श्राद्ध सम्बन्धी ज्ञातव्य
श्राद्ध के बारह भेदः-
नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि (नान्दी), सपिंडन, पार्वण, गोष्ठी, शुद्धि, कर्मांग, दैविक, यात्रा एवं पुष्टिश्राद्ध – ये श्राद्ध के बारह भेद माने गये हैं ।
श्राद्ध में ब्राह्मण-संख्याः- श्राद्ध में अधिक ब्राह्मणों का निमंत्रण ठीक नहीं है । देवकार्य में दो तथा पितृकार्य में तीन ब्राह्मण पर्याप्त हैं, अथवा एक ब्राह्मण ही आमंत्रित करें, क्योंकि ब्राह्मणों का विस्तार उचित सत्कार आदि में बाधक बन जाता है, जिससे निःसंदेह महान अकल्याण होता है ।
पूर्व, मध्यम, उत्तर कर्मः- प्रेतक्रिया में पूर्वकर्म, एकादशाह से सपिंडन के पूर्व तक मध्यम कर्म तथा सपिंडन के बाद की सारी क्रियाएं उत्तर क्रिया कहलाती है । माता का श्राद्ध सर्वत्र पिता के साथ ही किया जाता है, पर मरने के बाद, महैकोद्दिष्ट, अष्टकाश्राद्ध, वृद्धिश्राद्ध तथा गया श्राद्ध पृथक् करना चाहिए ।
श्राद्ध में अत्यन्त पवित्र तीन प्रयोजनीयः- कुतप नाम का मुहूर्त (दोपहर के बाद कुल २४ मिनट का समय), तिल, दौहित्र – इन तीन वस्तुओं को मनु ने श्राद्ध में अत्यन्त पवित्र कहा है ।
श्राद्ध में प्रशंसनीय तीन गुणः- पवित्रता, अक्रोध और अचापल्य (जल्दबाजी नहीं करना) – ये तीन श्राद्ध में प्रशंसनीय गुण है ।
श्राद्ध में महत्त्व के सात पदार्थः- गंगाजल, दूध, मधु, तसर का कपड़ा, दौहित्र, कुतप और तिल – ये सात श्राद्ध में बड़े महत्त्व के प्रयोजनीय हैं ।
श्राद्ध में आठ दुर्लभ प्रयोजनीय वस्तुएं – मध्योह्नोत्तर-काल, खंगपात्र, नेपाली कंबल, चांदी, कुश, तिल, शाक और दौहित्र ।
श्राद्ध के ७२ अवसरः- वर्षभर में ७२ श्राद्ध के अवसर आते हैं । १२ अमावस्याएं, १२ संक्रान्तियाँ, १४ मन्वादि एवं युगादि तिथियाँ, ४ अवन्तिकाएं (आषाढ़ी-आषाढ़ में उत्तराषाढ़ा नक्षत्र का योग, कार्तिकी, माघी, वैशाखी), १६ अष्टकाएं (अगहन, पूस, माघ, फाल्गुन, दोनों पक्षों की सप्तमी-अष्टमी तिथियां), ६ अन्वष्टकाएं (पूस, माघ, फाल्गुन की अष्टका के पीछे वाली नवमी तिथियां), दो निधन तिथियां एवं दो अयन योग (उत्तरायण व दक्षिणायन) ।
श्राद्ध में पाठ्य-प्रसंगः- श्राद्ध में पुरुष-सूक्त, श्रीसूक्त, पावमानी, सौपर्णाख्यान, मैत्रावरुणाख्यान, पारिप्लवनाख्यान, धर्म-शास्त्र, इतिहास और पुराण उपवीती होकर कुशासन पर बैठकर हाथ में कुश लेकर ब्राह्मणों को सामने से सुनाना चाहिए । साथ ही पुरुष-सूक्त, रुद्र-सूक्त, ऐन्द्र-सूक्त, सोम-सूक्त, सप्तार्चि-स्तव, पावमानी, मधुमती, अन्नवती आदि सूक्त एवं ऋचाएं भी श्लाघ्य है ।
शास्त्र में प्रशस्त कुशः- समूलाग्र हरित (जड़ से अंत तक हरे), श्राद्ध के दिन उखाड़े हु गोकर्णमात्र परिमाण के कुश उत्तम कहे गए हैं ।
कुश उखाड़ने का मंत्रः- पृथ्वी को खनती से कुछ खोदकर प्रत्येक कुश को उखाड़ते समय ‘ॐ हुं फट्’ कहते जाना चाहिए । कुशों को पितृतीर्थ से उखाड़ना चाहिए ।
कुश के भेदः- बिना फूल आए कुश को ‘दर्भ’ (डाभ) कहते हैं । फूल आ जाने पर उन्हीं का नाम ‘कुश’ होता है । समूल कुश का नाम ‘कुतप’ होता है । अग्रभाग काट देने पर वे ‘तृण’ कहे जाते हैं, इन्हें पितृतीर्थ से उखाड़ना चाहिए । तीन कुशों को लेकर द्विगुणन (बीच में पेंच देने) का नाम ‘मोटक’ है । इनका पितृकार्य में प्रयोग होता है, प्रेत-कार्य में नहीं ।
पितृतीर्थः- अँगुठे और तर्जनी अँगुली के बीच का स्थान पितृतीर्थ कहा जाता है । इससे आचमन नहीं करना चाहिए । पितृकार्य के लिए यह उत्तम है ।
प्रजापति तीर्थ (कायतीर्थ) – कनिष्ठिका अँगुली के पास का स्थान प्रजापति तीर्थ कहा जाता है ।
दैवतीर्थः- अँगुलियों के आगे का भाग दैव या दैवतीर्थ कहलाता है ।
ब्रह्मतीर्थः- हाथ के आगे का भाग ब्रह्मतीर्थ कहा जाता है ।
श्राद्ध में निषिद्ध कुशः- चिता पर बिछाए हुए, रास्ते में पड़े हुए, पितृ-तर्पण एवं ब्रह्मयज्ञ में उपयोग में लिए हुए और बिछाने, गंदगी से तथा आसन में से निकाले हुए, पिंडों के नीचे रखे हुए तथा अपवित्र हुए कुश निषिद्ध समझे जाते हैं ।
श्राद्ध में वर्ज्य गन्धः- चन्दन की पुरानी लकड़ियों को कार्य में नहीं लेना चाहिए । निर्गन्ध काष्ठों का भी उपयोग नहीं होना चाहिए । कपूर, केसर, अगर, खस आदि मिश्रित चंदन श्राद्धकार्य में प्रशस्त हैं । कस्तूरी, रक्तचंदन, गोरोचन, विशेषकर ब्राह्मणों को चंदन लगाते समय पवित्र (कुश) हाथ से अवश्य निकाल देना चाहिए, अन्यथा पितृगण निराश होकर लौट जाते हैं ।
श्राद्ध में ग्राह्य पुष्पः- श्राद्ध में कमल, मालती, जूही, चम्पा, प्रायः सभी सुगंधित श्वेत पुष्प तथा तुलसी और भृंगराज अति प्रशस्त है ।

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.