August 19, 2019 | aspundir | Leave a comment ॥ ब्रह्माणं प्रति योगनिद्रयोपदिष्टं श्रीकृष्ण कवचम् ॥ हस्तं दत्त्वा शिशोर्गात्रे पपाठ कवचं द्विजः । वदामि तत्ते विप्रेन्द्र कवचं सर्वलक्षणम् ॥ यद्दत्तं मायया पूर्वं ब्रह्मणे नाभिपङ्कजे । निद्रिते जगतींनाथे जले च जलशायिनि । भीताय स्तुतिकर्त्रे च मधुकैटभयोर्भयात् ॥ ॥ योगनिद्रोवाच ॥ दूरीभूतं कुरु भयं भयं किं ते हरौ स्थिते । स्थितायां मयि च ब्रह्मन् सुखं तिष्ठ जगत्पते ॥ श्रीहरिः पातु ते वक्त्रं मस्तकं मधुसूदनः । श्रीकृष्णश्चक्षुषी पातु नासिकां राधिकापतिः ॥ कर्णयुग्मं च कण्ठं च कपालं पातु माधवः । कपोलं पातु गोविन्दः केशांश्च केशवः स्वयम् ॥ अधरौष्ठं हृषीकेशो दन्तपंक्तिं गदाग्रजः । रासेश्वरश्च रसनां तालुकं वामनो विभुः ॥ वक्षः पातु मुकुन्दस्ते जठरं पातु दैत्यहा । जनार्दनः पातु नाभिं पातु विष्णुश्च ते हनुम् ॥ नितम्बयुग्मं गुह्यं च पातु ते पुरुषोत्तमः । जानुयुग्मं जानकीशः पातु ते सर्वदा विभुः ॥ हस्तयुग्मं नृसिंहश्च पातु सर्वत्र सङ्कटे । पादयुग्मं वराहश्च पातु ते कमलोद्भवः ॥ ऊर्ध्वे नारायणः पातु ह्यधस्तात् कमलापतिः । पूर्वस्यां पातु गोपालः पातु वह्नौ दशास्यहा ॥ वनमाली पातु याम्यां वैकुण्ठः पातु नैर्ऋतौ । वारुण्यां वासुदेवश्च सतो रक्षाकरः स्वयम् ॥ पातु ते सन्ततमजो वायव्यां विष्टरश्रवाः । उत्तरे च सदा पातु तेजसा जलजासनः ॥ ऐशान्यामीश्वरः पातु सर्वत्र पातु शत्रुजित् । जले स्थले चान्तरिक्षे निद्रायां पातु राघवः ॥ इत्येवं कथितं ब्रह्मन् कवचं परमाद्भुतम् । कृष्णेन कृपया दत्तं स्मृतेनैव पुरा मया ॥ शुम्भेन सह संग्रामे निर्लक्ष्ये घोरदारुणे । गगने स्थितया सद्यः प्राप्तिमात्रेण सो जितः ॥ कवचस्य प्रभावेण धरण्यां पतितो मृतः । पूर्वं वर्षशतं खे च कृत्वा युद्धं भयावहम् ॥ मृते शुम्भे च गोविन्दः कृपालुर्गगनस्थितः । माल्यं च कवचं दत्त्वा गोलोकं स जगाम ह ॥ कल्पान्तरस्य वृत्तान्तं कृपया कथितं मुने । अभ्यन्तरभयं नास्ति कवचस्य प्रभावतः ॥ कोटिशः कोटिशो नष्टा मया दृष्टाश्च वेधसः । अहं च हरिणा सार्द्धं कल्पे कल्पे स्थिरा सदा ॥ इत्युक्त्वा कवचं दत्त्वा सान्तर्धानं चकार ह । निःशङ्को नाभिकमले तस्थौ स कमलोद्भवः ॥ सुवर्णगुटिकायां तु कृत्वेदं कवचं परम् । कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ बध्नीयाद् यः सुधीः सदा ॥ विषाग्निसर्पशत्रुभ्यो भयं तस्य न विद्यते । जले स्थले चान्तरिक्षे निद्रायां रक्षतीश्वरः ॥ (ब्रह्मवैवर्त पुराण । श्रीकृष्णजन्मखण्ड 12 । 15-36) भावार्थः- एक ब्राह्मण ने शिशु के शरीर पर हाथ रखकर कवच पढ़ा । विप्रवर ! वह समस्त शुभ लक्षणों से युक्त कवच मैं तुम्हें बता रहा हूँ । यह वही कवच है, जिसे पूर्वकाल में श्रीविष्णु के नाभिकमल पर विराजमान ब्रह्मा जी को भगवती योगमाया ने दिया था । उस समय जल में शयन करने वाले त्रिलोकीनाथ विष्णु जल के भीतर नींद ले रहे थे और ब्रह्मा जी मधु-कैटभ के भय से डरकर योगनिद्रा की स्तुति कर रहे थे । उसी