भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा तथा दिव्य प्रेम की प्राप्ति के लिये

निम्नलिखित स्तोत्र माहेश्वरतन्त्र के ४७वें पटल से दिया जा रहा है । इस स्तोत्र की विशेषता क्या है – इस विषय में पार्वतीजी प्रश्न करती है कि –

॥ श्रीकृष्ण स्तोत्रम् ॥
॥ पार्वत्युवाच ॥

भगवन् श्रोतुमिच्छामि यथा कृष्णः प्रसीदति ।
विना जपं विना सेवां विना पूजामपि प्रभो ॥ १ ॥
यथा कृष्णः प्रसन्नः स्यात्तमुपायं वदाधुना ।
अन्यथा देवदेवेश पुरुषार्थो न सिद्ध्यति ॥ २ ॥

॥ शिव उवाच ॥
साधु पार्वति ते प्रश्नः सावधानतया शृणु ! ।
विना जपं विना सेवां विना पूजामपि प्रिये ॥ ३ ॥
यथा कृष्णः प्रसन्नः स्यात्तमुपायं वदामि ते ।
जपसेवादिकं चापि विना स्तोत्रं न सिद्ध्यति ॥ ४ ॥
कीर्तिप्रियो हि भगवान् परमात्मा पुरुषोत्तमः ।
जपस्तन्मयतासिद्ध्यै सेवा स्वाचाररूपिणी ॥ ५ ॥
स्तुतिः प्रसादनकरी तस्मात्स्तोत्रं वदामि ते ।

॥ अथ ध्यानम् ॥
सुधाम्भोनिधिमध्यस्थे रत्नद्वीपे मनोहरे ॥ ६ ॥
नवखण्डात्मके तत्र नवरत्नविभूषिते ।
तन्मध्ये चिन्तयेद् रम्यं मणिगेहमनुत्तमम् ॥ ७ ॥
परितो वनमालाभिः ललिताभिः विराजिते ।
तत्र सञ्चिन्तयेच्चारु कुट्टिमं सुमनोहरम् ॥ ८ ॥
चतुःषष्टया मणिस्तम्भैश्वतुदिक्षु विराजितम् ।
तत्र सिंहासने ध्यायेत्क कृष्णं कमललोचनम् ॥ ९ ॥
अनर्घ्यरत्नजटितमुकुटोज्ज्वलकुण्डलम् ।
सुस्मितं सुमुखाम्भोजं सखीवृन्दनिषेवितम् ॥ १० ॥
स्वामिन्याश्लिष्टबामाङ्गं परमानन्दविग्रहम् ।
एवं ध्यात्वा ततः स्तोत्रं पठेत्सुविजितेन्द्रियः ॥ ११ ॥

॥ अथ स्तोत्रम् ॥
कृष्णं कमलपत्राक्षं सच्चिदानन्दविग्रहम् ।
सखीयुथान्तरचरं प्रणमामि परात्परम् ॥ १२ ॥
शृङ्गाररसरूपाय परिपूर्णसुखात्मने ।
राजीवारुणनेत्राय कोटिकन्दर्परूपिणे ॥ १३ ॥
वेदाद्यगमरूपाय वेदवेद्यस्वरूपिणे ।
अवाङ्मनसविषयनिजलीलाप्रवर्त्तिने ॥ १४ ॥
नमः शुद्धाय पूर्णाय निरस्तगुणवृत्तये ।
अखण्डाय निरंशाय निरावरणरूपिणे ॥ १५ ॥
संयोगविप्रलम्भाख्यभेदभावमहाब्धये ।
सदंशविश्वरूपाय चिदंशाक्षररूपिणे ॥ १६ ॥
आनन्दांशस्वरूपाय सच्चिदानन्दरूपिणे ।
मर्यादातीतरूपाय निराधाराय साक्षिणे ॥ १७ ॥
मायाप्रपञ्चदूराय नीलाचलविहारिणे ।
माणिक्यपुष्परागाद्रिलीलाखेलप्रवर्त्तिने ॥ १८ ॥
चिदन्तर्यामिरूपाय ब्रह्मानन्दस्वरूपिणे ।
प्रमाणपथदूराय प्रमाणाग्राह्यरूपिणे ॥ १९ ॥
मायाकालुष्यहीनाय नमः कृष्णाय शम्भवे ।
क्षरायाक्षररूपाय क्षराक्षरविलक्षिते(
क्षणे) ॥ २० ॥
तुरीयातीतरूपाय नमः पुरुषरूपिणे ।
महाकामस्वरूपाय कामतत्त्वार्थवेदिने ॥ २१ ॥
दशलीलाविहाराय सप्ततीर्थविहारिणे ।
विहाररसपूर्णाय नमस्तुभ्यं कृपानिधे ॥ २२ ॥
विरहानलसन्तप्त भक्तचित्तोदयाय च ।
आविष्कृतनिजानन्दविफलीकृतमुक्तये ॥ २३ ॥
द्वैताद्वैत महामोहतमः पटलपाटिने ।
जगदुत्पत्तिविलय साक्षिणेऽविकृताय च ॥ २४ ॥
ईश्वराय निरीशाय निरस्ताखिलकर्मणे ।
संसारध्वान्तसूर्याय पूतनाप्राणहारिणे ॥ २५ ॥
रासलीलाविलासोर्मिपूरिताक्षरचेतसे ।
स्वामिनीनयनाम्भोजभावभेदकवेदिने ॥ २६ ॥
केवलानन्दरूपाय नमः कृष्णाय वेधसे ।
स्वामिनीकृपया(
हृदया)नन्दकन्दलाय तदात्मने ॥ २७ ॥
संसारारण्यवीथीषु परिभ्रान्तात्मनेकधा ।
पाहि मां कृपया नाथ त्वद्वियोगाधिदुःखिताम् ॥ २८ ॥
त्वमेव मातृपित्रादिबन्धुवर्गादयश्च ये ।
विद्या वित्तं कुलं शीलं त्वत्तो मे नास्ति किञ्चन ॥ २९ ॥
यथा दारुमयी योषिच्चेष्टते शिल्पिशिक्षया ।
अस्वतन्त्रा त्वया नाथ तथाहं विचरामि भोः ॥ ३० ॥
सर्वसाधनहीनां मां धर्माचारपराङ्मुखाम् ।
पतितां भवपाथोधी(
धौ) परित्रातुं त्वमर्हसि ॥ ३१ ॥
मायाभ्रमणयन्त्रस्थामूर्ध्वाधोभयविह्वलाम् ।
अदृष्टनिजसकेतां पाहि नाथ दयानिधे ॥ ३२ ॥
अनर्थेऽर्थदृशं मूढां विश्वस्तां भयदस्थले ।
जागृतव्ये शयानां मामुद्धरस्व दयापरः ॥ ३३ ॥
अतीतानागत भवसन्तानविवशान्तराम् ।
बिभेमि विमुखी भूय त्वत्तः कमललोचन ॥ ३४ ॥
मायालवणपाथोधिपयः पानरतां हि माम् ।
त्वत्सान्निध्यसुधासिन्धुसामीप्यं नय माऽचिरम् ॥ ३५ ॥
त्वद्वियोगार्तिमासाद्य यज्जीवामीति लज्जया ।
दर्शयिष्ये कथं नाथ मुखमेतद्विडम्बनम् ॥ ३६ ॥
प्राणनाथ वियोगेऽपि करोमि प्राणधारम् ।
अनौचिती महत्येषा किं न लज्जयते हि माम् ॥ ३७ ॥
किं करोमि क्व गच्छामि कस्याग्रे प्रवदाम्यहम् ।
उत्पद्यन्ते विलीयन्ते वृत्तयोऽब्धौ यथोर्मयः ॥ ३८ ॥
अहं दुःखाकुला दीना दुःखहा न भवत्परः ।
विज्ञाय प्राणनाथेदं यथेच्छसि तथा कुरु ॥ ३९ ॥
ततश्च प्रणमेत् कृष्णं भूयो भूयः कृताञ्जलिः ।
इत्येतद् गुह्यमाख्यातं न वक्तव्यं गिरीन्द्रजे ॥ ४० ॥
एवं यः स्तौति देवेशि त्रिकालं विजितेन्द्रियः ।
आविर्भवति तच्चित्ते प्रेमरूपी स्वयं प्रभुः ॥ ४१ ॥

॥ इति माहेश्वरतन्त्रे उत्तरखण्डे (ज्ञानखण्डे) शिवोमासंवादे सप्तचत्वारिंशपटलं श्रीकृष्णस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

पार्वती ने कहा – हे भगवन ! हे प्रभो ! मैं यह पूँछना चाहती हूँ कि बिना जप, बिना सेवा तथा बिना पूजा के भी कृष्ण कैसे प्रसन्न होते हैं ? ॥ १ ॥ जैसे कृष्ण प्रसन्न होंवे – उस उपाय को अब आप कहिए । नहीं तो, हे देवदेवेश ! (मानव का मोक्षरूप) पुरुषार्थ नहीं सिद्ध होता है ॥ २ ॥
शिव ने कहा – हे पार्वति ! तुम्हारा प्रश्न बहुत सुन्दर है । अब इसे सावधान होकर सुनो । बिना जप के, बिना उनकी सेवा के तथा बिना पूजा के भी, हे प्रिये ! जैसे कृष्ण प्रसन्न होवें उस उपाय को मैं अब कहता हूँ । जप और सेवा आदि भी बिना स्तोत्र के सिद्ध नहीं होते हैं ॥ ३-४ ॥ भगवान परमात्मा पुरुषोत्तम कीर्तिप्रिय (गुणसंकीर्तन से प्रसन्न होनेवाले) हैं । जप तो भगवान् में तन्मयता की सिद्धि के लिए होता है और सेवा स्वयं के आचरण के रूपवाली होती है ॥ ५ ॥ भगवान् की स्तुति उन्हें प्रसन्न करनेवाली होती है । अतः उनके स्तोत्र को मैं तुमसे कहता हूँ ।

सुधा-समुद्र के मध्य में मनोहर रत्नद्वीप पर नवरत्न से विभूषित नव खण्डात्मक पीठ है । उस पीठ के मध्य में उत्तमोत्तम एवं रम्य ‘मणिमय भवन’ का चिन्तन करना चाहिए ॥ ६-७ ॥ चारो ओर ललित वनमालाओं से शोभायमान सिंहासन पर आसीन भगवान् कमललोचन कृष्ण का ध्यान करना चाहिए । उस सिंहासन का भी ध्यान करना चाहिए जो सिंहासन सुमनोहर एवं चारू आँगनवाला है और जो चारों ओर दिशाओं में चौसठ मणिनिर्मित स्तम्भों से जगमगा रहा है ॥ ८-९ ॥ भगवान् कृष्ण का मुकुट चमचमाता हुआ और कुण्डल अनर्घ्य रत्नों से जटित है । उनका मुखकमल सुन्दर मुस्कान से युक्त तथा सखी वृन्द से सेवित है । उनका परमानन्द विग्रह वाम भाग में स्वामिनी (राधा) से संश्लिष्ट है । उस विग्रह का ध्यान करके जितेन्द्रिय साधक को उनके स्तोत्र का पाठ करना चाहिए ॥ १०-११ ॥

