरुष विष्णुरूपमें अत्यन्त उत्कृष्टरूपमें स्थित रहकर पालन करते हैं । यही उन विभुका तीन प्रकारका कर्म है ॥ २७-२८ ॥ इस प्रकार तीन रूपोंमें विभक्त होनेके कारण ब्रह्मा त्रिगुणात्मक कहे जाते हैं तथा चार भागोंमें विभक्त होनेके कारण वे चतुर्व्यूह कहे जाते हैं ॥ २९ ॥ वे सबके आदि होनेसे आदिदेव तथा अजन्मा होनेसे अज कहे गये हैं । वे सभी प्रजाओंकी रक्षा करते हैं, अतः प्रजापति कहे गये हैं ॥ ३० ॥ सुवर्णमय जो मेरु पर्वत है, वह उन महात्माका गर्भाशय है, समुद्र उस गर्भका जल है तथा पर्वत जरायु हैं । उस अण्डमें ये लोक स्थित हैं, इसीके भीतर नक्षत्र, ग्रह वायुके सहित सूर्य तथा चन्द्रमा और यह सम्पूर्ण जगत् स्थित है ॥ ३१-३२ ॥ यह अण्ड बाहरसे अपने दस गुने परिमाणवाले जलसे व्याप्त है, जल बाहरसे अपनेसे दस गुने परिमाणवाले तेजसे व्याप्त है और तेज भी बाहरसे अपनेसे दस गुने परिमाणवाले वायुसे व्याप्त है, वायु आकाशसे आवृत है और आकाश भूतादिसे आवृत है । भूतादि महान्से और महान् अव्यक्त तत्त्वसे आवृत है । इस प्रकार यह ब्रह्माण्ड बाहरसे इन सात आवरणोंसे घिरा हुआ है ॥ ३३-३५ ॥ ये आठ प्रकृतियाँ एक- दूसरेको आवृतकर स्थित हैं। हे ब्राह्मणो! ये सृष्टि, पालन तथा संहारका कार्य करती रहती हैं। इस प्रकार ये एक-दूसरेसे उत्पन्न होकर एक- दूसरेको धारण करती हैं । इनका परस्पर आधार – आधेयभावसे विकारियोंमें विकार होता है ॥ ३६-३७ ॥ जिस प्रकार कछुआ पहले अपने अंगोंको फैलाकर पुनः समेट लेता है, उसी प्रकार अव्यक्त भी विकारोंकी सृष्टिकर उन्हें पुनः समेट लेता है ॥ ३८ ॥ यह संसार अनुलोमक्रमसे अव्यक्तसे उत्पन्न होता है और प्रलयकाल उपस्थित होनेपर प्रतिलोम क्रमसे विलयको प्राप्त होता है ॥ ३९ ॥ कालके प्रभावसे ही गुण सम और विषम होते हैं । गुणोंमें साम्यकी स्थितिमें लय समझना चाहिये और वैषम्यकी स्थितिमें सृष्टि कही जाती है ॥ ४० ॥ यह घनीभूत महान् अण्ड ब्रह्माकी उत्पत्तिमें कारण है । यह ब्रह्मदेवका क्षेत्र कहा जाता है और ब्रह्मा क्षेत्रज्ञ कहे जाते हैं। इस प्रकारके हजारों ब्रह्माण्डसमूहोंको जानना चाहिये। प्रधानके सर्वत्र व्याप्त होनेसे ये ऊपर- नीचे तथा तिरछे विद्यमान हैं ॥ ४१-४२ ॥ उन सभी स्थानोंमें चतुर्मुख ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र स्थित हैं, जो शिवका सान्निध्य प्राप्त करके प्रधानके द्वारा सृजित किये गये हैं ॥ ४३ ॥ महेश्वर अव्यक्तसे परे हैं । यह अण्ड अव्यक्तसे उत्पन्न हुआ है, अण्डसे विभु ब्रह्मा उत्पन्न हुए हैं और उन्होंने ही इन लोकोंकी रचना की है ॥ ४४ ॥ मैंने प्रथम प्रवृत्त हुई अबुद्धिपूर्वा प्रधान सृष्टिका वर्णन किया, जिसका अन्तकालमें आत्यन्तिक लय हो जाता है, यह चेष्टा ईश्वरकी लीलामात्र है ॥ ४५ ॥ वह जो ब्रह्म जगत्का प्रधान कारण, अप्रमेय, प्रकृतिका उत्पादक, आदि-मध्य-अन्तसे रहित, अनन्तवीर्य [सत्त्वगुणान्वित होनेपर ] शुक्लवर्ण, [ रजोगुणान्वित होनेसे ] रक्तवर्ण तथा [सृष्टिकर्ता] पुरुषसे युक्त है । वह जगत् के उत्पादक रजोगुणकी अभिवृद्धिके द्वारा लोककी सन्तानपरम्पराकी वृद्धिमें हेतुभूत आठ विकारोंको सृष्टिके आदिकालमें उत्पन्न करता है और अन्तमें उनका लय कर देता है ॥ ४६-४७ ॥ प्रकृतिद्वारा स्थापित किये गये कारणोंकी जो स्थिति एवं पुनः प्रवृत्ति है, वह सब अप्राकृत ऐश्वर्यवाले महेश्वरके संकल्पमात्र से सम्भव होती है ॥ ४८ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें ब्रह्माण्डस्थितिवर्णन नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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