शिवमहापुराण — वायवीयसंहिता [पूर्वखण्ड] — अध्याय 22
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
वायवीयसंहिता [ पूर्वखण्ड] बाईसवाँ अध्याय
वीरभद्रके पराक्रमका वर्णन

वायु बोले – [ हे ब्राह्मणो !] उसी समय आकाशमें एक रथ प्रकट हुआ, जो हजारों सूर्योंके समान, मनोहर वस्त्रमें वृषचिह्नवाली ध्वजासे युक्त, दो [ वेगवान् तथा ] श्रेष्ठ अश्वोंसे युक्त, चार पहियोंवाला, अनेक तरहके दिव्य अस्त्रों एवं शस्त्रोंसे परिपूर्ण और रत्नोंसे सुसज्जित था ॥ १-२ ॥ उस उत्तम रथके सारथी वे ही [ ब्रह्मा] बने, जो पहले त्रिपुरसंग्राममें शिवजीके रथमें स्थित हुए थे ॥ ३ ॥ भगवान् सदाशिवके ही आदेशसे ब्रह्माजी उस श्रेष्ठ रथको लेकर विष्णुके समीप जा करके हाथ जोड़कर [वीरभद्रसे] कहने लगे – ॥ ४ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


हे भगवन्! हे वीरभद्र ! हे भद्रांग ! वीर अविनाशी भगवान् चन्द्रभूषण सदाशिवने आपको रथपर आरूढ़ होनेकी आज्ञा दी है और हे महाबाहो ! वे त्रिनेत्र शिव भवानी पार्वतीके साथ रैभ्याश्रमके समीप रहकर आपका दुःसह पराक्रम आज देखेंगे। उनका यह वचन सुनकर गणोंमें श्रेष्ठ वे वीरभद्र पितामहको अनुगृहीत करके दिव्य रथपर सवार हो गये । उस श्रेष्ठ रथपर सारथीके रूपमें ब्रह्माजीके विराजमान हो जानेपर वीरभद्र त्रिपुरको मारनेवाले सदाशिवके समान सुशोभित होने लगे ॥ ५ – ८ ॥

उसी समय महाबलवान् भानुकम्प नामक गणने पूर्ण चन्द्रके समान प्रकाशित अपने देदीप्यमान शंखको मुखपर रखकर बजाया। उस शंखके क्षुभित सागरके घोषके सदृश नादको सुनकर भयके कारण देवताओंके जठरमें मानो अग्नि- सी जल उठी। उस समय संग्राम देखनेकी इच्छावाले यक्ष, विद्याधर, सर्पराज एवं सिद्धोंसे आकाशमण्डलसहित सभी दिशाएँ क्षणमात्रमें ही आच्छादित हो गयीं। तब शार्ङ्गधनुषरूप इन्द्रधनुषसे समन्वित उन नारायणरूप मेघने बाणोंकी वर्षासे गणोंके स्वामी वीरभद्रको व्याकुल कर दिया ॥ ९–१२ ॥ सैकड़ों प्रकारसे बाणोंकी वर्षा करनेवाले नारायणको आते हुए देखकर उन वीरभद्रने भी अपने जैत्र नामक धनुषको उठा लिया, जो हजारों बाणोंकी वर्षा करनेमें समर्थ था। जिस प्रकार ईश्वरने मेरुको धनुष बनाकर चढ़ाया था, उसी प्रकार वीरभद्रने भी संग्रामभूमिमें भय उत्पन्न करनेवाले उस दिव्य धनुषको लेकर कानोंतक चढ़ाया। उस धनुषको चढ़ाते ही इस प्रकार बड़ी ही तीव्र ध्वनि हुई, उस महान् ध्वनिसे उन्होंने पृथ्वीको कम्पित कर दिया ॥ १३-१५ ॥

इसके पश्चात् भयानक पराक्रमवाले श्रीमान् गणराज [वीरभद्र]-ने स्वयं भी सर्पकी-सी आकृतिवाला, देदीप्यमान तथा भयानक एक उत्तम बाण [तरकससे] ले लिया ॥ १६ ॥ जिस समय वे अपने तूणीरसे बाण निकालने लगे, उस समय तरकसमें प्रविष्ट होती हुई उनकी भुजा बिलमें घुसने की इच्छावाले सर्पके समान प्रतीत होने लगी ॥ १७ ॥ उस समय उनके हाथमें लिया हुआ बाण इस प्रकार सुशोभित होने लगा, मानो महान् सर्पने बालसर्पको जकड़ लिया हो। इसके पश्चात् रुद्रके समान पराक्रमी वीरभद्रने क्रोधित हो अपने तीखे सुदृढ़ बाणसे अविनाशी विष्णुके ललाटपर तीव्र प्रहार किया ॥ १८ – १९ ॥ ललाटपर प्रहार किये जानेसे संग्राममें सबसे पहले अपमानित हुए विष्णु वीरभद्रपर इस तरह क्रुद्ध हुए, मानो सिंहपर वृषभ क्रोधित हो गया हो ॥ २० ॥ इसके पश्चात् उन्होंने वज्रके समान कठोर और कराल मुखवाले महान् बाणसे वीरभद्रकी भुजंगसदृश भुजाओं पर आघात किया । तब उन महाबली वीरभद्रने भी दस हजार सूर्योंके समान प्रभावाले बाणको पुनः विष्णुकी भुजापर वेगपूर्वक छोड़ा ॥ २१-२२ ॥

हे विप्रो ! इस तरह वे विष्णु उन वीरभद्रपर और वे वीरभद्र उन विष्णुपर अपने – अपने बाणोंसे बार-बार प्रहार करने लगे। उस समय तीव्र वेगसे शीघ्रतापूर्वक एक-दूसरेपर बाण छोड़ते हुए उन दोनोंमें रोमांचकारी घोर युद्ध होने लगा ॥ २३-२४ ॥ उन दोनोंके परस्पर घनघोर युद्धको देखकर आकाशगामी देवताओंमें महान् हाहाकार होने लगा ॥ २५ ॥ इसके बाद वीरभद्रने सूर्यके समान तेजस्वी तथा उल्कायुक्त अग्रभागवाले बाणसे अत्यन्त दृढ़तापूर्वक विष्णुके चौड़े वक्षःस्थल पर आघात किया ॥ २६ ॥ उस बाणके तीव्र प्रहारसे अत्यधिक आहत हुए वे विष्णु महान् पीड़ा प्राप्त करके मूर्च्छित होकर गिर पड़े। इसके बाद क्षणभरमें चेतनाको प्राप्तकर वे विष्णु उठ करके उनपर सभी दिव्यास्त्रोंका प्रयोग करने लगे। शिवजीके सेनापति वीरभद्रने भी विष्णुके धनुषसे छूटे हुए सभी बाणोंको अपने घोर बाणोंसे सरलतापूर्वक काट दिया ॥ २७–२९ ॥

तदनन्तर क्रोधसे लाल नेत्रोंवाले विष्णुने अपने नामसे अंकित और कहीं भी प्रतिरुद्ध न होनेवाले बाणको गणेश्वर वीरभद्रको लक्ष्य करके छोड़ा। भगवान् वीरभद्रने भी अपने भद्र नामक श्रेष्ठ बाणसे उस बाणको अपने पास बिना आये ही उसके मार्गमें सैकड़ों टुकड़े कर दिये । पुनः एक बाणसे विष्णुके शार्ङ्गधनुषको और दो बाणोंसे गरुड़के पंखों को एक निमेषमें काट दिया, यह अद्भुत घटना हो गयी ॥ ३० – ३११ / २ ॥ इसके बाद योगबलके द्वारा विष्णुने हाथोंमें शंख, चक्र और गदा धारण किये हुए हजारों भयंकर देवताओंको अपने शरीरसे उत्पन्न किया, किंतु महाबाहु वीरभद्रने अपने नेत्रसे निकली हुई अग्निसे उन सभीको क्षणमात्रमें इस तरह दग्ध कर दिया, जिस तरह शिवजीने तीनों पुरोंको भस्म कर दिया था ॥ ३२ – ३३१/२ ॥ तब विष्णु अति क्रोधित हो शीघ्रतासे अपना चक्र उठाकर उसे वीरभद्रपर चलानेके लिये उद्यत हुए। उस समय अपने सामने चक्र उठाकर उन्हें खड़ा देखकर वीरभद्रने हँसते हुए बिना प्रयत्न किये ही उसे स्तम्भित कर दिया। तब वीरभद्रपर आघात करनेकी इच्छा रखते हुए भी विष्णु अपने उस अप्रतिम और कठोर चक्रको चलानेमें असमर्थ हो गये ॥ ३४-३६१/२ ॥

