October 19, 2024 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण — वायवीयसंहिता [उत्तरखण्ड] — अध्याय 28 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥ श्रीशिवमहापुराण वायवीयसंहिता [उत्तरखण्ड] अट्ठाईसवाँ अध्याय शिवाश्रमसेवियोंके लिये नित्य – नैमित्तिक कर्मकी विधिका वर्णन उपमन्यु बोले – [ हे कृष्ण ! ] अब मैं शिवाश्रमका सेवन करनेवालोंके लिये शिवशास्त्रमें कथित मार्गसे नैमित्तिकविधिक्रमका वर्णन करूँगा ॥ १ ॥ सभी मासोंमें दोनों ही पक्षोंकी अष्टमी, चतुर्दशी तिथियों तथा पर्वके अवसरपर, अयनमें, विषुवकालमें तथा विशेषकर ग्रहणोंमें अधिक रूपमें अथवा अपने सामर्थ्यके अनुसार शिवकी महापूजा करनी चाहिये ॥ २-३ ॥ व्रतीको चाहिये कि प्रत्येक मासमें विधिके अनुसार ब्रह्मकूर्च1 बनाकर उससे शिवजीको स्नान कराकर शेष [ ब्रह्मकूर्च ] -का पान करे । बहुत बड़े ब्रह्महत्या आदि पापोंकी भी निष्कृति ब्रह्मकूर्चके पानसे हो जाती है, कुछ भी निष्कृति शेष नहीं रह जाती है ॥ ४-५ ॥ महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥ पौष महीनेमें पुष्य नक्षत्रमें शिवजीका नीराजन करे और माघ महीनेमें मघा नामक नक्षत्रमें घृत तथा कम्बलका दान करे। फाल्गुनमासमें उत्तराफाल्गुनीयुक्त पूर्णिमाके दिन महोत्सवका प्रारम्भ करे और चैत्रमासमें चित्रानक्षत्रयुक्त पूर्णिमाको यथाविधि दोलनोत्सव करे ॥ ६-७ ॥ वैशाखमासमें विशाखानक्षत्रमें पुष्पमहालय करना चाहिये। ज्येष्ठमासमें मूल [ ज्येष्ठा] – संज्ञक नक्षत्रमें शीतलजलयुक्त कुम्भका दान करना चाहिये। आषाढ़मासमें उत्तराषाढ़ानक्षत्रमें पवित्रारोपण करना चाहिये और सावन महीनेमें श्रविष्ठा (श्रवण) नामक नक्षत्रमें अन्य प्राकृत मण्डल बनाने चाहिये । उसके बाद भाद्रपदमासकी पूर्णिमाको पूर्वाषाढ़ा नक्षत्रयुक्त दिनमें [ मन्त्रोंसे प्रोक्षण एवं] जलविहार करवाना चाहिये । तदनन्तर आश्विनमासकी पूर्णिमाको खीर तथा नये चावलका भात निवेदित करे, पुनः उसीसे शतभिषानक्षत्रमें हवन करे ॥ ८ – ११ ॥ कृत्तिकानक्षत्रयुक्त कार्तिकमासमें हजार दीपोंका दान करना चाहिये। मार्गशीर्ष (अगहन) – मासमें आर्द्रानक्षत्रमें घृतसे शिवजीको स्नान कराना चाहिये ॥ १२ ॥ यदि उन समयोंमें यह सब करनेमें असमर्थ हो, तो उत्सव, सभा, महापूजा अथवा अधिक अर्चन करे । घरमें [विवाहादि ] मांगलिक कृत्य होनेपर, प्रशस्त कर्मोंमें, मनके दुखी होनेपर, दुराचारमें, दुःस्वप्नमें, दुष्टोंका दर्शन होनेपर, उपद्रव उपस्थित होनेपर, अन्य अशुभ निमित्त होनेपर अथवा प्रबल रोग होनेपर स्नान – पूजा-जप- ध्यान-होम-दान आदि क्रियाएँ उद्देश्यके अनुसार पुरश्चरणपूर्वक करे । संस्कृत शिवाग्निमें पुनः सन्धान [ होमादि ] करे ॥ १३–१६ ॥ जो मनुष्य इस प्रकार सावधान होकर नित्य शिवधर्मपरायण रहता है, उसे महेश्वर एक ही जन्ममें मुक्ति प्रदान कर देते हैं । जो नित्यनैमित्तिक कर्मोंमें इसे यथोचित रूपसे करता है, वह श्रीकण्ठनाथके दिव्य आदिलोकको जाता है। मनुष्य वहाँपर सौ करोड़ कल्पोंतक महान् सुखोंको भोगकर कुछ समय बाद वहाँसे लौटकर उमा, कुमार (कार्तिकेय), विष्णु, ब्रह्मा तथा विशेष रूपसे रुद्रके लोकोंको प्राप्त करता है और वहाँपर दीर्घकालतक निवास करके यथोक्त भोगोंको भोगकर पुनः उन पाँचों स्थानोंको पार करके उससे भी ऊपर चला जाता है और वहाँ श्रीकण्ठसे ज्ञान प्राप्तकर वहाँसे शिवलोक चला जाता है ॥ १७- २१ ॥ इन अनुष्ठानोंका आधा करनेवाला भी इसकी दो आवृत्तिसे ही बादमें ज्ञान प्राप्तकर शिवसायुज्य पा जाता है । जो मनुष्य उसके आधेका भी आधा अनुष्ठान करता है, वह शरीरक्षय [के अनन्तर ] ब्रह्माण्ड अथवा ऊपरके दो अव्यक्त भुवनोंको पारकर पार्वतीपतिके पौरुष रौद्रस्थानको प्राप्त करके (वहाँ) अनेक हजार युगोंतक अनेक प्रकारके सुखोंका उपभोग कर पुनः पुण्यके क्षीण होनेपर पृथ्वीलोकमें आकर उच्च कुलमें जन्म लेता है ॥ २२-२४ १/२ ॥ वहाँपर भी महातेजस्वी वह पूर्व संस्कारके कारण पशुधर्मोंका त्याग करके शिवधर्ममें संलग्न रहता है और उस धर्मके प्रभावसे ही शिवका ध्यान करके शिवलोकको जाता है। वहाँ विविध सुखोंको भोगकर विद्येश्वरलोकको जाता है और वहाँ विद्येश्वरोंके साथ क्रमसे अनेक भोगोंको भोगकर ब्रह्माण्डके भीतर अथवा बाहर एक बार फिर लौटता है । तदनन्तर उत्तम भक्ति प्राप्त करके उसीसे शिवज्ञानको सिद्धकर शिवसाधर्म्यकी प्राप्ति करके पुनः संसारमें नहीं आता है ॥ २५ – २८१ / २ ॥ जो विषयमें आसक्त चित्तवालोंकी भाँति शिवके प्रति अत्यधिक भक्तिपरायण है, वह शिवधर्मोंको करता हुआ अथवा न करता हुआ भी मुक्त हो जाता है, वह एक बार, दो बार अथवा तीन बार जन्म लेकर मुक्ति प्राप्त कर लेता है ॥ २९-३० ॥ शिवधर्मका अधिकारी चक्रकी भाँति बार – बार विभिन्न योनियोंमें भ्रमण नहीं करता है । अतः यदि कोई [ अपने] कल्याणके लिये प्रयत्नशील हो, तो उसे शिवका आश्रय लेकर जिस किसी भी उपायसे शिवधर्ममें बुद्धि लगानी चाहिये । [ गुरु कहे कि ] हम किसीको अपनी इच्छासे किसी बन्धनमें आबद्ध नहीं करते हैं, दीक्षाविहीन तथा विवाद करनेवालोंको स्वभावतः यह शिवधर्म रुचिकर नहीं लगता, जो पूर्वजन्मकृत पुण्यसंस्कारके गौरवसे युक्त हैं, उन्हें ही [ इस शिवधर्ममें] रुचि होती है। जो जगत्को सृष्टि आदिका मूल कारण माननेवाले हैं, उनमें यह शिवधर्म आरूढ़ होनेमें समर्थ नहीं हो पाता, अतएव यदि अपना कल्याण अभीष्ट हो तो ऐसे व्यक्तिको उसके स्वभावके अनुरूप गुरु शिवधर्ममें दीक्षित करे ॥ ३१–३५ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके उत्तरखण्डमें नित्यनैमित्तिकविधिवर्णन नामक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २८ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe