शिवमहापुराण — वायवीयसंहिता [उत्तरखण्ड] — अध्याय 37
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
वायवीयसंहिता [उत्तरखण्ड] सैंतीसवाँ अध्याय
योगके अनेक भेद, उसके आठ और छः अंगोंका विवेचन – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, दशविध प्राणोंको जीतनेकी महिमा, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधिका निरूपण

श्रीकृष्णने कहा— भगवन् ! आपने ज्ञान, क्रिया और चर्याका संक्षिप्त सार उद्धृत करके मुझे सुनाया है। यह सब श्रुतिके समान आदरणीय है और इसे मैंने ध्यानपूर्वक सुना है ॥ १ ॥ अब मैं अधिकार, अंग, विधि और प्रयोजनसहित परम दुर्लभ योगका वर्णन सुनना चाहता हूँ ॥ २ ॥ यदि योग आदिका अभ्यास करनेसे पहले ही मृत्यु हो जाय तो मनुष्य आत्मघाती होता है; अतः आप योग का ऐसा कोई साधन बताइये, जिसे शीघ्र सिद्ध किया जा सके, जिससे कि मनुष्य को आत्मघाती न होना पड़े। योग का वह अनुष्ठान, उसका कारण, उसके लिये उपयुक्त समय, साधन तथा उसके भेदों का तारतम्य क्या है? ॥ ३-४ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


उपमन्यु बोले – श्रीकृष्ण ! तुम सब प्रश्नोंके तारतम्यके ज्ञाता हो। तुम्हारा यह प्रश्न बहुत ही उचित है, इसलिये मैं इन सब बातोंपर क्रमशः प्रकाश डालूँगा । तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो ॥ ५ ॥ जिसकी दूसरी वृत्तियोंका निरोध हो गया है, ऐसे चित्तकी भगवान् शिवमें जो निश्चल वृत्ति है, उसीको संक्षेपसे ‘योग’ कहा गया है। यह योग पाँच प्रकारका है— मन्त्रयोग, स्पर्शयोग, भावयोग, अभावयोग और महायोग ॥ ६-७ ॥

मन्त्र – जपके अभ्यासवश मन्त्रके वाच्यार्थमें स्थित हुई विक्षेपरहित जो मनकी वृत्ति है, उसका नाम ‘मन्त्रयोग’ है। मनकी वही वृत्ति जब प्राणायामको प्रधानता दे तो उसका नाम ‘स्पर्शयोग’ होता है। वही स्पर्शयोग जब मन्त्रके स्पर्शसे रहित हो तो ‘भावयोग’ कहलाता है ॥ ८- ९ ॥ जिससे सम्पूर्ण विश्वके रूपमात्रका अवयव विलीन ( तिरोहित) हो जाता है, उसे ‘अभावयोग’ कहा गया है; क्योंकि उस समय सद्वस्तुका भी भान नहीं होता ॥ १० ॥ जिससे एकमात्र उपाधिशून्य शिवस्वभावका चिन्तन किया जाता है और मनकी वृत्ति शिवमयी हो जाती है, उसे ‘महायोग’ कहते हैं ॥ ११ ॥

देखे और सुने गये लौकिक और पारलौकिक विषयोंकी ओरसे जिसका मन विरक्त हो गया हो, उसीका योगमें अधिकार है, दूसरे किसीका नहीं है । लौकिक और पारलौकिक दोनों विषयोंके दोषोंका और ईश्वरके गुणोंका सदा ही दर्शन करनेसे मन विरक्त होता है ॥ १२-१३ ॥ प्रायः सभी योग आठ या छ: अंगोंसे युक्त होते हैं। यम, नियम, स्वस्तिक आदि आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि – ये विद्वानोंने योगके आठ अंग बताये हैं। आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि—ये थोड़ेमें योगके छः लक्षण हैं ॥ १४–१६ ॥ शिव-शास्त्रमें इनके पृथक्-पृथक् लक्षण बताये गये हैं। अन्य शिवागमोंमें, विशेषतः कामिक आदिमें, योगशास्त्रोंमें और किन्हीं – किन्हीं पुराणोंमें भी इनके लक्षणोंका वर्णन है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह—इन्हें सत्पुरुषोंने यम कहा है। इस प्रकार यम पाँच अवयवोंके योगसे युक्त है ॥ १७ – १८ ॥

शौच, सन्तोष, तप, जप ( स्वाध्याय) और प्रणिधान— इन पाँच भेदोंसे युक्त दूसरे योगांगको नियम कहा गया है। तात्पर्य यह कि नियम अपने अंशोंके भेदसे पाँच प्रकारका है । आसनके आठ भेद कहे गये हैं- स्वस्तिक आसन, पद्मासन, अर्धचन्द्रासन, वीरासन, योगासन, प्रसाधितासन, पर्यंकासन और अपनी रुचिके अनुसार आसन ॥ १९-२० ॥ अपने शरीरमें प्रकट हुई जो वायु है, उसको प्राण कहते हैं। उसे रोकना ही उसका आयाम है। उस प्राणायामके तीन भेद कहे गये हैं- रेचक, पूरक और कुम्भक ॥ २१ ॥ नासिकाके एक छिद्रको दबाकर या बन्द करके दूसरेसे उदरस्थित वायुको बाहर निकाले । इस क्रियाको रेचक कहा गया है। फिर दूसरे नासिका छिद्रके द्वारा बाह्य वायुसे शरीरको धौंकनीकी भाँति भर ले। इसमें वायुके पूरणकी क्रिया होनेके कारण इसे ‘पूरक’ कहा गया है । जब साधक भीतरकी वायुको न तो छोड़ता है और न बाहरकी वायुको ग्रहण करता है, केवल भरे हुए घड़ेकी भाँति अविचलभावसे स्थित रहता है, तब उस प्राणायामको ‘कुम्भक’ नाम दिया जाता है । योगके साधकको चाहिये कि वह रेचक आदि तीनों प्राणायामोंको न तो बहुत जल्दी- जल्दी करे और न बहुत देरसे करे । साधनाके लिये उद्यत हो क्रमयोगसे उसका अभ्यास करे ॥ २२–२५ ॥

रेचक आदिमें नाड़ीशोधनपूर्वक जो प्राणायामका अभ्यास किया जाता है, उसे स्वेच्छासे उत्क्रमणपर्यन्त करते रहना चाहिये – यह बात योगशास्त्रमें बतायी गयी है। कनिष्ठ आदिके क्रमसे प्राणायाम चार प्रकारका कहा गया है। मात्रा और गुणोंके विभाग – तारतम्यसे ये भेद बनते हैं ॥ २६-२७ ॥ चार भेदोंमेंसे जो कन्यक या कनिष्ठ प्राणायाम है, यह प्रथम उद्घात  उद्घातका अर्थ नाभिमूलसे प्रेरणा की हुई वायुका सिरमें टक्कर खाना है । यह प्राणायाममें देश, काल और संख्याका परिमाण है। कहा गया है; इसमें बारह मात्राएँ होती हैं। मध्यम प्राणायाम द्वितीय उद्घात है, उसमें चौबीस मात्राएँ होती हैं । उत्तम श्रेणीका प्राणायाम तृतीय उद्घात है, उसमें छत्तीस मात्राएँ होती हैं। उससे भी श्रेष्ठ जो सर्वोत्कृष्ट चतुर्थ योगसूत्रमें चतुर्थ प्राणायामका परिचय इस प्रकार दिया गया है – ‘ बाह्यान्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः ‘ अर्थात् बाह्य और आभ्यन्तर विषयोंको फेंकनेवाला प्राणायाम चौथा है।   प्राणायाम है, वह शरीरमें स्वेद और कम्प आदिका जनक होता है ॥ २८-२९ ॥ योगीके अन्दर आनन्दजनित रोमांच, नेत्रोंसे अश्रुपात, जल्प, भ्रान्ति और मूर्च्छा आदि भाव प्रकट होते हैं। घुटनेके चारों ओर प्रदक्षिण-क्रमसे न बहुत जल्दी और न बहुत धीरे-धीरे चुटकी बजाये । घुटनेकी एक परिक्रमामें जितनी देरतक चुटकी बजती है, उस समयका मान एक मात्रा है। मात्राओंको क्रमशः जानना चाहिये । उद्घात क्रम – योगसे नाड़ीशोधनपूर्वक प्राणायाम करना चाहिये ॥ ३०-३२ ॥

प्राणायामके दो भेद बताये गये हैं- अगर्भ और सगर्भ । जप और ध्यानके बिना किया गया प्राणायाम ‘अगर्भ’ कहलाता है और जप तथा ध्यानके सहयोग – पूर्वक किये जानेवाले प्राणायामको ‘सगर्भ’ कहते हैं। अगर्भसे सगर्भ प्राणायाम सौ गुना अधिक उत्तम है। इसलिये योगीजन प्रायः सगर्भ प्राणायाम किया करते हैं । प्राणविजयसे ही शरीरकी वायुओंपर विजय पायी जाती है ॥ ३३-३४१/२ ॥
कुछ प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय – ये दस प्राणवायु हैं । प्राण प्रयाण करता है, इसीलिये उसे ‘प्राण’ कहते हैं । जो भोजन किया जाता है, उसे जो वायु नीचे ले जाती है, उसको ‘अपान’ कहते हैं। जो वायु सम्पूर्ण अंगोंको बढ़ाती हुई उनमें व्याप्त रहती है, उसका नाम ‘व्यान’ है। जो वायु मर्मस्थानोंको उद्वेजित करती है, उसकी ‘उदान’ संज्ञा है । जो वायु सब अंगोंको समभावसे ले चलती है, वह अपने उस समनयनरूप कर्मसे ‘समान’ कहलाती है ॥ ३५-३८ ॥

मुखसे कुछ उगलनेमें कारणभूत वायुको ‘नाग कहा गया है। आँख खोलनेके व्यापारमें ‘कूर्म’ नामक वायुकी स्थिति है। छींकमें ‘कृकल’ और जँभाईमें ‘देवदत्त’ नामक वायुकी स्थिति है । ‘ धनंजय’ नामक वायु सम्पूर्ण शरीरमें व्याप्त रहती है । वह मृतक शरीरको भी नहीं छोड़ती । क्रमसे अभ्यासमें लाया हुआ यह प्राणायाम जब उचित प्रमाण या मात्रासे युक्त हो जाता है, तब वह कर्ताके सारे दोषोंको दग्ध कर देता है और उसके शरीरकी रक्षा करता है ॥ ३९ – ४०१ / २ ॥ प्राणपर विजय प्राप्त हो जाय तो उससे प्रकट होनेवाले चिह्नोंको अच्छी तरह देखे । पहली बात यह होती है कि विष्ठा, मूत्र और कफकी मात्रा घटने लगती है, अधिक भोजन करनेकी शक्ति हो जाती है और विलम्बसे साँस चलती है। शरीरमें हलकापन आता है । शीघ्र चलनेकी शक्ति प्रकट होती है । हृदयमें उत्साह बढ़ता है। स्वरमें मिठास आती है । समस्त रोगोंका नाश हो जाता है। बल, तेज और सौन्दर्यकी वृद्धि होती है ॥ ४१–४३ ॥

धृति, मेधा, युवापन, स्थिरता और प्रसन्नता आती है । तप, प्रायश्चित्त, यज्ञ, दान और व्रत आदि जितने भी साधन हैं—ये प्राणायामकी सोलहवीं कलाके भी बराबर नहीं हैं ॥ ४४१/२ ॥ अपने-अपने विषयमें आसक्त हुई इन्द्रियोंको वहाँसे हटाकर जो अपने भीतर निगृहीत करता है, उस साधनको ‘प्रत्याहार’ कहते हैं। मन और इन्द्रियाँ ही मनुष्यको स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाली हैं । [ यदि उन्हें वशमें रखा जाय तो वे स्वर्गकी प्राप्ति कराती हैं और विषयोंकी ओर खुली छोड़ दिया जाय तो वे नरकमें डालनेवाली होती हैं।] इसलिये सुखकी इच्छा रखनेवाले बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह ज्ञान – वैराग्यका आश्रय ले इन्द्रियरूपी अश्वोंको शीघ्र ही काबूमें करके स्वयं ही आत्माका उद्धार करे ॥ ४५–४७१/२ ॥

चित्तको किसी स्थान – विशेषमें बाँधना- किसी ध्येय- विशेषमें स्थिर करना – यही संक्षेपसे ‘धारणा’ का स्वरूप है। एकमात्र शिव ही स्थान हैं, दूसरा नहीं; क्योंकि दूसरे स्थानोंमें त्रिविध दोष विद्यमान हैं। किसी नियमित कालतक स्थानस्वरूप शिवमें स्थापित हुआ मन जब लक्ष्यसे च्युत न हो तो धारणाकी सिद्धि समझना चाहिये, अन्यथा नहीं । मन पहले धारणासे ही स्थिर होता है, इसलिये धारणाके अभ्याससे मनको धीर बनाये ॥ ४८ – ५०१ / २ ॥ [ अब ध्यानकी व्याख्या करते हैं ।] ध्यानमें ‘ध्यै चिन्तायाम् ‘ यह धातु मानी गयी है । [ इसी धातुसे ल्युट् प्रत्यय करनेपर ‘ध्यान’ की सिद्धि होती है; ] अतः विक्षेपरहित चित्तसे जो शिवका बारंबार चिन्तन किया जाता है, उसीका नाम ‘ध्यान’ है। ध्येयमें स्थित हुए चित्तकी जो ध्येयाकार वृत्ति होती है और बीचमें दूसरी वृत्ति अन्तर नहीं डालती ; उस ध्येयाकार वृत्तिका प्रवाहरूपसे बना रहना ‘ध्यान’ कहलाता है । दूसरी सब वस्तुओंको छोड़कर केवल कल्याणकारी परमदेव देवेश्वर शिवका ही ध्यान करना चाहिये । वे ही सबके परम ध्येय हैं । यह अथर्ववेदकी श्रुतिका अन्तिम निर्णय है ॥ ५१-५३१/२ ॥

