शिवमहापुराण — वायवीयसंहिता [ पूर्वखण्ड] — अध्याय 17
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
वायवीयसंहिता [ पूर्वखण्ड] सत्रहवाँ अध्याय
ब्रह्माके आधे शरीरसे शतरूपाकी उत्पत्ति तथा दक्ष आदि प्रजापतियोंकी उत्पत्तिका वर्णन

वायुदेवने कहा – इस प्रकार मैथुनजन्य सृष्टि करनेकी इच्छावाले प्रजापति ब्रह्मा सदाशिवसे पराशक्ति प्राप्तकर स्वयं भी आधे भागसे स्त्री तथा आधे भागसे पुरुषरूप हो गये। जो नारीरूप अर्धभाग था, उससे शतरूपा प्रकट हुईं। [दूसरा ] जो पुरुषरूप अर्धभाग हुआ, उससे ब्रह्माने विराट्का सृजन किया। उसे ही पूर्वपुरुष स्वायम्भुव मनु कहा जाता है ॥ १- ३ ॥ उन देवी शतरूपाने अत्यन्त कठोर तप करके उज्ज्वल यशवाले स्वायम्भुव मनुको पतिरूपमें प्राप्त किया ॥ ४ ॥ शतरूपाने उन्हीं मनुसे पुत्रवानोंमें श्रेष्ठ प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो श्रेष्ठ पुत्रों और महाभाग्यशालिनी दो कन्याओंको उत्पन्न किया, जिन दोनोंसे ये प्रजाएँ हुईं। पहलीको आकूति जानना चाहिये तथा दूसरी प्रसूति कही गयी है ॥ ५-६ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


प्रभु स्वायम्भुव मनुने प्रसूति नामक कन्याको दक्षको तथा आकूतिको रुचि नामक प्रजापतिको प्रदान किया। ब्रह्माके मानसपुत्र रुचिने आकूतिमें जुड़वाँ संतान उत्पन्न की, जिनका नाम यज्ञ तथा दक्षिणा है। जिन दोनोंसे यह सारा संसार चल रहा है ॥ ७-८ ॥ प्रभु दक्षने स्वायम्भुव मनुकी कन्या प्रसूतिमें लोकमातास्वरूपा चौबीस कन्याओंको उत्पन्न किया । उनमें श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, पुष्टि, तुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, सिद्धि और तेरहवीं कीर्ति— ये जो कन्याएँ थीं, इन दक्षकन्याओंको प्रभु धर्मने पत्नीके रूपमें ग्रहण किया। उनसे छोटी दक्षकी ग्यारह सुलोचना कन्याएँ थीं। ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्नति, अनसूया, ऊर्जा, स्वाहा और स्वधा । हे मुनिश्रेष्ठो ! भृगु, शर्व, मरीचि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, पुलस्त्य, अत्रि, वसिष्ठ, पावक तथा पितर- इन मुनियोंने ख्याति आदि कन्याओंसे विवाह किया । धर्मसे पूर्वोक्त तेरह कन्याओंमें कामसे लेकर यशपर्यन्त (काम, दर्प, नियम, सन्तोष, लोभ, श्रुत, दण्ड, प्रबोध, विनय, व्यवसाय, क्षेम, सुख और यश ) – ये तेरह पुत्र क्रमशः उत्पन्न हुए। जो सन्तानें श्रद्धा आदिसे हुई थीं, वे सुखस्वरूप थीं । अधर्मसे हिंसा [नामक भार्या] – में दुःख देनेवाली सन्तानें उत्पन्न हुईं। अधर्मके निकृति आदि अधर्म लक्षणवाले पुत्र उत्पन्न हुए । इनको कोई स्त्री अथवा पुत्र नहीं थे, वे सभी नियमसे रहित कहे गये हैं । धर्मको संकुचित करनेवाला यह तामस सर्ग है ॥ ९–१६१/२ ॥

जो दक्षकी कन्या सती थीं, वे रुद्रकी पत्नी हुईं। अपने पतिकी निन्दाके प्रसंगसे उन्होंने माता-पिता तथा बन्धुओंकी भर्त्सनाकर अपने शरीरको त्याग दिया और हिमालयके घर मेनाकी पुत्री होकर उत्पन्न हुईं ॥ १७ – १८१/२ ॥ रुद्रने सतीको देखकर [ अर्थात् प्राप्त करके उनसे ] जिस प्रकार अपने समान प्रभाववाले असंख्य रुद्रोंको उत्पन्न किया, वह कथा तो हम कह चुके हैं । भृगुसे ख्यातिमें नारायणप्रिया लक्ष्मी उत्पन्न हुईं तथा मन्वन्तर धारण करनेवाले धाता और विधाता नामक दो देव भी उनके पुत्र हुए, उन्हीं दोनोंके सैकड़ों-हजारों पुत्र, पौत्र आदि हुए। स्वायम्भुव मन्वन्तरमें भृगुसे उत्पन्न होनेके कारण वे सभी भार्गव कहे गये । सम्भूतिने मरीचिसे पौर्णमास नामक पुत्र और चार कन्याओंको उत्पन्न किया। उनकी बहुत सन्तानें हुईं, जिनके वंशमें बहुत पुत्रोंवाले कश्यप उत्पन्न हुए ॥ १९–२३ ॥