अवसर पर योगनिद्रा ने उन्हें कवच का उपदेश दिया था । योगनिद्रा बोली – ब्रह्मन् ! तुम अपना भय दूर करो । जगत्पते ! जहाँ श्रीहरि विराजमान हैं और मैं मौजूद हूँ, वहाँ तुम्हें भय किस बात का है ? तुम यहाँ सुखपूर्वक रहो । श्रीहरि तुम्हारे मुख की रक्षा करें । मधुसूदन मस्तक की, श्रीकृष्ण दोनों नेत्रों की तथा राधिकापति नासिका की रक्षा करें । माधव दोनों कानों की, कण्ठ की और कपाल की रक्षा करें । कपोल की गोविन्द और केशों की स्वयं केशव रक्षा करें । हृषीकेश अधरोष्ठ की, गदाग्रज दन्तपंक्ति की, रासेश्वर रसना की और भगवान वामन तालु की रक्षा करें । मुकुन्द तुम्हारे वक्षःस्थल की रक्षा करें । दैत्यसूदन उदर का पालन करें । जनार्दन नाभि की और विष्णु तुम्हारी ठोढ़ी की रक्षा करें । पुरुषोत्तम तुम्हारे दोनों नितम्बों और गुह्य भाग की रक्षा करें । भगवान जानकीश्वर तुम्हारे युगल जानुओं (घुटनों)– की सर्वदा रक्षा करें । नृसिंह सर्वत्र संकट में दोनों हाथों की और कमलोंद्भव वराह तुम्हारे दोनों चरणों की रक्षा करे । ऊपर नारायण और नीचे कमलापति तुम्हारी रक्षा करें । पूर्व दिशा में गोपाल तुम्हारा पालन करें । अग्निकोण में दशमुखहन्ता श्रीराम तुम्हारी रक्षा करें । दक्षिण दिशा में वनमाली, नैऋत्यकोण में वैकुण्ठ तथा पश्चिम दिशा में सत्पुरुषों की रक्षा करने वाले स्वयं वासुदेव तुम्हारा पालन करें । वायव्यकोण में अजन्मा विष्टरश्रवा श्रीहरि सदा तुम्हारी रक्षा करें । उत्तर दिशा में कमलासन ब्रह्मा अपने तेज से सदा तुम्हारी रक्षा करें । ईशानकोण में ईश्वर रक्षा करें । शत्रुजित सर्वत्र पालन करें । जल, थल और आकाश में तथा निद्रावस्था में श्रीरघुनाथ जी रक्षा करें । ब्रह्मन! इस प्रकार परम अद्भुत कवच का वर्णन किया गया । पूर्वकाल में मेरे स्मरण करने पर भगवान श्रीकृष्ण के कृपापूर्वक मुझे इसका उपदेश दिया था । शुम्भ के साथ जब निर्लक्ष्य, घोर एवं दारुण संग्राम चल रहा था, उस समय आकाश में खड़ी हो मैंने इस कवच की प्राप्तिमात्र से तत्काल उसे पराजित कर दिया था । इस कवच के प्रभाव से शुम्भ धरती पर गिरा और मर गया । पहले सैकड़ों वर्षों तक भयंकर युद्ध करके जब शुम्भ मर गया, तब कृपालु गोविन्द आकाश में स्थित हो कवच और माल्य देकर गोलोक को चले गये । मुने ! इस प्रकार कल्पान्तर का वृत्तान्त कहा गया है । इस कवच के प्रभाव से कभी मन में भय नहीं होता है । मैंने प्रत्येक कल्प में श्रीहरि के साथ रहकर करोड़ों ब्रह्माओं को नष्ट होते देखा है । ऐसा यह कवच देकर देवी योगनिद्रा अन्तर्धान हो गयी और कमलोद्भव ब्रह्मा भगवान विष्णु के नाभिकमल में निःशंकभाव से बैठे रहे । जो इस उत्तम कवच को सोने के यंत्र में मढ़ाकर कण्ठ या दाहिनी बाँह में बाँधता है, उसकी बुद्धि सदा शुद्ध रहती है तथा उसे विष, अग्नि, सर्प और शत्रुओं से कभी भय नहीं होता । जल, थल और अन्तरिक्ष में तथा निद्रावस्था में भगवान् सदा उसकी रक्षा करते हैं । Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe