शिवमहापुराण — वायवीयसंहिता [उत्तरखण्ड] — अध्याय 24
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
वायवीयसंहिता [उत्तरखण्ड] चौबीसवाँ अध्याय

शिवपूजनकी विधि

उपमन्यु कहते हैं— यदुनन्दन ! विशुद्धि के लिये मूलमन्त्र से गन्ध, चन्दन-मिश्रित जल के द्वारा पूजास्थान का प्रोक्षण करना चाहिये। इसके बाद वहाँ फूल बिखेरे ॥ १ ॥ अस्त्र-मन्त्र ( फट्)- का उच्चारण करके विघ्नों को भगाये । फिर कवच – मन्त्र (हुम्) – से पूजास्थान को सब ओर से अवगुण्ठित करे । अस्त्र – मन्त्र का सम्पूर्ण दिशाओं में न्यास करके पूजाभूमि की कल्पना करे । वहाँ सब ओर कुश बिछा दे और प्रोक्षण आदि के द्वारा उस भूमि का प्रक्षालन करे। पूजा-सम्बन्धी समस्त पात्रों का शोधन करके द्रव्यशुद्धि करे ॥ २-३ ॥ प्रोक्षणीपात्र, अर्घ्यपात्र, पाद्यपात्र और आचमनीय- पात्र – इन चारों का प्रक्षालन, प्रोक्षण और वीक्षण करके इनमें शुभ जल डाले और जितने मिल सकें, उन सभी पवित्र द्रव्यों को उनमें डाले ॥ ४-५ ॥ पंचरत्न, चाँदी, सोना, गन्ध, पुष्प, अक्षत आदि तथा फल, पल्लव और कुश – ये सब अनेक प्रकार के पुण्य द्रव्य हैं। स्नान और पीने के जल में विशेषरूप से सुगन्ध आदि एवं शीतल मनोज्ञ पुष्प आदि छोड़े ॥ ६-७ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


पाद्यपात्र में खश और चन्दन छोड़ना चाहिये । आचमनीय-पात्र में विशेषत: जायफल, कंकोल, कपूर, सहिजन और तमाल का चूर्ण करके डालना चाहिये। इलायची सभी पात्रों में डालने की वस्तु है । कपूर, चन्दन, कुशाग्रभाग, अक्षत, जौ, धान, तिल, घी, सरसों, फूल और भस्म – इन सबको अर्घ्यपात्र में छोड़ना चाहिये ॥ ८–१० ॥ कुश, फूल, जौ, धान, सहिजन, तमाल और भस्म – इन सबका प्रोक्षणीपात्र में प्रक्षेपण करना चाहिये ॥ ११ ॥ सर्वत्र मन्त्र-न्यास करके कवच – मन्त्र से प्रत्येक पात्र को बाहर से आवेष्टित करे । तत्पश्चात् अस्त्र – मन्त्र से उसकी रक्षा करके धेनुमुद्रा दिखाये । पूजा के सभी द्रव्यों का प्रोक्षणीपात्र के जल से मूलमन्त्र द्वारा प्रोक्षण करके विधिवत् शोधन करे ॥ १२-१३ ॥ श्रेष्ठ साधक को चाहिये कि अधिक पात्रों के न मिलने पर सब कर्मों में एकमात्र प्रोक्षणीपात्र को ही सम्पादित करके रखे और उसी के जल से सामान्यतः अर्घ्य आदि दे। तत्पश्चात् मण्डप के दक्षिण द्वारभाग में भक्ष्य – भोज्य आदि के क्रम से विधिपूर्वक विनायकदेव की पूजा करके अन्तःपुर के स्वामी साक्षात् नन्दी की भलीभाँति पूजा करे ॥ १४-१५१/२

