शिवमहापुराण — वायवीयसंहिता [ पूर्वखण्ड] — अध्याय 24
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
वायवीयसंहिता [ पूर्वखण्ड] चौबीसवाँ अध्याय
शिवका तपस्याके लिये मन्दराचलपर गमन, मन्दराचलका वर्णन, शुम्भ-निशुम्भ दैत्यकी उत्पत्ति, ब्रह्माकी प्रार्थनासे उनके वधके लिये शिव और शिवाके विचित्र लीला – प्रपंचका वर्णन

तदनन्तर ऋषियोंने पूछा – प्रभो ! अपने गणों तथा देवीके साथ अन्तर्धान होकर भगवान् शिव कहाँ गये, कहाँ रहे और क्या करके विरत हुए ? ॥ १ ॥

वायुदेव बोले- महर्षियो ! पर्वतोंमें श्रेष्ठ और विचित्र कन्दराओंसे सुशोभित जो परम सुन्दर मन्दराचल है, वही अपनी तपस्याके प्रभावसे देवाधिदेव महादेवजी- का प्रिय निवास-स्थान हुआ । उसने पार्वती और शिवको अपने सिरपर ढोनेके लिये बड़ा भारी तप किया था और दीर्घकालके बाद तब उसे उनके चरणारविन्दोंके स्पर्शका सुख प्राप्त हुआ ॥ २-३ ॥ उस पर्वतके सौन्दर्यका विस्तारपूर्वक वर्णन सहस्रों मुखोंद्वारा सौ करोड़ वर्षोंमें भी नहीं किया जा सकता । उसके सामने समस्त पर्वतोंका सौन्दर्य तुच्छ हो जाता है। उसका सौन्दर्यवर्णन सम्भव ही नहीं है, अतएव मुझमें उसके सौन्दर्यवर्णनके प्रति उत्साह नहीं है ॥ ४-५ ॥ इस सम्बन्धमें यही कहा जा सकता है कि इस सुन्दर पर्वतपर किसी अपूर्व समृद्धिके कारण इसमें शिवजीके निवासकी योग्यता है । इसीलिये महादेवजीने देवीका प्रिय करनेकी इच्छासे उस अत्यन्त रमणीय पर्वतको अपना अन्तःपुर बना लिया ॥ ६-७ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


उस पर्वतकी मध्यवर्ती भूमियाँ, स्वच्छ पाषाण तथा वृक्ष शिव तथा पार्वतीके नित्य सान्निध्यके कारण समस्त संसार [के सौभाग्य]-को तिरस्कृत करते हैं ॥ ८ ॥ संसारके माता-पिता देवी पार्वती तथा भगवान् शंकरके स्नान, पान आदिके लिये इधर-उधर बहते हुए झरनोंका शीतल, निर्मल तथा सुपेय जल नित्यप्रति अर्पित करके [यथेष्ट] पुण्य संस्कारोंको प्राप्त किये हुए उस हिमालयका मानो पर्वतोंके अधिपति पदपर [उन झरनोंके जलसे ] अभिषेक – सा किया जा रहा है ॥ ९-१० ॥ रात्रिके समय [ उदित हुआ ] चन्द्रमा हिमालयके शिखरपर स्थित है, [ जिससे प्रतीत होता है कि ] मानो पर्वतोंके साम्राज्यपर अधिष्ठित उस गिरिराजके ऊपर चन्द्ररूपी राजछत्र शोभायमान हो रहा है ॥ ११ ॥

[ पर्वतीय भूमिपर विचरण करती हुई ] चमरी गायोंके हिलते हुए बालोंसे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानो समस्त पर्वतोंके साम्राज्यपर अधिष्ठित उस हिमालयके ऊपर चँवर डुलाये जा रहे हों। प्रभातकालमें उदित हुए सूर्यमें प्रतिबिम्बित- सा होता हुआ हिमालय ऐसा प्रतीत हो रहा है, मानो रत्नभूषित वह पर्वतराज अपने देहसौन्दर्यको दर्पणमें देखनेको उद्यत – सा हो गया हो ॥ १२-१३ ॥ लताजालरूपी जटाओंको धारण किये हुए वे [पर्वतीय] वृक्ष वाचाल पक्षियोंके कलरव, लटकते हुए कोमल पल्लवों तथा वायुद्वारा कम्पित लताओंसे झरते हुए पुष्पोंके द्वारा मानो तपस्वियोंकी भाँति गिरिराज हिमालयका समर्चन तथा आशीर्वाचनके साथ विजयाभिनन्दन-सा करते हुए प्रतीत हो रहे हैं ॥ १४-१५ ॥ ऊँचे, नीचे तथा तिरछे शृंगोंसे युक्त वह पर्वत मानो पृथ्वीसे पातालमें गिर-सा रहा है अथवा भूपृष्ठसे ऊपरकी ओर उछल-सा रहा है या सभी दिशाओंमें व्याप्त होकर आकाशमें घूम-सा रहा है अथवा सारे संसारको देखता हुआ सदा नृत्य-सा कर रहा है। वह पर्वत विस्तृत उदरवाली विशाल कन्दराओंके द्वारा मानो अपना मुख फैलाकर सौन्दर्यातिशयको अपनेमें न पचाकर जँभाई-सा ले रहा हो या कि मानो सारे संसारको निगल – सा रहा हो, अथवा सागरको पी-सा रहा हो या अपने भीतर छिपे हुए अन्धकारका वमन-सा कर रहा हो अथवा बादलोंसे आकाशको मदमत्त- सा करता हुआ प्रतीत हो रहा है ॥ १६–१९ ॥

दर्पणके समान [उज्ज्वल] अन्तर्देशवाली आवास- भूमियों तथा अपनी सघन तथा स्निग्ध छाया – से सूर्यके तापको दूर करनेवाले आश्रमके वृक्षों तथा नदियों, सरोवरों, तड़ागों आदिको छूकर बहनेवाली शीतल हवाओंको उन शिवा-शिवने जहाँ-तहाँ विश्राम करके कृतकृत्य किया । इस सर्वश्रेष्ठ पर्वतका स्मरण करके रैभ्य – आश्रमके समीप स्थित हुए अम्बिकासहित भगवान् त्रिलोचन वहाँसे अन्तर्धान होकर चले गये। मन्दराचलके उद्यानमें पहुँचकर देवी- सहित महेश्वर वहाँकी रमणीय तथा दिव्य अन्तःपुर की भूमियोंमें रमण करने लगे ॥ २०–२३ ॥ जब इस तरह कुछ समय बीत गया और [ ब्रह्माजीकी मैथुनी सृष्टिके द्वारा ] प्रजाएँ बढ़ गयीं, तब शुम्भ और निशुम्भ नामक दो दैत्य उत्पन्न हुए। वे परस्पर भाई थे। उनके तपोबलसे प्रभावित हो परमेष्ठी ब्रह्माने उन दोनों भाइयोंको यह वर दिया था कि ‘इस जगत् के किसी भी पुरुषसे तुम मारे नहीं जा सकोगे।’ उन दोनोंने ब्रह्माजीसे यह प्रार्थना की थी कि ‘पार्वती देवीके अंशसे उत्पन्न जो अयोनिजा कन्या उत्पन्न हो, जिसे पुरुषका स्पर्श तथा रति नहीं प्राप्त हुई हो तथा जो अलंघ्य पराक्रमसे सम्पन्न हो, उसके प्रति कामभावसे पीड़ित होनेपर हम युद्धमें उसीके हाथों मारे जायँ।’ उनकी इस प्रार्थनापर ब्रह्माजीने ‘तथास्तु’ कहकर स्वीकृति दे दी ॥ २४–२७ ॥

