शिवमहापुराण – शतरुद्रसंहिता – अध्याय 25
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
शतरुद्रसंहिता
छब्बीसवाँ अध्याय
पच्चीसवाँ अध्याय
राजा अनरण्यकी पुत्री पद्माके साथ पिप्पलादका विवाह एवं उनके वैवाहिक जीवनका वर्णन

नन्दीश्वरजी बोले— इसके बाद धर्मकी स्थापनाकी इच्छासे लोकमें रहकर उन महेश्वरने महान् लीला की; हे सन्मुने! उसे आप सुनें ॥ १ ॥

एक बार पुष्पभद्रा नदीमें स्नान करनेके लिये जाते हुए उन मुनीश्वर [ पिप्पलाद ] — ने शिवाके अंशसे उत्पन्न हुई पद्मा नामक अति मनोहर युवतीको देखा ॥ २ ॥ लोकतत्त्वमें प्रवीण एवं समस्त भुवनोंमें संचरण करनेवाले वे उसे प्राप्त करनेकी इच्छासे उसके पिता राजा अनरण्य के पास गये ॥ ३ ॥ उन्हें देखकर भयभीत हुए राजाने प्रणाम करके मधुपर्क आदि प्रदानकर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा की ॥ ४ ॥ उन मुनिने स्नेहपूर्वक [ मधुपर्क आदि ] सबकुछ ग्रहण करके उस कन्याकी याचना की । [ यह सुनकर ] राजा मौन हो गये और कुछ बोल न सके ॥ ५ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


मुनिने राजासे कहा कि मुझे भक्तिपूर्वक अपनी कन्या प्रदान कीजिये, अन्यथा आपसहित सब कुछ भस्म कर दूँगा ॥ ६ ॥ हे महामुने! उस समय समस्त राजपुरुष दधीचिपुत्र पिप्पलादके तेजसे आच्छन्न हो गये ॥ ७ ॥ तब अत्यन्त डरे हुए राजाने बारंबार विलाप करके कन्या पद्माको अलंकृतकर वृद्ध मुनिको समर्पित कर दिया ॥ ८ ॥ पार्वतीके अंशसे समुद्भूत उस राजपुत्री पद्माके साथ विवाहकर वे मुनि पिप्पलाद उसे लेकर प्रसन्न होकर अपने आश्रममें चले गये ॥ ९ ॥ वहाँ जाकर वृद्धावस्थाके कारण अत्यधिक जर्जर हुए तथा लम्पट स्वभाव न रखनेवाले वे तपस्वी मुनिवर उस नारीके साथ निवास करने लगे ॥ १० ॥

जिस प्रकार लक्ष्मीजी नारायणकी सेवा करती हैं, उसी प्रकार अनरण्यकी वह कन्या मन, वचन तथा कर्मसे भक्तिपूर्वक मुनिकी सेवा करने लगी ॥ ११ ॥ तब शिवके अंशरूप मुनिश्रेष्ठ पिप्पलाद अपनी लीलासे युवा होकर उस युवतीके साथ रमण करने लगे ॥ १२ ॥ उन मुनिके परम तपस्वी दस महात्मा पुत्र उत्पन्न हुए। वे सब अपने पिताके समान [ महातेजस्वी ] तथा पद्माके सुखको बढ़ानेवाले थे ॥ १३ ॥ इस प्रकार महाप्रभु शंकरके लीलावतार मुनिवर पिप्पलादने अनेक प्रकारकी लीलाएँ कीं ॥ १४ ॥

लोकमें सभीके द्वारा अनिवारणीय शनि — पीड़ाको देखकर उन दयालु पिप्पलादने प्राणियोंको प्रीतिपूर्वक वर प्रदान किया था कि जन्मसे लेकर सोलह वर्षतककी आयुवाले मनुष्यों तथा शिवभक्तोंको शनिकी पीड़ा नहीं होगी ; यह मेरा वचन सत्य होगा । मेरे इस वचनका निरादरकर यदि शनिने उन मनुष्योंको पीड़ा पहुँचायी तो वह उसी समय भस्म हो जायगा; इसमें सन्देह नहीं ॥ १५–१७ ॥ हे तात! इसीलिये ग्रहोंमें श्रेष्ठ शनैश्चर विकारयुक्त होनेपर भी उनके भयसे उन [वैसे मनुष्यों ] — को कभी पीड़ित नहीं करता ॥ १८ ॥

हे सन्मुने! इस प्रकार लीलापूर्वक मनुष्यरूप धारण करनेवाले पिप्पलादका उत्तम चरित मैंने आपसे कहा, जो सभी प्रकारकी कामनाओंको प्रदान करनेवाला है।

गाधिश्च कौशिकश्चैव पिप्पलादो महामुनिः ।
शनैश्चरकृतां पीडां नाशयन्ति स्मृतास्त्रयः ॥ २० ॥

गाधि, कौशिक एवं महामुनि पिप्पलाद – ये तीनों [महानुभाव] स्मरण किये जानेपर शनैश्चरजनित पीड़ाको नष्ट करते हैं ॥ १९—२० ॥

भूलोकमें जो मनुष्य पद्माके चरित्रसे युक्त पिप्पलादके चरित्रको भक्तिपूर्वक पढ़ता या सुनता है और जो शनिकी पीड़ाके नाशके लिये इस उत्तम चरितको पढ़ता या सुनता है, उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं ॥ २१—२२ ॥ महाज्ञानी, महाशिवभक्त एवं सज्जनोंके लिये प्रिय वे मुनिवर दधीचि धन्य हैं, जिनके पुत्र आत्मवेत्ता पिप्पलादके रूपमें साक्षात् शिवजी अवतरित हुए ॥ २३ ॥ हे तात! यह आख्यान निष्पाप, स्वर्गको देनेवाला, क्रूर ग्रहोंके दोषको नष्ट करनेवाला, सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाला तथा शिवभक्तिको बढ़ानेवाला है ॥ २४ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें पिप्पलादावतारचरितवर्णन नामक पच्चीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २५ ॥

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