उनकी अंगकान्ति सुवर्णमय पर्वत के समान है । समस्त आभूषण उनकी शोभा बढ़ाते हैं । मस्तक पर बालचन्द्र का मुकुट सुशोभित होता है । उनकी मूर्ति सौम्य है। वे तीन नेत्र और चार भुजाओं से युक्त हैं । उन प्रभु के एक हाथ में चमचमाता हुआ त्रिशूल, दूसरे में मृगी, तीसरे में टंक और चौथे में तीखा बेंत है । उनके मुख की कान्ति चन्द्रमण्डल के समान उज्ज्वल है । मुख वानर के सदृश है ॥ १६–१७१/२ ॥ द्वार के उत्तर पार्श्व में उनकी पत्नी सुयशा हैं, जो मरुद्गणों की कन्या हैं। वे उत्तम व्रत का पालन करने वाली हैं और पार्वतीजी के चरणों का शृंगार करने में लगी रहती हैं ॥ १८१/२ ॥ उनका पूजन करके परमेश्वर शिव के भवन के भीतर प्रवेश करे और उन द्रव्यों से शिवलिंग का पूजन करके निर्माल्य को वहाँ से हटा ले । तदनन्तर फूल धोकर शिवलिंग के मस्तक पर उसकी शुद्धि के लिये रखे ॥ १९-२० ॥

फिर हाथ में फूल ले यथाशक्ति मन्त्र का जप करे । इससे मन्त्र की शुद्धि होती है। ईशानकोण में चण्ड की आराधना करके उन्हें पूर्वोक्त निर्माल्य अर्पित करे ॥ २१ ॥ तत्पश्चात् इष्टदेव के लिये आसन की कल्पना करे । क्रमशः आधार आदि का ध्यान करे- कल्याणमयी आधार- शक्ति भूतल पर विराजमान हैं और उनकी अंगकान्ति श्याम है। इस प्रकार उनके स्वरूप का चिन्तन करे | उनके ऊपर फन उठाये सर्पाकार अनन्त बैठे हैं, जिनकी अंगकान्ति उज्ज्वल है। वे पाँच फनों से युक्त हैं और आकाश को चाटते हुए-से जान पड़ते हैं । अनन्त के ऊपर भद्रासन है, जिसके चारों पायों में सिंह की आकृति बनी हुई है । वे चारों पाये क्रमशः धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्यरूप हैं ॥ २२–२४ ॥ धर्म नाम वाला पाया आग्नेयकोण में है और उसका रंग सफेद है। ज्ञान नामक पाया नैर्ऋत्यकोण में है और उसका रंग लाल है। वैराग्य वायव्यकोण में है और उसका रंग पीला है तथा ऐश्वर्य ईशानकोण में है और उसका वर्ण श्याम है। अधर्म आदि उस आसन के पूर्वादि भागों में क्रमशः स्थित हैं अर्थात् अधर्म पूर्व में, अज्ञान दक्षिण में, अवैराग्य पश्चिम में और अनैश्वर्य उत्तर में हैं । इनके अंग राजावर्त मणि के समान हैं — ऐसी भावना करनी चाहिये। इस भद्रासन को ऊपर से आच्छादित करने वाला श्वेत निर्मल पद्ममय आसन है ॥ २५-२६ ॥

अणिमा आदि आठ ऐश्वर्य – गुण ही उस कमल के आठ दल हैं; वामदेव आदि रुद्र अपनी वामा आदि शक्तियों के साथ उस कमल के केसर हैं। वे मनोन्मनी आदि अन्तःशक्तियाँ ही बीज हैं, अपर वैराग्य कर्णिका है, शिवस्वरूप ज्ञान नाल है, शिवधर्म कन्द है, कर्णिका के ऊपर तीन मण्डल (चन्द्रमण्डल, सूर्यमण्डल और वह्निमण्डल) हैं और उन मण्डलों के ऊपर आत्मतत्त्व, विद्यातत्त्व तथा शिवतत्त्वरूप त्रिविध आसन हैं ॥ २७–२९ ॥ इन सब आसनों के ऊपर विचित्र बिछौनों से आच्छादित एक सुखद दिव्य आसन की कल्पना करे, जो शुद्ध विद्या से अत्यन्त प्रकाशमान हो ॥ ३० ॥ आसन के अनन्तर आवाहन, स्थापन, संनिरोधन, निरीक्षण एवं नमस्कार करे। इन सबकी पृथक्-पृथक् मुद्राएँ बाँधकर दिखाये 1  ॥ ३१ ॥