तभीसे युद्धमें इन्द्र आदि देवताओंको जीतकर उन दोनोंने जगत् को अनीतिपूर्वक वेदोंके स्वाध्याय और वषट्कार आदिसे रहित कर दिया। तब ब्रह्माने उन दोनोंके वधके लिये देवेश्वर शिवसे प्रार्थना की- ‘प्रभो! आप एकान्तमें देवीकी निन्दा करके भी जैसे-तैसे उन्हें क्रोध दिलाइये और उनके रूप-रंगकी निन्दासे उत्पन्न हुई, कामभावसे रहित, कुमारीस्वरूपा शक्तिको निशुम्भ और शुम्भके वधके
लिये देवताओंको अर्पित कीजिये । ‘ ॥ २८-३० ॥ ब्रह्माजीके इस तरह प्रार्थना करनेपर भगवान् नीललोहित रुद्र एकान्तमें पार्वतीकी निन्दा – सी करते हुए मुसकराकर बोले—‘तुम तो काली हो ।’ तब सुन्दर वर्णवाली देवी पार्वती अपने श्यामवर्णके कारण आक्षेप सुनकर कुपित हो उठीं और पतिदेवसे मुसकराकर समाधानरहित वाणीद्वारा बोलीं- ॥ ३१-३२ ॥

देवीने कहा— प्रभो ! यदि मेरे इस काले रंगपर आपका प्रेम नहीं है तो इतने दीर्घकालसे अपनी इच्छाका आप दमन क्यों करते रहे हैं ? ॥ ३३ ॥ जब आपको मेरे इस स्वरूपसे अरुचि थी, तो आप मेरे साथ रमण क्यों करते रहे ? हे जगत् के ईश्वर ! आपके लिये अशक्य तो कुछ भी नहीं है । आप स्वात्मारामके लिये रति सुखका साधन नहीं है, यही कारण है कि आपने बलपूर्वक कामदेवको भस्म कर दिया ॥ ३४-३५ ॥ कोई स्त्री कितनी ही सर्वांगसुन्दरी क्यों न हो, यदि पतिका उसपर अनुराग नहीं हुआ तो अन्य समस्त गुणोंके साथ ही उसका जन्म लेना व्यर्थ हो जाता है । स्त्रियोंकी यह सृष्टि ही पतिके अनुरागका प्रधान अंग है। यदि वह उससे वंचित हो गयी तो इसका और कहाँ उपयोग हो सकता है? इसलिये आपने एकान्तमें जिसकी निन्दा की है, उस वर्णको त्यागकर अब मैं दूसरा वर्ण ग्रहण करूँगी अथवा स्वयं ही मिट जाऊँगी ॥ ३६–३८ ॥

ऐसा कहकर देवी पार्वती शय्यासे उठकर खड़ी हो गयीं और तपस्याके लिये दृढ़ निश्चय करके गद्गद कण्ठसे जानेकी आज्ञा माँगने लगीं। इस प्रकार प्रेम भंग होनेसे भयभीत हो भूतनाथ भगवान् शिव स्वयं भवानीके चरणोंमें मानो [प्रणामहेतु] गिरते हुए-से बोले – ॥ ३९-४० ॥

भगवान् शिवने कहा – प्रिये ! मैंने क्रीडा या मनोविनोदके लिये यह बात कही है। मेरे इस अभिप्रायको न जानकर तुम कुपित क्यों हो गयीं ? यदि तुमपर मेरा प्रेम नहीं होगा तो और किसपर हो सकता है ? तुम इस जगत् की माता हो और मैं पिता तथा अधिपति हूँ। फिर तुमपर मेरा प्रेम न होना कैसे सम्भव हो सकता है ! हम दोनोंका वह प्रेम भी क्या कामदेवकी प्रेरणासे हुआ है, कदापि नहीं; क्योंकि कामदेवकी उत्पत्तिसे पहले ही जगत् की उत्पत्ति हुई है। कामदेवकी सृष्टि तो मैंने साधारण लोगोंकी रतिके लिये की है। [ ऐसी दशामें] तुम मुझे कामदाहका उलाहना क्यों दे रही हो? ॥ ४१–४४ ॥ कामदेव मुझे साधारण देवताके समान मानकर मेरा कुछ-कुछ तिरस्कार करने लगा था, अतः मैंने उसे भस्म कर दिया। हम दोनोंका यह लीलाविहार भी जगत् की रक्षाके लिये ही है, अतः उसीके लिये आज मैंने तुम्हारे प्रति यह परिहासयुक्त बात कही थी । मेरे इस कथनकी सत्यता तुमपर शीघ्र ही प्रकट हो जायगी । [ तब भगवान् शिवके उस] क्रोधोत्पादक वचनको हृदयमें विचारकर देवीने कहना आरम्भ किया — ॥ ४५–४७ ॥

