October 20, 2024 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण — वायवीयसंहिता [उत्तरखण्ड] — अध्याय 35 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥ श्रीशिवमहापुराण वायवीयसंहिता [उत्तरखण्ड] पैंतीसवाँ अध्याय लिंगमें शिवका प्राकट्य तथा उनके द्वारा ब्रह्मा-विष्णुको दिये गये ज्ञानोपदेशका वर्णन उपमन्यु बोले – [ हे कृष्ण ! ] तदुपरान्त वहाँपर ब्रह्मतत्त्वका प्रतिपादक, नादमय, एकाक्षरात्मक शब्द- ब्रह्म ओंकार प्रकट हुआ ॥ १ ॥ उस समय ब्रह्मा तथा विष्णु उसे भी नहीं जान सके; क्योंकि उन दोनोंका चित्त रजोगुण तथा तमोगुणसे आच्छन्न था ॥ २ ॥ तब वह एक अक्षर [ओम् ] अ, उ, म् – इन तीन मात्राओं तथा आगे आधी मात्राके द्वारा चार भागों में विभक्त हो गया ॥ ३ ॥ उस जाज्वल्यमान लिंगके दक्षिण भागमें अकार, उत्तरमें उकार और उसी तरह मध्यमें मकार सुना गया । लिंगके शीर्षभागमें अर्धमात्रात्मक नाद सुना गया ॥ ४१/२ ॥ महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥ तब उस परम अक्षर प्रणव (ओम्) – के विभक्त होनेपर भी वे दोनों देवता उस विभाजनके अर्थको कुछ भी नहीं समझ सके। इसके वह बाद अव्यक्त प्रणव वेदोंके रूपमें परिणमित हो गया । उसका अकार ऋग्वेद, उकार यजुर्वेद, मकार सामवेद और [ अर्धमात्रात्मक ] नाद अथर्ववेद हुआ ॥ ५–७ ॥ [सर्वप्रथम] उस ऋग्वेदने संक्षेपमें अपने [दशविध ] तात्पर्यको प्रस्तुत किया—गुणोंमें रजोगुण, मूर्तियोंमें आदिमूर्ति क्रियाओंमें सृष्टि-क्रिया, लोकोंमें भूर्लोक, तत्त्वोंमें अविनाशी आत्मतत्त्व, कलाध्वोंमें निवृत्तिकला, पंचब्रह्मोंमें सद्योजात, लिंगके विभागोंमें अधोदेश, तीनों कारणों में बीज नामक कारण तथा अणिमादि सिद्धियोंमें स्थित चतुष्षष्टिगुणात्मक ऐश्वर्योंमें बौद्ध ऐश्वर्य – इस प्रकार दस अर्थोंसे समन्वित ऋग्वेदके द्वारा समस्त विश्व व्याप्त है ॥ ८-१०१/२ ॥ तदुपरान्त यजुर्वेदने अपने दशविध तात्पर्योको प्रतिपादित किया – गुणोंमें सत्त्वगुण, मूर्तियोंमें आदिमूर्ति विष्णु, क्रियाओंमें स्थिति नामक क्रिया, लोकोंमें अन्तरिक्ष, तत्त्वोंमें विद्यातत्त्व, कलाध्वोंमें प्रतिष्ठा नामक कला, पंचब्रह्मोंमें वामदेव, लिंगविभागोंमें मध्यभाग, तीनों कारणों में योनि नामक कारण तथा ऐश्वर्योंमें प्राकृत ऐश्वर्य – इस प्रकार यह विश्व यजुर्वेदमय है ॥ ११ – १३१/२ ॥ इसके पश्चात् सामवेदने अपने दशविध अर्थका प्रतिपादन किया—गुणोंमें तमोगुण, मूर्तियोंमें आदिमूर्ति रुद्र, क्रियाओंमें संहार क्रिया, तीनों लोकोंमें [स्वर्ग] लोक, तत्त्वोंमें उत्तम शिवतत्त्व, कलाध्वोंमें विद्याकला, पंचब्रह्मों में अघोर ब्रह्म, लिंगविभागोंमें पीठोर्ध्वभाग, तीनों कारणोंमें बीजी नामक कारण तथा ऐश्वर्योंमें पौरुष ऐश्वर्य – इस प्रकार यह विश्व सामवेदसे अभिव्याप्त है ॥ १४- १६१/२ ॥ इसके उपरान्त अथर्ववेदने अपने निर्गुणात्मक उत्कृष्ट तात्पर्यका प्रतिपादन किया – मूर्तियोंमें सदाशिवकी महेश्वर नामवाली मूर्ति, क्रियारहित परमात्मा शिवकी [ उपचारतः] होनेवाली क्रियाओंमें प्राणिमात्रके प्रति अनुग्रहरूपा क्रिया, जिसके कारण ही प्राणियोंको मोक्षलाभ होता है; लोकों में वह अलौकिक सोमलोक, जिसे अधिगत करनेमें वागादि इन्द्रियोंसहित मन भी असमर्थ हो लौट आता है, वह अलौकिक सोमलोक तो उन्मनालोकसे भी ऊपर है, जहाँ उमाके साथ साम्बसदाशिव भगवान् ईशान नित्य विराजते हैं । उन्मनालोकके ऊपर विद्यमान उस लोकको प्राप्त हुआ जीव पुनः जन्म नहीं लेता ॥ १७ – २० १/२ ॥ कलाओंमें शान्तिकला तथा सभी कलाओंमें अभिव्याप्त शान्त्यतीता कला, पंचब्रह्मोंमें तत्पुरुष तथा ईशानसंज्ञक ब्रह्म, लिंगके विभागोंमें मूर्धा नामक विभाग, [प्रणवके कल्पित] अवयवोंमें नाद नामक वह अवयव, जिसमें आवाहनपूर्वक एकमात्र निष्कल शिवकी ही आराधना की जाती है । तत्त्वोंमें वह तत्त्व, जो बिन्दुसे लेकर नाद तथा शक्ति से भी परे है । उस तत्त्वसे भी परे जो परमार्थतः परतत्त्व है और जो अतत्त्व भी कहा जाता है । मायाके विक्षोभसे जो कार्यके जनक होते हैं, उन तीनों कारणोंसे भी वह अतीत है ॥ २१–२४ ॥ शुद्धविद्यासे परे जो महान् ऐश्वर्यवाला अनन्ततत्त्व है, उससे भी परे जो सर्वविद्येश्वरेश्वर तत्त्व है, उससे भी परे वह तत्त्व है, किंतु वह सदाशिवसे परे नहीं है ॥ २५ ॥ सकलमन्त्रमय देहवाले, तीनों शक्तियोंसे समन्वित पंचमुख, दशभुज, सकल एवं निष्कल स्वरूपवाले साक्षात् परमदेवसे भी परे है। उनसे भी परे जो बिन्दु तथा अर्धेन्दुतत्त्व हैं और उनसे भी परे नाद नामक निशाधीश (सोम) तत्त्व है। नादसे परे सुषुम्णेश तथा उनसे परे ब्रह्मरन्ध्रेश तत्त्व है, ब्रह्मरन्ध्रेश्वरसे परे शक्तितत्त्व ( कुण्डलिनी) तथा शक्तिसे परे स्थित जो शिवतत्त्व है, वह उससे भी परे है ॥ २६–२८ ॥ [वे सर्वतत्त्वातीत परमतत्त्व] भगवान् शिव जगत्के साक्षात् कारण न होते हुए भी वस्तुतः परमकारण हैं । उन्हींको कारणोंका आश्रय, ध्याता, ध्येय, अविनाशी, परमव्योमके मध्यमें अवस्थित, परमात्मतत्त्वसे भी ऊपर स्थित, सर्वैश्वर्यसम्पन्न, सर्वेश्वर, एकमात्र स्वयं ईश्वररूप [माना गया है।] मायासे जायमान अशुद्ध मानुषादि ऐश्वर्यसे परे, अपरसे भी परे जो षडध्वगोचर तत्त्व है, उससे भी परे, जो शुद्ध विद्यासे लेकर उन्मनापर्यन्त व्यापक परात्पर तत्त्व है, जो परमोत्कृष्ट है, परमैश्वर्यमय है, उन्मनाका भी आदि कारण तथा अनादि है । जो अनुल्लंघ्य, नित्य स्वतन्त्र, समस्त विशेषोंसे विशिष्ट है तथा स्थिर है – वही परमशिव है ॥ २९-३२१/२ ॥ इस प्रकार इन दशविध अर्थोंसे समन्वित यह अथर्ववेद अत्यन्त महनीय है तथा यह समस्त विश्व अथर्ववेदके द्वारा व्याप्त है ॥ ३३१ / २ ॥ ऋग्वेदने पुनः यह कहा कि [जीवात्मा या जगत्की] जाग्रदवस्थाका निरूपण मेरे द्वारा किया जाता है; क्योंकि मैं ही आत्मतत्त्वका सतत प्रतिपादन करनेवाला हूँ। उसी प्रकार यजुर्वेदने कहा कि [ जीवात्मा या जगत् की] स्वप्नदशाका प्रतिपादन मेरे द्वारा किया जाता है; क्योंकि मुझमें या कि मुझसे ही भोग्यरूपमें परिणत हुई विद्याका अधिगम होता है । तदुपरान्त सामवेदने कहा कि सुषुप्ति नामक अवस्थाका समग्रतया प्रतिपादन मेरे द्वारा होता है तथा तमोगुणाश्रयी रुद्रके द्वारा प्रतिपादित समस्त अर्थ मेरा ही कथन है ॥ ३४-३६१/२ ॥ तत्पश्चात् अथर्ववेदने कहा कि ‘तुरीय’ नामक तत्त्व तथा तुरीयातीत तत्त्व भी मेरे द्वारा ही निरूपित होता है, इसलिये मुझे अध्वातीतपद अर्थात् अध्वातीत तत्त्वका प्रतिपादक भी कहा जाता है। अध्वात्मक तत्त्व तीन हैं- शिवतत्त्व, विद्यातत्त्व तथा आत्मतत्त्व । ये तीनों ही त्रिगुणात्मक तथा वेदोंके द्वारा ज्ञात होनेयोग्य हैं । परमपदकी अभिलाषावाले साधकको अध्वातीत तुरीयनामक तत्त्वका अनुसन्धान करना चाहिये। यह तुरीयतत्त्व [ निर्विशेष ब्रह्म] ही निर्वाण तथा परमपद कहा जाता है । गुणरहित होनेके कारण यह तुरीयतत्त्व अध्वातीत भी कहा गया है तथा अध्वात्मक शिवादि तत्त्वोंका यह विशोधक भी है। तुरीय तथा अध्वत्रितय शिवादि – इन दोनोंके आविर्भावका हेतु नाद है तथा नादतत्त्वकी चरम अवस्था ही मेरा स्वरूप है। इसलिये मेरे अनुसार [सर्वतोभावेन] स्वतन्त्र होनेसे परमेश्वर शिव ही प्रधान तत्त्व हैं ॥ ३७–४०१ / २ ॥ [ इस जगत् में] जो कोई भी वस्तु है, वह सब गुणोंकी प्रधानताके योगसे समष्टि अथवा व्यष्टिरूपमें प्रणवार्थ कही जाती है । इसीलिये यह ब्रह्मरूप, एकाक्षरात्मक प्रणव [ व्यष्टि अथवा समष्टिरूप] प्रत्येक वस्तुका अभिधायक कहा गया है । यही कारण है कि इस समग्र विश्वकी रचना ओंकारके द्वारा सर्वप्रथम भगवान् शिव करते हैं। शिवजी प्रणवसे अभिन्न हैं तथा यह प्रणव भी साक्षात् शिव ही है । [ प्रणव वाचक है तथा शिव वाच्य है; ] क्योंकि वाच्य और वाचकमें परमार्थतः भेद नहीं होता ॥ ४१– ४३१/२ ॥ भगवान् रुद्र [सर्वथा ] अचिन्त्य हैं, क्योंकि वागादि इन्द्रियाँ भी मनके साथ उनका अनुसन्धान करनेमें असमर्थ होकर लौट आती हैं । वे [ रुद्रदेव तो केवल ] एकाक्षरात्मक प्रणवके द्वारा ही प्रतिपादित किये जा सकते हैं। [ प्रणवके अन्तर्वर्ती] अकार नामक एकाक्षरसे आत्मस्वरूप ब्रह्माका निरूपण किया जाता है, उकार नामक एकाक्षरसे विद्यास्वरूप विष्णुका निरूपण किया जाता है तथा मकार नामक एकाक्षरसे शिवस्वरूप रुद्रका प्रतिपादन किया जाता है ॥ ४४–४६ ॥ महेश्वरके दक्षिणांगसे आत्मसंज्ञक ब्रह्माका प्रादुर्भाव हुआ तथा उनके वामांगसे विद्यासंज्ञक विष्णु प्रकट हुए। उन सदाशिवके हृदयदेशसे शिवसंज्ञक नीलरुद्रका प्राकट्य हुआ। ब्रह्माके द्वारा सृष्टिका प्रवर्तन हुआ और विमोहक विष्णुके द्वारा स्थितिकार्य सम्पन्न किया गया। रुद्रदेवने सृष्टिका संहार तथा ब्रह्मा और विष्णुका नियमन कार्य किया ॥ ४७–४९ ॥ यही कारण है कि ये तीनों देवता जगत्के कारण कहे गये हैं और इन तीनों कारणोंके भी कारण शिव परमकारण कहे गये हैं । इस बातको बिना भलीभाँति समझे रजोगुणसे प्रेरित होकर तुम दोनोंने आपसमें वैर बाँध लिया, अतः तुमलोगोंको प्रतिबोधित करनेके लिये मध्यमें यह लिंग उपस्थित हुआ ॥ ५० -५१ ॥ इस प्रकार अथर्ववेदके द्वारा प्रतिपादित मतका समर्थन ‘ओम्’ [ऐसा ही है ] कहकर सैकड़ों, हजारों शाखाओंवाले ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेदने भी किया । स्वयं वेदोंके द्वारा अपने श्रीमुखसे इस प्रकार सुस्पष्ट रूपसे कहे जानेपर भी उन दोनों [ देवताओं ] -को स्वप्नकालिक अनुभूतिके समान [परमतत्त्वका ] निश्चय न हो सका, तब वहाँपर उनके अज्ञानका हरणकर उन्हें प्रबोधित करनेके लिये वह वेदोक्त मत उसी लिंगमें वैसे ही मुद्रित अर्थात् अंकित हो गया। तब उन लिंगी भगवान् शिवके अनुग्रहसे लिंगमें अंकित उस अभिप्रायका अवलोकनकर वे दोनों देवता शान्तचित्त तथा ज्ञानवान् हो गये ॥ ५२–५५ ॥ उस समय उत्पत्ति, प्रलय, षडध्वाओंका वास्तविक स्वरूप, अध्वातीत श्रेष्ठतम परमपद, परमपदमें अधिष्ठित परमपुरुष, निरुत्तरतर अर्थात् सर्वातिशायि निष्कल ब्रह्मस्वरूप महेश्वर शिव, जो कि पशुपाशमय इस जगत्-प्रपंच के नित्य अधिपति हैं, जो सर्वतोभावेन भयरहित हैं, जिनके स्वस्वरूपमें वृद्धि अथवा ह्रासरूप विकार नहीं होते, ऐसे बाह्य-आभ्यन्तरदेशमें व्याप्त, बाह्य तथा आभ्यन्तरके भेदसे रहित, सर्वथा समस्त अतिशयोंका अतिक्रमण करनेवाले, समस्त लोकसे विलक्षण, लक्षणोंसे रहित, अनिर्देश्य, वागादि इन्द्रियों तथा मनसे ज्ञात न होनेवाले, ज्योतिःस्वरूप, एकरस, शान्त, प्रसन्न, सर्वदा भासमान, समस्त मंगलोंके अधिष्ठान तथा अपने सदृश महिमामयी परमशक्तिसे समन्वित विरूपाक्ष भगवान् शंकरको [ तत्त्वतः ] जानकर ब्रह्मा तथा विष्णु तब सिरपर अंजलि बाँधकर भयभीत हो इस प्रकार कहने लगे – ॥ ५६–६१ ॥ ब्रह्माजी बोले- हे देव! मैं अज्ञानी हूँ अथवा आपको भलीभाँति जाननेवाला हूँ [ चाहे जो कुछ भी हूँ, पर] प्रारम्भमें आपके द्वारा ही उत्पन्न किया गया हूँ । [यदि मैं] इस प्रकारके भ्रमसे ग्रस्त हुआ तो इसमें किसका अपराध कहा जाय ! आपके समीप होनेपर भी यदि मेरा अज्ञान रहता है, तो रहे ( इससे क्या हानि हो सकती है !) ऐसा कौन है, जो निर्भय होकर अपना अथवा पराया कृत्य बता सके। [हे प्रभो!] हमलोगोंका विवाद भी मंगलमय ही है; क्योंकि देवाधिदेव आप स्वामीका चरणवन्दनरूप फल इसीसे मिला है ॥ ६२–६४ ॥ विष्णु बोले – हे देव ! [यद्यपि ] आपकी महिमाके-अनुरूप स्तुति करनेमें वाणी समर्थ नहीं है, [तथापि ] स्वामीके समक्ष सेवकोंका मौन रहना भी तो अपराध ही है । इस अवसरपर क्या करना उचित रहेगा, यह तो मैं नहीं जानता तथापि जैसे-तैसे प्रलाप करते हुए मैं आपको प्रणाम करता हूँ। आपने ही हमें जगत्कारणता प्रदान की थी, परंतु आपकी मायासे मोहित होनेके कारण मैं [ आपको] भूल गया। जब मैं अभिमानग्रस्त हो उठा तब आपने ही मुझे [ इस समय ] पुनः अनुशासित किया है । बहुत कुछ कहनेसे क्या लाभ? हे ईश्वर ! मैं अत्यधिक भयभीत हो गया हूँ; क्योंकि मैंने अपरिच्छिन्न स्वरूपवाले आपको परिच्छिन्न बतानेका दुःसाहस किया है ॥ ६५–६८ ॥ आप महादेवको भयभीत लोगोंके दुःखका नाशक कहा जाता है, इसलिये हे शंकर ! मेरे इस अपराधको आज आप क्षमा कर दीजिये । इस प्रकार उन दोनों लोकेश्वरोंके द्वारा निवेदन किये जानेपर प्रसन्न हुए भगवान् उन देवताओंपर कृपा करके मुसकराते हुए कहने लगे— ॥ ६९-७० ॥ ईश्वर बोले – हे वत्स विधे! हे वत्स विष्णो ! तुम दोनों मेरी मायासे मोहित होकर अपनी प्रभुताका अहंकार करने लगे और तुमने आपसमें शत्रुता मान ली। तुम लोगोंके वाद-विवादका पर्यवसान युद्धमें हुआ तथापि उससे निवृत्त नहीं हो सके । जगत् के कारणस्वरूप तुम दोनोंके अज्ञान तथा अहंकारसे उत्पन्न हुई असहमतिके कारण यह प्रजासृष्टि विच्छिन्न हो रही थी, तब [ प्रजाओंके उच्छेदको ] रोकनेके लिये इस समय मैंने लिंगरूपसे लीलापूर्वक आविर्भूत होकर तुम्हारे अभिमान तथा मोहको निवृत्त किया है। इसलिये बार – बारके विवाद तथा लज्जाका पूर्णरूपसे परित्याग करके आपलोगोंको ईर्ष्यासे मुक्त होकर अपने-अपने कर्तव्यका अनुपालन करना चाहिये ॥ ७१–७४ ॥ तुमलोगोंकी कारणत्वप्रसिद्धि अर्थात् जगन्निर्माण आदि सामर्थ्यकी सिद्धिके लिये मैंने अपनी आज्ञाशक्तिके साथ पूर्वकालमें समस्त ज्ञानराशि तुम्हें प्रदान की थी। [उसके साथ ही] पंचाक्षरात्मक सूत्रनामसे प्रसिद्ध अत्यन्त उत्कृष्ट मन्त्ररत्नका भी मैंने आप लोगोंको उपदेश किया था, आज वह सब कुछ तुमलोग भूल चुके हो । अब मैं फिरसे अपनी आज्ञाशक्तिके साथ पूर्वकी भाँति वह सब प्रदान कर रहा हूँ, क्योंकि बिना उसके तुम दोनों सृष्टिरचना तथा उसके पालनमें समर्थ नहीं हो सकोगे ॥ ७५ – ७७१/२ ॥ भगवान् नारायण तथा ब्रह्माजीसे इस प्रकार कहकर भगवान् महादेवने उन दोनोंको ज्ञानराशिके साथ [ पंचाक्षर] मन्त्रराज प्रदान किया। वे दोनों दिव्य, परा, महिमामयी, माहेश्वरी आज्ञाशक्ति, परमार्थरूप मन्त्ररत्न तथा समस्त कलाओंको प्राप्त करनेके उपरान्त देवाधिदेवके चरणों में दण्डवत् प्रणाम करके निर्भय तथा आनन्दमग्न होकर स्थित हो गये । इस बीचमें आश्चर्यजनक इन्द्रजालकी भाँति वह भगवल्लिंग अन्तर्धान हो गया। जब वे उसे देख नहीं पाये तो भावनाके आहत – सी हो जानेके कारण उस समय हाहाकारपूर्वक विलाप करने लगे ॥ ७८–८२ ॥ घटित हुआ यह वृत्तान्त सत्य है या असत्य है, इस प्रकार परस्पर कहते हुए वे भगवान् शंकरके अचिन्तनीय ऐश्वर्यका स्मरणकर व्यथारहित हो गये । उन्होंने उत्तम मित्रभावसे युक्त हो एक- दूसरेका आलिंगन किया और संसारके कृत्यों [को सम्पन्न करने ] -के उद्देश्यसे वे दोनों देवश्रेष्ठ [अपने-अपने धामको ] चले गये । उसी समयसे इन्द्र आदि देवगण, असुरगण, ऋषिगण, मनुष्य, नाग तथा स्त्रियाँ–[ये सभी] विधानपूर्वक शिवलिंगकी प्रतिष्ठा करके लिंगमूर्तिमें उन भगवान् शिवकी अर्चना करने लगे ॥ ८३–८५ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके उत्तरखण्डमें हरिविधिमोहनिवारण नामक पैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३५ ॥ Related