तदनन्तर पाद्य, आचमन, अर्घ्य, [आदि देकर स्नान कराये, तदुपरान्त वस्त्र, यज्ञोपवीत, ] गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, [नैवेद्य] और ताम्बूल देकर शिवा और शिव को समर्पित करे। अथवा उपर्युक्त रूप से आसन और मूर्ति की कल्पना करके मूलमन्त्र एवं अन्य ईशानादि ब्रह्ममन्त्रों द्वारा सकलीकरण की क्रिया करके देवी पार्वतीसहित परम कारण शिव का आवाहन करे ॥ ३२-३३१/२

भगवान् शिव की अंगकान्ति शुद्ध स्फटिक के समान उज्ज्वल है। वे निश्चल, अविनाशी, समस्त लोकों के परम कारण, सर्वलोकस्वरूप, सबके बाहर-भीतर विद्यमान, सर्वव्यापी, अणु-से-अणु और महान् से भी महान् हैं ॥ ३४-३५ ॥ भक्तों को अनायास ही दर्शन देते हैं। सबके ईश्वर एवं अव्यय हैं। ब्रह्मा, इन्द्र, विष्णु तथा रुद्र आदि देवताओं के लिये भी अगोचर हैं । सम्पूर्ण वेदों के सारतत्त्व हैं। विद्वानों के भी दृष्टिपथ में नहीं आते हैं । आदि, मध्य और अन्त से रहित हैं । भवरोग से ग्रस्त प्राणियों के लिये औषधरूप हैं। शिवतत्त्व के रूप में विख्यात हैं और सबका कल्याण करने के लिये जगत् में सुस्थिर शिवलिंग के रूप में विद्यमान हैं ॥ ३६–३७१/२

ऐसी भावना करके भक्तिभाव से गन्ध, धूप, दीप, पुष्प और नैवेद्य – इन पाँच उपचारोंद्वारा उत्तम शिवलिंगका पूजन करे । परमात्मा महेश्वर शिवकी लिंगमयी मूर्तिके स्नानकालमें जय-जयकार आदि शब्द और मंगलपाठ करे ॥ ३८-३९ ॥ पंचगव्य, घी, दूध, दही, मधु [ और शर्करा ] -के साथ फल-मूलके सारतत्त्वसे, तिल, सरसों, सत्तूके उबटनसे, जौ आदिके उत्तम बीजोंसे, उड़द आदिके चूर्णोंसे तथा आटा आदिसे आलेपन करके मन्दोष्ण जलसे शिवलिंगको नहलाये ॥ ४०-४१ ॥ लेप और गन्धके निवारणके लिये बिल्वपत्र आदिसे रगड़े। फिर जलसे नहलाकर चक्रवर्ती सम्राट्के लिये उपयोगी उपचारोंसे (अर्थात् सुगन्धित तेल- फुलेल आदिके द्वारा ) सेवा करे । सुगन्धयुक्त आँवला और हल्दी भी क्रमशः अर्पित करे। इन सब वस्तुओंसे शिवलिंग अथवा शिवमूर्तिका भलीभाँति शोधन करके चन्दनमिश्रित जल, कुश – पुष्पयुक्त जल, सुवर्ण एवं रत्नयुक्त जल तथा मन्त्रसिद्ध जलसे क्रमशः स्नान कराये ॥ ४२–४४ ॥ इन सब द्रव्योंका मिलना सम्भव न होनेपर यथासम्भव संगृहीत वस्तुओंसे युक्त जलद्वारा अथवा केवल मन्त्राभि- मन्त्रित जलद्वारा श्रद्धापूर्वक शिवको स्नान कराये ॥ ४५ ॥