उस समय एक हाथमें चक्र लिये विष्णु वहींपर दीर्घ नि:श्वास छोड़ते हुए आलस्ययुक्त होकर पत्थरके समान निश्चल हो गये । विष्णु उसी तरह हो गये, जैसे शरीरसे रहित जीव, शृंगविहीन बैल तथा दाढ़से रहित सिंह [किंकर्तव्यविमूढ़] हो जाता है । तब उन्हें दुर्गतिमें पड़ा देखकर इन्द्रादि देवगण वीरभद्रसे लड़नेके लिये इस तरह सन्नद्ध हो गये, मानो वृष क्रुद्ध होकर सिंहसे संग्राम करना चाहते हों। वे कुपित होकर शस्त्र लेकर युद्ध करनेके लिये उपस्थित हो गये ॥ ३७ – ३९१/२ ॥ तब महावीर गणोंसे घिरे हुए तथा साक्षात् रुद्रके सदृश शरीरवाले निष्कलंक वीरभद्रने उनकी तरफ उसी प्रकार देखा, जैसे सिंह क्षुद्र मृगोंको देखता है । [ तदुपरान्त वीरभद्रने] अट्टहासके द्वारा अपना वज्र छोड़नेकी इच्छा रखनेवाले इन्द्रका वज्रयुक्त उठा हुआ दाहिना हाथ स्तम्भित कर दिया, जिससे वह चित्रलिखित – जैसा हो गया। उसी तरह अन्य समस्त देवगणोंकी शस्त्रोंके सहित उठी हुई भुजाएँ भी आलसी पुरुषोंके कार्योंके समान स्तम्भित हो गयीं ॥ ४०–४३ ॥

इस प्रकार भगवान् के द्वारा अपना सम्पूर्ण ऐश्वर्य नष्ट कर दिये जानेके कारण सभी देवता संग्राममें उनके सम्मुख स्थित रहनेमें असमर्थ हो गये और स्तम्भित अंगोंसहित भयसे व्याकुल हो भागने लगे । वीरभद्रके तेजके भयसे व्याकुल वे युद्धस्थलमें टिक न सके ॥ ४४-४५ ॥ तब महान् भुजाओंवाले वीरभद्र भागते हुए वीर देवगणोंको अपने तीखे बाणोंसे इस प्रकार बींधने लगे, मानो पर्वतोंपर मेघ वर्षा कर रहा हो ॥ ४६ ॥ उस समय उन वीरभद्रकी देदीप्यमान शस्त्रोंसे युक्त, परिघके समान बहुत-सी भुजाएँ प्रकाशित हो उठीं, मानो वे अग्निज्वालासहित सर्प हों। अनेक प्रकारके अस्त्र- शस्त्रोंको छोड़ते हुए वे वीरभद्र उसी प्रकार शोभित हुए, जैसे कल्पादिमें सभी प्राणियोंकी सृष्टि करते हुए ब्रह्माजी शोभित होते हैं ॥ ४७-४८ ॥ जैसे सूर्य अपनी रश्मियोंसे पृथ्वीको आच्छादित कर देता है, उसी तरह वीरभद्रने थोड़ी ही देर में बाणोंसे दिशाओंको आच्छन्न कर दिया । गणेश्वर वीरभद्रके सुवर्णमण्डित बाण आकाश – मण्डलमें उछलते हुए [ अपनी त्वरित गति तथा द्युतिके कारण ] स्वयं बिजलियोंके उपमान बन गये । जिस प्रकार डुण्डुभ मेढकका रुधिर पी जाता है तथा उसे प्राणविहीन कर देता है, उसी प्रकार वे बड़े-बड़े बाण देवताओंके रुधिररूपी आसवको पीने लगे और उन्हें प्राणहीन करने लगे ॥ ४९–५१ ॥

[उस समय ] किन्हींकी भुजाएँ कट गयीं, किन्हींके सुन्दर मुख छिन्न-भिन्न हो गये, किन्हींकी पसलियाँ टूट गयीं और कुछ देवता पृथ्वीपर गिर पड़े। बाणोंके द्वारा अंगोंके पीड़ित होनेसे तथा सन्धिभागके विच्छिन्न हो जानेसे कुछ देवता आँखें फाड़कर पृथ्वीपर गिरकर मर गये, कोई पृथ्वीमें प्रविष्ट होनेकी इच्छासे और कोई-कोई छिपनेके लिये स्थान न प्राप्तकर आपसमें एक- – दूसरेके शरीरमें छिप गये, कोई पृथ्वीमें प्रविष्ट हो गये और कोई पर्वतोंकी गुफाओंमें छिप गये, कोई आसमानमें चले गये तथा कोई देवता जलमें छिप गये ॥ ५२-५४१/२ ॥ छिन्न-भिन्न अंगोंवाले देवताओंके सहित वे वीरभद्र इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे, जिस प्रकार प्रजाका संहार करके भगवान् भैरव सुशोभित होते हैं अथवा जिस प्रकार त्रिपुरको दग्ध करके त्रिपुरारि शोभित हुए थे। इस प्रकार गणेश्वरके द्वारा उपद्रुत (भगाये गये) देवगणोंकी सारी सेना छिन्न-भिन्न हो दीन, अशरण एवं बीभत्स दिखायी देने लगी ॥ ५५–५७ ॥

उस समय उन देवगणोंके रक्तकी घोर नदी प्रवाहित होने लगी, जो प्राणियोंको भयभीत कर देनेवाली थी ॥ ५८ ॥ उस समय रुधिरसे पूर्णतः सिक्त यज्ञभूमि ऐसी प्रतीत होने लगी, मानो शुम्भका वधकर रक्तसे गीले वस्त्रोंवाली श्यामा कौशिकी देवी हों ॥ ५९ ॥ अत्यन्त भयानक उस महायुद्धके होनेपर पृथ्वी भयसन्त्रस्त होकर काँपने लगी, समुद्र भी व्याकुल हो उठा तथा उसमें महागम्भीर आवर्त एवं लहरें उठने लगीं, उत्पातसूचक उल्कापात होने लगे, वृक्षोंकी शाखाएँ टूटने लगीं, सभी दिशाएँ मलिन हो गयीं और अमंगलसूचक वायु बहने लगा। अहो ! भाग्यकी कैसी विडम्बना है कि यह अश्वमेधयज्ञ है, जिसके यजमान स्वयं ब्रह्माके पुत्र प्रजापति दक्ष हैं, धर्म आदि सदस्य हैं, भगवान् विष्णु रक्षक हैं और साक्षात् इन्द्रादि देवता अपना-अपना भाग ग्रहण कर रहे हैं, फिर भी ऋत्विजोंके सहित यजमान तथा उस यज्ञपुरुषका सिर शीघ्र ही कट गया, यह तो बड़ा ही उत्तम फल प्राप्त हुआ ! अतः वेदविरुद्ध होनेपर भी वेदसम्मत प्रतीत होनेवाला, ईश्वर [की महत्तासे विरुद्ध होनेके कारण ] – बहिष्कृत तथा असज्जनोंके द्वारा परिगृहीत कर्म कभी नहीं करना चाहिये ॥ ६०–६५ ॥

महान् पुण्य करके तथा सैकड़ों यज्ञ करके भी महेश्वरके प्रति भक्तिसे रहित व्यक्ति उन [ अनुष्ठानों] का फल प्राप्त नहीं करता है । किंतु जो बहुत बड़ा पाप करके भी भक्तिपूर्वक शिवका यजन करता है, वह सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये । इस विषयमें बहुत कहना व्यर्थ है, शिवनिन्दा करनेवालेका दान, तप, यज्ञ तथा होम व्यर्थ है ॥ ६६-६८ ॥ तदनन्तर उस युद्धमें वीरभद्रके धनुषसे छूटे हुए बाणोंसे पीड़ित हुए नारायण, रुद्र एवं लोकपालोंसहित सभी देवता अत्यन्त दुःखित होकर पलायन करने लगे ॥ ६९ ॥ कुछ देवता बालोंके कट जानेसे युद्धसे भाग निकले, कोई शरीरके भारी होनेके कारण [ भागनेमें असमर्थ हो दुःखसे] बैठ गये । कटे-फटे मुखोंवाले कुछ देवता गिर पड़े तथा कुछ देववीरोंकी मृत्यु हो गयी । कितने देवता इतने व्याकुल हो गये कि उनके वस्त्र, आभरण, अस्त्र एवं शस्त्र शिथिल होकर खिसक गये और वे मद, दर्प तथा बलका त्याग करके दीनभाव प्रदर्शित करते हुए गिर पड़े। इस प्रकार अप्रतिहत वे गणेश्वर वीरभद्र अपने दुर्भेद्य अस्त्रोंसे विधिहीन दक्षयज्ञको विनष्टकर अपने मुख्य गणोंके मध्य उसी प्रकार शोभायमान हुए, जिस प्रकार ऋषभों अर्थात् वन्य पशुओंके मध्य सिंह शोभित होता है ॥ ७०–७२ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें दक्षयज्ञविध्वंसवर्णन नामक बाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २२ ॥

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