इसी प्रकार शिवादेवी भी परम ध्येय हैं। ये दोनों शिवा और शिव सम्पूर्ण भूतोंमें व्याप्त हैं। श्रुति, स्मृति एवं शास्त्रोंसे यह सुना गया है कि शिवा और शिव सर्वव्यापक, सर्वदा उदित, सर्वज्ञ एवं नाना रूपोंमें निरन्तर ध्यान करनेयोग्य हैं ॥ ५४-५५ ॥ इस ध्यानके दो प्रयोजन जानने चाहिये । पहला है । मोक्ष और दूसरा प्रयोजन है अणिमा आदि सिद्धियोंकी उपलब्धि। ध्याता, ध्यान, ध्येय और ध्यान – प्रयोजन – इन चारोंको अच्छी तरह जानकर योगवेत्ता पुरुष योगका अभ्यास करे। जो ज्ञान और वैराग्यसे सम्पन्न, श्रद्धालु, क्षमाशील, ममतारहित तथा सदा उत्साह रखनेवाला है, ऐसा ही पुरुष ध्याता कहा गया है अर्थात् वही ध्यान करनेमें सफल हो सकता है ॥ ५६-५८ ॥

साधकको चाहिये कि वह जपसे थकनेपर फिर ध्यान करे और ध्यानसे थक जानेपर पुनः जप करे । इस तरह जप और ध्यानमें लगे हुए पुरुषका योग जल्दी सिद्ध होता है। बारह प्राणायामोंकी एक धारणा होती है, बारह धारणाओंका ध्यान होता है और बारह ध्यानकी एक समाधि कही गयी है । समाधिको योगका अन्तिम अंग कहा गया है। समाधिसे सर्वत्र बुद्धिका प्रकाश फैलता है ॥ ५९–६१ ॥ जिस ध्यानमें केवल ध्येय ही अर्थरूपसे भासता है, ध्याता निश्चल महासागरके समान स्थिरभावसे स्थित रहता है और ध्यानस्वरूपसे शून्य – सा हो जाता है, उसे ‘समाधि’ कहते हैं । जो योगी ध्येयमें चित्तको लगाकर सुस्थिरभावसे उसे देखता है और बुझी हुई आगके समान शान्त रहता है, वह ‘समाधिस्थ’ कहलाता है ॥ ६२-६३ ॥

वह न सुनता है, न सूँघता है, न बोलता है, न देखता है, न स्पर्शका अनुभव करता है, न मनसे संकल्प-विकल्प करता है, न उसमें अभिमानकी वृत्तिका उदय होता है और न वह बुद्धिके द्वारा ही कुछ समझता है । केवल काष्ठकी भाँति स्थित रहता है। इस तरह शिवमें लीनचित्त हुए योगीको यहाँ समाधिस्थ कहा जाता है ॥ ६४-६५ ॥ जैसे वायुरहित स्थानमें रखा हुआ दीपक कभी हिलता नहीं है— निःस्पन्द बना रहता है, उसी तरह समाधिनिष्ठ शुद्ध चित्त योगी भी उस समाधिसे कभी विचलित नहीं होता – सुस्थिरभावसे स्थिर रहता है। इस प्रकार उत्तम योगका अभ्यास करनेवाले योगीके सारे अन्तराय शीघ्र नष्ट हो जाते हैं और सम्पूर्ण विघ्न भी धीरे-धीरे दूर हो जाते हैं ॥ ६६-६७ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके उत्तरखण्डमें वायु और नैमिषीय ऋषियोंके संवादमें योगगतिवर्णन नामक सैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३७ ॥

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