शिवमहापुराण — वायवीयसंहिता [ पूर्वखण्ड] — अध्याय 14
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
वायवीयसंहिता [ पूर्वखण्ड] चौदहवाँ अध्याय
प्रत्येक कल्पमें ब्रह्मासे रुद्रकी उत्पत्तिका वर्णन

वायुदेव बोले- अब मैं प्रत्येक कल्पमें रुद्रके आविर्भावका कारण बताऊँगा, जिससे ब्रह्मसृष्टिका प्रवाह अविच्छिन्न रूपसे चलता रहता है ॥ १ ॥ ब्रह्माण्डको उत्पन्न करनेवाले ब्रह्माजी प्रत्येक कल्पमें प्रजाओंकी रचनाकर उसका विस्तार नहीं कर पानेके कारण जब अत्यन्त दुखी और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं, तब उनके दुःखके प्रशमनहेतु तथा प्रजाओंकी वृद्धिके लिये उन-उन कल्पोंमें परमेश्वरसे प्रेरित होकर रुद्रगणोंके अधिपति कालात्मा, नीललोहित, महेश्वर, रुद्र [अजन्मा होते हुए भी] बादमें ब्रह्माके पुत्र होकर ब्रह्मदेवपर कृपा करते हैं ॥ २-४ ॥ वे ही तेजोराशि, निरामय, आदि – अन्तसे रहित, सबके निर्माता, प्राणियोंके संहारक, सर्वव्यापक भगवान् ईश परम ऐश्वर्यसे समन्वित, परमेश्वरसे भावित और सदा उन्हींकी शक्तिसे अधिष्ठित हो उन्हींके चिह्नोंको धारण करते हैं ॥ ५-६ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


उनके नामके समान नामवाले, उन्हींका रूप धारण करनेवाले, उनका कार्य करनेमें समर्थ, उन्हीं परमेश्वरके समान व्यवहारवाले तथा उन्हींकी आज्ञाका पालन करनेवाले वे रुद्र हजार सूर्योंके समान दीप्तिमान्, चन्द्रखण्डका भूषण धारण करनेवाले, सर्पमय हार-केयूर-कंकण धारण करनेवाले तथा मूँजकी मेखला धारण करनेवाले हैं ॥ ७-८ ॥ वे रुद्रदेव जलको धारण करनेवाले वरुण-ब्रह्मा- इन्द्रके कपालखण्डोंसे उज्ज्वल, गंगाकी उत्तुंग तरंगों से आर्द्र तथा पिंगल मुख एवं केशोंवाले, [ प्रलयकालमें अपनी भयानक] दाढ़ोंके अग्रभागसे पर्वतोंके प्रान्तभागको आक्रान्त करनेवाले, अपने दाहिने कानके पार्श्व भागमें मण्डलाकार कुण्डल धारण करनेवाले, महावृषभपर सवारी करनेवाले, महामेघ के समान गम्भीर वाणीवाले, प्रचण्ड अग्निके समान कान्तिवाले और महान् बल तथा पराक्रमवाले हैं । इस प्रकारके महाघोर रूपवाले ब्रह्मपुत्र महेश्वर ब्रह्माको ज्ञान देकर सृष्टिकार्यमें उन्हें साहाय्य प्रदान करते हैं ॥ ९–१२ ॥

इस प्रकार प्रत्येक कल्पमें रुद्रकी कृपासे उन प्रजापति ब्रह्मासे नित्य प्रजा – सृष्टि प्रवाहरूपसे होती रहती है । किसी समय ब्रह्माजीने [ प्रजाओंकी ] सृष्टि करनेहेतु प्रार्थना की, तब उन नीललोहित प्रभुने मनसे अपने समान ही समस्त प्रजाओंकी सृष्टि की। उन्होंने जटाजूटधारी, भयरहित, नीलकण्ठ, त्रिलोचन, उन्होंने जरामरणरहित तथा देदीप्यमान त्रिशूलरूप श्रेष्ठ आयुध धारण किये हुए समस्त रुद्रोंकी सृष्टि की ॥ १३ – १५ ॥ उन लोगोंने समस्त चौदह भुवनोंको आच्छादित कर लिया, [तब] उन विविध रुद्रोंको देखकर ब्रह्माजीने रुद्रसे कहा- हे देवदेवेश ! आपको नमस्कार है, आप इस प्रकारकी प्रजाओंकी रचना मत कीजिये । आप मरणधर्मयुक्त अन्य प्रजाओंकी सृष्टि कीजिये, आपका कल्याण हो ॥ १६-१७ ॥

ऐसा कहे जानेपर परमेश्वरने ब्रह्माजीसे हँसते हुए कहा- मेरी सृष्टिमें ऐसी प्रजा नहीं हो सकती, अतः ऐसी अशुभ प्रजाकी सृष्टि आप ही करें। मैंने मनसे जिन महा- बलवान् एवं महान् आत्मावाले रुद्रगणोंकी सृष्टि की है, वे सभी याज्ञिक बनकर मेरे साथ विचरण करेंगे ॥ १८-१९ ॥ विश्वकर्ता ब्रह्मदेवसे ऐसा कहकर समग्र प्राणियोंके ईश्वर शिवजी रुद्रोंके साथ प्रजासर्गसे उपरत हो [ स्थाणुके समान] अवस्थित हो गये। उसी समयसे उन शिवजीने शुभ प्रजाओंकी सृष्टि नहीं की और वे ऊर्ध्वरेता बनकर प्रलय- कालतकके लिये स्थाणुरूपमें स्थित हो गये ॥ २०-२१ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें रुद्राविर्भाववर्णन नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १४ ॥

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