अंगिराकी पत्नी स्मृतिने आग्नीध्र तथा शरभ नामक दो पुत्र और चार कन्याएँ उत्पन्न कीं । उनके हजारों पुत्र तथा पौत्र हुए। पुलस्त्यकी प्रीति नामक पत्नीमें अग्निस्वरूप दन्त नामक पुत्र हुआ, जो पूर्वजन्ममें स्वायम्भुव मन्वन्तरमें अगस्त्यके नामसे प्रसिद्ध था । उनकी सन्तानें भी बहुत हुईं, जो पौलस्त्य – इस नामसे प्रसिद्ध थीं। प्रजापति पुलहकी पत्नी क्षमाने भी तीन पुत्रोंको जन्म दिया। कर्दम, आसुरि तथा सहिष्णु – ये तीनों अग्नियोंके समान तेजस्वी थे, जिनका वंश स्थिर रूपसे चलता रहा ॥ २४–२७ ॥ क्रतुकी सन्नति नामक भार्याने क्रतुके समान बहुतसे पुत्र उत्पन्न किये, इनकी भार्याएँ तथा पुत्र नहीं थे, वे सभी ऊर्ध्वरेता हुए। वे साठ हजार वालखिल्य कहे गये हैं, जो सूर्यको घेरकर अरुणके आगे-आगे चलते हैं ॥ २८-२९ ॥

अत्रिकी भार्या अनसूयाने पाँच पुत्रों तथा श्रुति नामक कन्याको जन्म दिया, वह [ श्रुति] शंखपद [ ऋषि ] – की माता हुई। सत्यनेत्र, हव्य, आपोमूर्ति, शनैश्चर और सोम – ये पाँचों अत्रिपुत्र कहे गये हैं । स्वायम्भुव मन्वन्तरमें उन महात्मा अत्रिपुत्रोंके सैकड़ों- हजारों पुत्र-पौत्र हुए ॥ ३०–३२ ॥ ऊर्जासे वसिष्ठके सात पुत्र हुए, उनकी बड़ी बहन पुण्डरीका थी, जो अत्यन्त सुन्दरी थी । रजोगात्र, ऊर्ध्वबाहु, सवन, अनय, सुतपा और शुक्र – ये सात सप्तर्षि कहे गये हैं । उन महात्मा वसिष्ठपुत्रोंके नामसे गोत्र भी प्रवर्तित हुए। इस प्रकार सैकड़ों अर्बुद वर्षोंतक स्वायम्भुव मन्वन्तरमें इनके वंश चलते रहे ॥ ३३–३५ ॥ हे ब्राह्मणो ! इस प्रकार मैंने परम्परानुरूप ऋषिसृष्टिका संक्षेपमें वर्णन किया, क्योंकि विस्तारपूर्वक इसका वर्णन नहीं किया जा सकता है ॥ ३६ ॥

ब्रह्माके मानस पुत्र अग्नि जो रुद्रात्मक भी कहे जाते हैं, उनकी पत्नी स्वाहाने पावक, पवमान और शुचि नामक अमित तेजस्वी तीन पुत्र उत्पन्न किये । मन्थनसे उत्पन्न अग्नि पवमान है। बिजलीसे उत्पन्न अग्नि पावक कही गयी है । तपते हुए सूर्यमें जो तेज है, वह शुचि अथवा सौर कहा गया है। हव्यवाह, कव्यवाह और सहरक्षा—ये तीनों क्रमशः उपर्युक्त अग्नियोंके पुत्र हैं । इन तीनोंके पुत्र क्रमसे देवता, पितर एवं असुर हैं । इनके उनचास पुत्र एवं पौत्र हैं ॥ ३७–४० ॥ ये काम्य, कर्मोंमें निरन्तर स्थित रहते हैं । इन सभीको तपस्वी तथा निरन्तर व्रत धारण करनेवाला जानना चाहिये। ये सभी रुद्रस्वरूप तथा रुद्रपरायण हैं, इसलिये कोई अग्निमुखमें जो कुछ भी आहुति देता है, वह सब रुद्रको उद्देश्य करके दिया हुआ समझा जाता है, इसमें सन्देह नहीं । इस प्रकार मैंने तथ्योंके आधारपर अग्निके वंशको कहा । हे ब्राह्मणो ! इसके अनन्तर मैं संक्षेपमें पितरोंका वर्णन करूँगा। [वसन्त आदि ] छः ऋतुएँ उन स्थानाभिमानी पितरोंके छ: स्थान हैं ॥ ४१–४४ ॥