कलश, शंख और वर्धनीसे तथा कुश और पुष्पसे युक्त हाथके जलसे मन्त्रोच्चारणपूर्वक इष्टदेवताको नहलाना चाहिये। पवमानसूक्त, रुद्रसूक्त, नीलरुद्रसूक्त, त्वरितमन्त्र, लिंगसूक्त आदिसूक्तोंसे, अथर्वशीर्ष, ऋग्वेद, सामवेद तथा शिवसम्बन्धी ईशानादि पंच – ब्रह्ममन्त्र, शिवमन्त्र तथा प्रणवसे देवदेवेश्वर शिवको स्नान कराये ॥ ४६–४८ ॥ जैसे महादेवजीको स्नान कराये, उसी तरह महादेवी पार्वतीको भी स्नान आदि कराना चाहिये। उन दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है; क्योंकि वे दोनों सर्वथा समान हैं । पहले महादेवजीके उद्देश्यसे स्नान आदि क्रिया करके फिर देवीके लिये उन्हीं देवाधिदेवके आदेशसे सब कुछ करे ॥ ४९-५० ॥ अर्धनारीश्वरकी पूजा करनी हो तो उसमें पूर्वापरका विचार नहीं है। अतः उसमें महादेव और महादेवीकी साथ-साथ पूजा होती रहती है। शिवलिंगमें या अन्यत्र मूर्ति आदिमें अर्द्धनारीश्वरकी भावनासे सभी उपचारोंका शिव और शिवाके लिये एक साथ ही उपयोग होता है ॥ ५१ ॥

पवित्र सुगन्धित जलसे शिवलिंगका अभिषेक करके उसे वस्त्रसे पोंछे। फिर नूतन वस्त्र एवं यज्ञोपवीत चढ़ाये । तत्पश्चात् पाद्य, आचमन, अर्घ्य, गन्ध, पुष्प, आभूषण, धूप, दीप, नैवेद्य, पीनेयोग्य जल, मुखशुद्धि, पुनराचमन, मुखवास तथा सम्पूर्ण रत्नोंसे जटित सुन्दर मुकुट, आभूषण, नाना प्रकारकी पवित्र पुष्पमालाएँ, छत्र, चँवर, व्यजन, ताड़का पंखा और दर्पण देकर सब प्रकारकी मंगलमयी वाद्यध्वनियोंके साथ इष्टदेवकी नीराजना करे (आरती उतारे)। उस समय गीत और नृत्य आदिके साथ जय-जयकार भी होनी चाहिये ॥ ५२ – ५६ ॥ सोना, चाँदी, ताँबा अथवा मिट्टीके सुन्दर पात्रमें कमल आदिके शोभायमान फूल रखे । कमलके बीज तथा दही, अक्षत आदि भी डाल दे । त्रिशूल, शंख, दो कमल, नन्द्यावर्त नामक शंखविशेष, सूखे गोबरकी आग, श्रीवत्स, स्वस्तिक, दर्पण, वज्र तथा अग्नि आदिसे चिह्नित पात्रमें आठ दीपक रखे। वे आठों आठ दिशाओंमें रहें और एक नौवाँ दीपक मध्यभागमें रहे। इन नवों दीपकोंमें वामा आदि नव शक्तियोंका ध्यान तथा पूजन करे ॥ ५७ – ५९ ॥

