October 13, 2024 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण — वायवीयसंहिता [ पूर्वखण्ड] — अध्याय 19 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥ श्रीशिवमहापुराण वायवीयसंहिता [ पूर्वखण्ड] उन्नीसवाँ अध्याय दक्षयज्ञका उपक्रम, दधीचिका दक्षको शाप देना, वीरभद्र और भद्रकालीका प्रादुर्भाव तथा उनका यज्ञध्वंसके लिये प्रस्थान ऋषि बोले- धर्मकार्यमें प्रवृत्त हुए दुरात्मा दक्षके कर्ममें महेश्वरने किस प्रकार विघ्न किया, हमलोग यह जानना चाहते हैं ? ॥ १ ॥ वायु बोले- अपने तपके प्रभावसे सारे संसारकी माता भगवती देवीका पितृत्व प्राप्त करके हिमालय बहुत ही प्रसन्न हुए । जब शिवजीका उनसे विवाह हो गया और हिमालयके शिखरपर उनके साथ विहार करते हुए शिवजीका बहुत समय बीत गया। तब वैवस्वत मन्वन्तरके प्राप्त होनेपर उन प्रचेताके पुत्र स्वयं दक्षने अश्वमेधयज्ञ करनेका विचार किया ॥ २-४ ॥ दक्ष हिमालयके पृष्ठपर ऋषियों तथा सिद्धोंद्वारा सेवित गंगाद्वार नामक शुभस्थानपर यज्ञ करने लगे ॥ ५ ॥ इसके बाद उनके उस यज्ञमें जानेके लिये इन्द्रादि समस्त देवता आपसमें विचार करने लगे ॥ ६ ॥ आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य, मरुद्गण, ऊष्मप, सोमप, आज्यप, धूमप, दोनों अश्विनीकुमार, पितृगण तथा अन्य महर्षिगण– विष्णुके सहित ये सभी लोग उस यज्ञमें भाग लेनेके लिये आये । [ उस यज्ञमें] सदाशिवके अतिरिक्त सभी देवताओंको उपस्थित देखकर कोपाविष्ट दधीच दक्षसे इस प्रकार कहने लगे – ॥ ७–९ ॥ महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥ दधीचि बोले- अपूज्यके पूजनसे तथा पूज्योंकी पूजा न करनेसे मनुष्यको बड़ा पाप लगता है, इसमें सन्देह नहीं है। जहाँ असज्जनोंका सम्मान तथा सत्पुरुषोंका अपमान होता है, वहाँ शीघ्र ही ईश्वरके द्वारा दिया गया कठोर दण्ड उपस्थित होता है ॥ १० – ११ ॥ दधीचिने इस प्रकार कहकर दक्षसे पुन: कहा- तुम पूज्य पशुपति महेश्वरका पूजन किसलिये नहीं करते हो ? ॥ १२ ॥ दक्ष बोले – जटाजूटसे समन्वित, हाथमें त्रिशूल धारण किये हुए एकादश रुद्र तथा अन्य बहुत-से रुद्र मेरे यहाँ उपस्थित हैं, मैं और किसी अन्य महेश्वरको नहीं जानता हूँ ॥ १३ ॥ दधीचि बोले- यदि तुम इस यज्ञके राजा महेश्वरका पूजन नहीं कर रहे हो, तो इस यज्ञमें इन अन्य देवताओंके पूजनसे क्या लाभ ! ॥ १४ ॥ जो अविनाशी प्रभु, ब्रह्मा, रुद्र और विष्णुको उत्पन्न करनेवाले हैं और ब्रह्मासे लेकर पिशाचपर्यन्त जिनके वशवर्ती हैं, जो प्रकृति और पुरुषसे परे हैं, जिनके ध्यानमें योगज्ञाता और तत्त्वदर्शी महर्षि तत्पर रहते हैं, जो अक्षर परम ब्रह्म तथा सदसत्स्वरूप हैं, आदि-मध्य-अन्तसे रहित, तर्कसे सर्वथा अज्ञेय, विशुद्ध तथा सनातन हैं, जो सृष्टि करनेवाले, पालन करनेवाले, संहार करनेवाले तथा महेश्वर हैं, मैं इस यज्ञमें उन शंकरात्माके अतिरिक्त अन्य किसीको नहीं देखता हूँ ॥ १५–१८ ॥ दक्ष बोले – [ हे महर्षे ! ] इस सोनेके पात्रमें यज्ञेश्वर विष्णुके निमित्त विधिपूर्वक अभिमन्त्रित हवि रखी हुई है, उसे मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ, उस सम्पूर्ण हविको विभाजितकर उनके लिये अभी प्रदान कीजिये ॥ १९ ॥ दधीचि बोले— हे दक्ष ! आपने देवदेवेश्वर रुद्रकी आराधना नहीं की है, अतः आपका यह यज्ञ पूर्ण नहीं होगा। यह वचन कहकर मुनिश्रेष्ठ दधीचि क्रुद्ध हो उस यज्ञशालासे निकलकर अपने आश्रमको चले गये ॥ २०-२१ ॥ उन मुनिके चले जानेपर तथा अवश्य होनेवाले अनिष्टको समझते हुए भी देवताओंने दक्षका त्याग नहीं किया । हे विप्रो ! इसी समय ईश्वर शिवसे यह सब जानकर देवीने दक्ष के यज्ञको जलानेके लिये शिवजीको प्रेरित किया ॥ २२-२३ ॥ तब देवीके द्वारा प्रेरित किये गये शिवने दक्षके यज्ञको विनष्ट करनेकी इच्छासे पराक्रमी, हजार मुखोंवाले, कमलके समान हजार नेत्रोंवाले, हजारों मुद्गर, हजारों धनुष, हजारों शूल, टंक, गदा, तेजस्वी धनुष, चक्र [आदि शस्त्रास्त्रोंसे युक्त] तथा भयंकर स्वरूपवाले, वज्र अपने हाथोंमें धारण किये हुए, मस्तकपर अर्धचन्द्र धारण किये हुए, वज्रसे चमकते हुए हाथवाले, विद्युत्की प्रभाके सदृश केशोंवाले, भयंकर दाढ़ोंसे युक्त, विशाल मुख तथा उदरवाले, बिजलीके समान जीभवाले, लटकते हुए लम्बे ओठवाले, समुद्र एवं मेघकी गर्जनाके समान शब्दवाले, अत्यधिक रक्त स्रावसे युक्त, व्याघ्रके चर्मको धारण किये हुए, दोनों कपोलोंसे सटे हुए गोलाकार कुण्डल धारण किये हुए, देवताओंकी उत्तम शिरोमालावलीसे सुशोभित सिरवाले, उत्तम स्वर्णनिर्मित बजते हुए नूपुर तथा बाजूबन्दसे विभूषित, रत्नोंसे प्रकाशित, तारमय हारसे आवृत वक्षःस्थलवाले, महाशरभ, शार्दूल और सिंहके समान पराक्रमवाले, मदमत्त महान् हाथीके समान मन्थर गतिवाले, शंख – चामर- कुन्द, चन्द्रमा एवं मृणालके समान प्रभावाले, मानो बर्फसे ढका हुआ साक्षात् हिमालयपर्वत ही चलता-फिरता सुशोभित हो रहा हो – ऐसे प्रतीत होनेवाले, ज्वालासमूहसे देदीप्यमान, मोतियोंके आभूषणोंसे सुशोभित और अपने तेजके कारण प्रलयकालीन अग्निके समान प्रदीप्त होनेवाले गणाधिप वीरभद्रको सहसा उत्पन्न किया।1 घुटने टेककर हाथ जोड़कर शिवजीको प्रणाम करके वीरभद्र उनके समीप बैठ गये ॥ २४–३४ ॥ इसके पश्चात् देवीने क्रोधसे अपने कर्मके साक्षित्वके लिये महेश्वरी भद्रा भद्रकालीको साथ जानेके लिये उत्पन्न किया । तब भद्रकालीसे समन्वित कालाग्निके सदृश स्थित उन वीरभद्रको देखकर शंकरजीने कहा- तुम्हारा कल्याण हो ॥ ३५-३६ ॥ तत्पश्चात् वीरभद्रने देवीके साथ विराजमान महेश्वरसे कहा—हे महादेव! आज्ञा दीजिये, मैं आपका कौन-सा कार्य करूँ? तब त्रिपुरका वध करनेवाले सदाशिवने पार्वतीका प्रिय करनेकी इच्छासे महागम्भीर वाणीमें महान् भुजाओंवाले वीरभद्रसे कहा – ॥ ३७-३८ ॥ महादेव बोले – हे गणेश्वर ! तुम प्रचेताके पुत्र दक्षके यज्ञको विनष्ट करो, तुम भद्रकालीके साथ इस कार्यको करो। हे गणेशान ! मैं भी इन देवीके साथ रैभ्यके आश्रमके पास स्थित होकर तुम्हारा दुःसह पराक्रम देखता रहूँगा ॥ ३९-४० ॥ कनखलमें गंगाद्वारके समीप स्थित जो ऊँचे वृक्ष हैं, वे सोनेके शिखरवाले मेरुपर्वतपर मन्दरके समान दिखायी पड़ रहे हैं, उसी प्रदेशमें दक्षका यज्ञ हो रहा है । उस यज्ञको तुम विना विलम्ब किये सहसा विनष्ट कर दो ॥ ४१-४२ ॥ सदाशिवके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर हिमवान्की कन्या पार्वती देवी वीरभद्र और भद्रकालीको इस तरह देखकर जैसे कोई गाय अपने बछड़ेको देखती हो, उनका आलिंगन करके पुनः कार्तिकेयके समान उनका मस्तक सूँघकर हँसती हुई अत्यन्त मधुर वचन बोलीं- ॥ ४३-४४ ॥ देवी बोलीं- हे वत्स ! हे महाभाग ! महान् बल तथा पराक्रमवाले हे वीरभद्र ! तुम मेरा हित करनेके लिये ही उत्पन्न हुए हो, अतः मेरे क्रोधका शमन करो ॥ ४५ ॥ गणेश्वर! वैरके कारण यज्ञेश्वरको बिना बुलाये ही दक्षने यज्ञकर्म प्रारम्भ किया है, इसलिये तुम शीघ्र ही उस यज्ञको नष्ट कर दो। हे भद्र ! हे वत्स ! तुम इस भद्राके साथ मेरी आज्ञासे यज्ञलक्ष्मीको अलक्ष्मी बनाकर उस यज्ञकर्ता दक्षको विनष्ट कर दो ॥ ४६-४७ ॥ तब विचित्र कार्य करनेवाले उन शिव तथा पार्वतीके सभी आदेशोंको सिरपर धारणकर उन्हें नमस्कार करके वीरभद्र जानेके लिये उद्यत हो गये ॥ ४८ ॥ इसके पश्चात् श्मशानवासी भगवान् वीरभद्र महादेवने देवीके क्रोधको शान्त करनेकी इच्छासे अपने रोमकूपोंसे हजारों रोमज नामक गणेश्वरोंको उत्पन्न किया । इसी तरह उन्होंने अपनी दाहिनी भुजा, चरण, ऊरुप्रदेश, पीठ, पार्श्व, मुख, गला, गुह्य, गुल्फ, सिर, मध्यभाग, कण्ठ, जबड़े तथा पेटसे सौ करोड़ गणेश्वरोंको उत्पन्न किया । उस समय वीरभद्रके समान पराक्रमवाले गणेश्वरोंसे आकाशविवरसहित सारा जगत् ढँक गया ॥ ४९–५२ ॥ उन सभीके हजार हाथ थे तथा हाथोंमें हजारों आयुध थे। वे सभी रुद्रके अनुचर थे तथा रुद्रके समान तेजस्वी थे ॥ ५३ ॥ वे हाथोंमें शूल, शक्ति, गदा, टंक, उपल एवं शिला लिये हुए थे । वे कालाग्निरुद्रके समान, तीन नेत्रोंवाले तथा जटाजूटसे समन्वित थे ॥ ५४ ॥ वीरभद्रद्वारा उत्पन्न वे करोड़ों गण सिंहोंपर विराजमान हो आकाशमें विचरने लगे और मेघके समान महाघोर गर्जना करने लगे ॥ ५५ ॥ उन गणोंसे घिरे हुए भगवान् वीरभद्र इस तरह प्रतीत हो रहे थे, जैसे प्रलयकालमें सैकड़ों कालाग्नियोंसे घिरे हुए कालभैरव शोभित होते हैं ॥ ५६ ॥ उन गणोंके बीच वृषभध्वज भगवान् वीरभद्र बैलपर आरूढ़ होकर गये। तब श्वेत चामर लिये हुए भसितप्रभ नामक गणने वृषभपर सवार उन वीरभद्रके सिरके ऊपर मुक्तामणिकी झालरवाला छत्र लगा दिया ॥ ५७-५८ ॥ उस समय वीरभद्रके समीप वह भसितप्रभ इस तरह सुशोभित हो रहा था, जैसे समस्त जगत् के गुरु भगवान् शंकरके समीप ऐश्वर्यसम्पन्न हिमालय सुशोभित होते हैं । वे वीरभद्र भी श्वेत चामरको हाथमें धारण किये हुए उस भसितप्रभके साथ इस तरह सुशोभित हो रहे थे, जैसे श्रेष्ठ त्रिशूल धारण करनेवाले भगवान् रुद्र सौम्य बालचन्द्रमासे शोभायमान होते हैं ॥ ५९-६० ॥ इसके बाद सुवर्ण-रत्नादिसे अलंकृत महातेजस्वी भानुकम्प नामक गणेश्वरने वीरभद्रके आगे अपना कल्याणमय, शुभ एवं श्वेत वर्णका शंख बजाया ॥ ६१ ॥ सघन तथा दिव्य ध्वनिवाली देवदुन्दुभियाँ बजने लगीं और मेघ उनके सिरपर फूलोंकी वर्षा करने लगे ॥ ६२ ॥ मकरन्दसे परिपूर्ण, खिले हुए फूलोंकी सुगन्धसे सुरभित तथा यात्राके अनुकूल हवाएँ मार्गमें बहने लगीं। इसके पश्चात् सभी गणेश्वर मत्त तथा युद्धबलसे गर्वित होकर नृत्य करने लगे, हर्षित हो उठे, नाद करने लगे, कुछ हँसने लगे, चिल्लाने लगे तथा कुछ गाने लगे ॥ ६३-६४ ॥ उस समय अपने गणोंके मध्यमें वीरभद्र भद्रकालीके साथ उसी प्रकार शोभित हो रहे थे, जैसे रुद्रगणोंके मध्य शिवजी पार्वतीके साथ सुशोभित होते हैं ॥ ६५ ॥ उसी समय अनुचरोंसहित महाबाहु वीरभद्रने दक्षकी सुवर्णमयी यज्ञशालामें प्रवेश किया ॥ ६६ ॥ गणोंमें प्रधान वीरभद्र दक्षके द्वारा सम्पादित किये जा रहे उस महायज्ञकी प्रयोगभूमि अर्थात् मण्डपमें वैसे ही प्रविष्ट हुए जैसे प्रलयकालमें जगत्को भस्मीभूत करनेकी इच्छावाले रुद्र [ ब्रह्माण्डमें] प्रवेश करते हैं ॥ ६७ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें वीरभद्रोत्पत्तिवर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥ 1. – सहस्रवदनं देवं सहस्रकमलेक्षणम् ॥ सहस्रमुद्गरधरं सहस्रशरपाणिकम् ॥ २५ ॥ शूलटंकगदाहस्तं दीप्तकार्मुकधारिणम् ॥ चक्रवज्रधरं घोरं चंद्रार्धकृतशेखरम् ॥ २६ ॥ कुलिशोद्योतितकरं तडिज्ज्वलितमूर्धजम् ॥ दंष्ट्राकरालं बिभ्राणं महावक्त्रं महोदरम् ॥ २७ ॥ विद्युज्जिह्वं प्रलंबोष्ठं मेघसागरनिःस्वनम् ॥ वसानं चर्म वैयाघ्रं महद्रुधिरनिस्रवम् ॥ २८ ॥ गण्डद्वितयसंसृष्टमण्डलीकृतकुण्डलम् ॥ वरामरशिरोमालावलीकलितशेखरम् ॥ २९ ॥ रणन्नूपुरकेयूरमहाकनकभूषितम् ॥ रत्नसंचयसंदीप्तं तारहारावृतोरसम् ॥ ३० ॥ महाशरभशार्दूलसिंहैः सदृशविक्रमम् ॥ प्रशस्तमत्तमातंगसमानगमनालसम् ॥ ३१ ॥ शंखचामरकुंदेन्दुमृणालसदृशप्रभम् ॥ सतुषारमिवाद्रीन्द्रं साक्षाज्जंगमतां गतम् ॥ ३२ ॥ ज्वालामालापरिक्षिप्तं दीप्तमौक्तिकभूषणम् ॥ तेजसा चैव दीव्यंतं युगांत इव पावकम् ॥ ३३ ॥ Please follow and like us: Related