नैमित्तिक तथा नित्य – इन तीनों प्रकारके पितरोंको ऋतु भी कहा जाता है – ऐसा वेदमें कहा गया है; क्योंकि स्थावर, जंगम सभी अपनी-अपनी ऋतुओंमें ही उत्पन्न होते हैं, इसलिये पितर [सभीके उद्भवहेतु होनेसे ऋतु या ] आर्तव भी कहे गये हैं- ऐसी श्रुति है । इस प्रकार ऋतुकालाभिमानी इन पितरोंका पितृत्व श्रुतियोंमें वर्णित है ॥ ४५-४६ ॥ सभी ऐश्वर्योंको अपनेमें स्थितकर ये पितर आकाशमें स्थित रहते हैं। अग्निष्वात्त तथा बर्हिषद् – ये दो प्रकारके पितर कहे गये हैं । ये यज्ञ करनेवाले तथा यज्ञ न करनेवाले गृहस्थके क्रमशः पितर हैं । स्वधाने पितरोंसे लोकविख्यात दो पुत्रियों मेना तथा धरणीको जन्म दिया । जिन्होंने इस संसारको धारण किया है। मेना अग्निष्वात्तकी पुत्री हैं तथा धरणी बर्हिषत्की पुत्री हैं ॥ ४७–४९ ॥ मेना हिमालयकी पत्नी हुईं, उन्होंने मैनाक तथा क्रौंच नामक दो पुत्रों और गौरी तथा गंगा नामक दो पुत्रियोंको जन्म दिया, जो शिवके देहसे संयुक्त होकर [ संसारको ] पवित्र करनेवाली हैं ॥ ५० ॥

मेरुकी पत्नी धरणी हुई, जिसने दिव्य औषधियोंसे युक्त तथा अद्भुत सुन्दर शिखरोंवाले मन्दरपर्वतको पुत्ररूपमें जन्म दिया। मेरुका वही श्रीमान् पुत्र मन्दर अपनी तपस्याके बलसे साक्षात् श्रीकण्ठनाथ शिवकी निवासभूमि हुआ ॥ ५१-५२ ॥ उस धरणीने पुनः वेला, नियति और आयति – इन लोकप्रसिद्ध तीन कन्याओंको जन्म दिया ॥ ५३ ॥ आयति तथा नियति भृगुके पुत्रोंकी पत्नियाँ हुईं । स्वायम्भुव मन्वन्तरके प्रसंगमें इनके वंशका वर्णन पूर्वमें किया गया है। वेलाने सागरसे एक मनोहर कन्याको जन्म दिया, जिसका नाम सामुद्री या सवर्णा है, वह प्राचीनबर्हिकी पत्नी हुई। समुद्रपुत्री सवर्णाने प्राचीनबर्हिसे दस पुत्र उत्पन्न किये, ये सभी प्रचेता नामवाले थे और धनुर्वेदके पारगामी ॥ ५४–५६ ॥ प्राचीन कालमें स्वायम्भुव मन्वन्तरमें मनुके पुत्ररूपमें उत्पन्न दक्ष चाक्षुष मन्वन्तरमें शिवके शापके कारण प्रचेताओंके पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुए ॥ ५७ ॥

हे ब्राह्मणो ! इस प्रकार मैंने ब्रह्मदेवके धर्म आदि महात्मा पुत्रोंके वंशोंका वर्णन न तो बहुत संक्षेपमें तथा न तो बहुत विस्तारसे ही कहा, जो दिव्य, देवगणसमन्वित, क्रियावान्, प्रजावान् तथा महान् समृद्धियोंसे अलंकृत हैं ॥ ५८-५९ ॥ प्रजापतिसे उत्पन्न प्रजाओंके इस सन्निवेशकी गणना तो करोड़ों वर्षोंमें भी नहीं की जा सकती है । इसी प्रकार राजाओंका भी वंश दो प्रकारका है, ये परम पवित्र सूर्यवंश तथा चन्द्रवंशके नामसे भूर्लोकमें विख्यात हैं ॥ ६०-६१ ॥ इक्ष्वाकु, अम्बरीष, ययाति, नहुष आदि जो पुण्यकीर्ति राजर्षि यहाँ सुने गये हैं, वे इन्हीं वंशोंमें उत्पन्न हुए, इनके अतिरिक्त विविध पराक्रमोंसे युक्त अन्य राजर्षि भी उत्पन्न हुए । उनका वर्णन मैंने पहले ही कर दिया है, अब जो पुराने तथा बीते हुए हैं, पहले ही कहे जा चुके उन राजर्षियोंके वर्णनसे कोई लाभ भी नहीं है ॥ ६२-६३ ॥

बहुत क्या कहें, जहाँ शिवके चरित्रका वर्णन किया जा रहा हो, वहाँ दूसरी कथाका वर्णन सज्जन- सम्मत नहीं है – ऐसा मानकर मैं [ उस विषयमें ] अत्यधिक कहनेका उत्साह नहीं करता हूँ ॥ ६४ ॥ प्रसंगवश सृष्टि आदिका वर्णन ईश्वरके प्रभावको प्रकट करनेके लिये ही किया है, अतः विस्तारका प्रयोजन व्यर्थ है ॥ ६५ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें सृष्टिकथन नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥

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