फिर कवचमन्त्रसे आच्छादन और अस्त्रमन्त्रद्वारा सब ओरसे संरक्षण करके धेनुमुद्रा दिखाकर दोनों हाथोंसे पात्रको ऊपर उठाये अथवा पात्रमें क्रमशः पाँच दीप रखे । चारको चारों कोनोंमें और एकको बीचमें स्थापित करे ॥ ६०-६१ ॥ तत्पश्चात् उस पात्रको उठाकर शिवलिंग या शिवमूर्ति आदिके ऊपर क्रमशः तीन बार प्रदक्षिण क्रमसे घुमाये और मूलमन्त्रका उच्चारण करता रहे। तदनन्तर मस्तकपर अर्घ्य और सुगन्धित भस्म चढ़ाये । फिर पुष्पांजलि देकर उपहार निवेदन करे । इसके बाद जल देकर आचमन कराये। फिर पाँच सुगन्धित द्रव्योंसे युक्त ताम्बूल भेंट करे ॥ ६२–६४ ॥  तत्पश्चात् प्रोक्षणीय पदार्थोंका प्रोक्षण करके नृत्य और गीतका आयोजन करे । लिंग या मूर्ति आदिमें शिव तथा पार्वतीका चिन्तन करते हुए यथाशक्ति शिव- मन्त्रका जप करे। जपके पश्चात् प्रदक्षिणा, नमस्कार, स्तुतिपाठ, आत्मसमर्पण तथा कार्यका विनयपूर्वक विज्ञापन करे ॥ ६५-६६ ॥

फिर अर्घ्य और पुष्पांजलि दे विधिवत् मुद्रा बाँधकर इष्टदेवसे त्रुटियोंके लिये क्षमा-प्रार्थना करे । तत्पश्चात् मूर्तिसहित देवताका विसर्जन करके अपने हृदयमें उसका चिन्तन करे । पाद्यसे लेकर मुखवासपर्यन्त पूजन करना चाहिये अथवा अर्घ्य आदिसे पूजन आरम्भ करना चाहिये या अधिक संकटकी स्थितिमें प्रेमपूर्वक केवल फूलमात्र चढ़ा देना चाहिये ॥ ६७-६८ ॥ प्रेमपूर्वक उतनेसे ही अर्थात् फूलमात्र चढ़ा देनेसे ही परम धर्मका सम्पादन हो जाता है । जबतक प्राण रहे शिवका पूजन किये बिना भोजन न करे ॥ ६९ ॥ यदि कोई पापी स्वेच्छासे भोजन ग्रहण करता है, तो उसके पापका प्रतिकार नहीं हो सकता । यदि भूलसे खा ले तो उसे प्रयत्नपूर्वक उगल दे। स्नान करके शिव तथा पार्वतीका दोगुना पूजनकर निराहार रहकर ब्रह्मचर्यपूर्वक शिवका दस हजार जप करे और दूसरे दिन यथाशक्ति शिवको अथवा शिवभक्तको सुवर्ण आदि प्रदानकर महापूजा करके वह पवित्र हो जाता है ॥ ७०–७२ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके उत्तरखण्डमें शास्त्रोक्त शिवपूजनवर्णन नामक चौबीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २४ ॥

1. * दोनों हाथोंकी अंजलि बनाकर अनामिका अंगुलिके मूलपर्वपर अँगूठेको लगा देना ‘आवाहन’ मुद्रा है। इसी आवाहन मुद्राको अधोमुख कर दिया जाय तो वह ‘स्थापन’ मुद्रा हो जाती है । यदि मुट्ठीके भीतर अँगूठेको डाल दिया जाय और दोनों हाथोंकी मुट्ठी संयुक्त कर दी जाय तो वह ‘संनिरोधन’ मुद्रा कही गयी है। दोनों मुट्ठियोंको उत्तान कर देनेपर ‘सम्मुखीकरण’ नामक मुद्रा होती है। इसीको यहाँ ‘निरीक्षण’ नामसे कहा गया है। शरीरको दण्डकी भाँति देवताके सामने डाल देना, मुखको नीचेकी ओर रखना और दोनों हाथोंको देवताकी ओर फैला देना – साष्टांग प्रणामकी इस क्रियाको ही यहाँ ‘नमस्कार’ मुद्रा कहा गया है

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