देवीने कहा – भगवन्! मैं पूर्वसे ही आपद्वारा कहे गये चाटुकारितापूर्ण वचनोंको सुनती आ रही हूँ, उन्हीं वचनोंके कारण धैर्यशालिनी [या कि अतीव बुद्धिमती ] होकर भी मैं आपके द्वारा ठगी जाती रही । पतिके प्यारसे वंचित होनेपर जो नारी अपने प्राणोंका भी परित्याग नहीं कर देती, वह कुलांगना और शुभलक्षणा होनेपर भी सत्पुरुषोंद्वारा निन्दित ही समझी जाती है । मेरा शरीर गौर वर्णका नहीं है, इस बातको लेकर आपको बहुत खेद होता है, अन्यथा क्रीडा या परिहासमें भी आपके द्वारा मुझे ‘काली- कलूटी’ कहा जाना कैसे सम्भव हो सकता था । मेरा कालापन आपको प्रिय नहीं है, इसलिये वह सत्पुरुषोंद्वारा भी निन्दित है; अतः तपस्याद्वारा इसका त्याग किये बिना अब मैं यहाँ रह ही नहीं सकती ॥ ४८–५१ ॥

शिव बोले- यदि अपनी श्यामताको लेकर तुम्हें इस तरह संताप हो रहा है तो इसके लिये तपस्या करनेकी क्या आवश्यकता है? तुम मेरी या अपनी इच्छामात्रसे ही दूसरे वर्णसे युक्त हो जाओ ॥ ५२ ॥

देवीने कहा- मैं आपसे अपने रंगका परिवर्तन नहीं चाहती। स्वयं भी इसे बदलनेका संकल्प नहीं कर सकती। अब तो तपस्याद्वारा ब्रह्माजीकी आराधना करके ही मैं शीघ्र गौरी हो जाऊँगी ॥ ५३ ॥

शिव बोले – महादेवि ! पूर्वकालमें मेरी ही कृपासे ब्रह्माको ब्रह्मपदकी प्राप्ति हुई थी । अतः तपस्याद्वारा उन्हें बुलाकर तुम क्या करोगी? ॥ ५४ ॥

देवीने कहा – इसमें संदेह नहीं कि ब्रह्मा आदि समस्त देवताओंको आपसे ही उत्तम पदोंकी प्राप्ति हुई है, तथापि आपकी आज्ञा पाकर मैं तपस्याद्वारा ब्रह्माजीकी आराधना करके ही अपना अभीष्ट सिद्ध करना चाहती हूँ। पूर्वकालमें जब मैं सतीके नामसे दक्षकी पुत्री हुई थी, तब तपस्याद्वारा ही मैंने आप जगदीश्वरको पतिके रूपमें प्राप्त किया था । इसी प्रकार आज भी तपस्याद्वारा ब्राह्मण ब्रह्माको संतुष्ट करके मैं गौरी होना चाहती हूँ । ऐसा करनेमें यहाँ क्या दोष है ? यह बताइये ॥ ५५–५७ ॥

महादेवीके ऐसा कहनेपर वामदेव शिवजी मुसकराते हुए-से चुप रह गये । देवताओंका कार्य सिद्ध करनेकी इच्छासे उन्होंने देवीको रोकनेके लिये हठ नहीं किया ॥ ५८ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें शिवमन्दरगिरिनिवास- क्रीडोक्तिवर्णन नामक चौबीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २४ ॥

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