सत्, चित् एवं आनन्दस्वरूप, कमल के पत्र के समान नेत्रोंवाले तथा सखी-समूह में विचरण करनेवाले परात्पर कृष्ण को मेरा प्रणाम है ॥ १२ ॥ शृंगाररसरूपवाले, परिपूर्ण सुखवाले, लाल कमल के समान अरुण नेत्रवाले तथा कोटि-कामदेव स्वरूप कृष्ण को मेरा नमस्कार है ॥ १३ ॥ वेद आदि आगम रूप वाले, वेद से ही जाने जानेवाले, अन्तर मन के विषय तथा निज लीला का स्वयं प्रवर्तन करनेवाले कृष्ण को नमस्कार है ॥ १४ ॥ शुद्ध, पूर्ण, गुणों की वृत्ति से निरस्त, अखण्ड, निरंश तथा आवरण रहितरूपवाले कृष्ण को नमस्कार है ॥ १५ ॥ संयोग एवं विप्रलम्भ नामक शृंगाररस के भेदों के भाव के महासमुद्र, सत् अंश से विश्वस्वरूप और चित् अंश से युक्त अक्षररूपवाले (नित्य) कृष्ण को नमस्कार है ॥ १६ ॥ आनन्द के अंश के स्वरूपवाले, इस प्रकार सत्, चित् तथा आनन्द स्वरूपवाले, मर्यादा से भी अधिकरूपवाले, निराधार एवं (सर्वकार्य के) साक्षी कृष्ण को नमस्कार है ॥ १७ ॥ मायाप्रपञ्च (की परिधि) से दूर रहनेवाले, नीलाचल (जगन्नाथ पुरी)में विहार करनेवाले तथा माणिक्य एवं पुष्पराग के अद्रि की लीला आदि क्रीडा को करनेवाले कृष्ण को नमस्कार है ॥ १८ ॥ चित् रूप से अन्तरात्मा में रहनेवाले, ब्रह्मानन्द स्वरूप, प्रत्यक्षादि प्रमाणों से न जाने जानेवाले, अतः अनुमान आदि प्रमाण पथ से विज्ञेय कृष्ण को नमस्कार है ॥ १९ ॥ माया की कालिमा से विहीन, कल्याण करनेवाले कृष्ण को नमस्कार हैं । क्षर (अनित्य) और अक्षर (नित्य) स्वरूपवाले तथा क्षर एवं अक्षर से भी विलक्षण (गुणातीत एवं अनन्त) स्वरूपवाले कृष्ण को नमस्कार है ॥ २० ॥ तुरीय से अतीत रूपवाले एवं पुरुष रूपवाले कृष्ण को नमस्कार है । महान काम स्वरूपवाले एवं काम तत्त्व के अर्थ के ज्ञाता कृष्ण को नमस्कार है ॥ २१ ॥ दशावताररूप लीला में विहार करनेवाले तथा (मथुरा के यमुना, जन्मभूमि व्रज आदि) सप्ततीर्थों में विचरण करनेवाले, (लीला) विहार के रस से पूर्ण और तुम कृपा के निधान कृष्ण को नमस्कार है ॥ २२ ॥ (कृष्ण के) विरह की अग्नि से संतप्त तथा भक्त के चित्त में प्राण का संचार करनेवाले और अपने मुक्ति को विफल करने के लिए आनन्द को स्वयं प्रकट करनेवाले कृष्ण को नमस्कार है ॥ २३ ॥ (माया एवं ब्रह्मरूप से) द्वैत तथा (ब्रह्मरूप से) अद्वैत रूप से महा मोह के अन्धकार पटल को समाप्त कर देनेवाले, जगत् की उत्पत्ति और उसके विलय के साक्षी एवं अविकृत कृष्ण को नमस्कार है ॥ २४ ॥ ईश्वर, ईशविहीन, समस्त कर्म से रहित, संसार के अन्धकार को नष्ट करने के लिए सूर्यरूप तथा पूतना के प्राण का हरण कर लेनेवाले कृष्ण को नमस्कार है ॥ २५ ॥ रास लीला के विलासरूप समुद्र की लहर से पूरित होकर भी अक्षर चित्तवाले, स्वामिनी राधा के नयनकमल की भावभङ्गिमा के एकमात्र ज्ञाता कृष्ण को नमस्कार है ॥ २६ ॥ मात्र आनन्दरूपवाले सृष्टि कर्ता तथा स्वामिनी राधा के हृदयानन्द के दाता एवं उनकी आत्मा कृष्ण के लिए नमस्कार है ॥ २७ ॥ संसाररूपी अरण्य की विथिकाओं में अनेकरूप से विचरण करनेवाले एवं आपके वियोग से दुखित, हे नाथ ! आप कृपया मेरी रक्षा कीजिए ॥ २८ ॥ हे कृष्ण ! आप ही मेरे माता-पिता, बन्धु-बान्धव आदि सभी कुछ हैं । विद्या, धन-सम्पत्ति, कुल एवं शील आदि गुण आप ही हैं । आपको छोड़कर मेरा इस संसार में कुछ भी नहीं है ॥ २९ ॥ जैसे लकड़ी की बनी हुई नारी-कठपुतली की भाँति जैसे-जैसे डोरी से उसे चलाया जाय चलती रहती है उसी तरह मैं भी हे नाथ ! आपके आश्रित हूँ आप जैसे मुझे प्रेरित करते हैं मैं वैसे ही विचरण करता हूँ ॥ ३० ॥ हे स्वामि ! मैं सभी साधनों से हीन हूँ तथा मैं तो धर्माचरण से भी विमुख हूँ । अतः इस संसार समुद्र से उद्धार करने में आप ही समर्थ हैं ॥ ३१ ॥ हे स्वामि । हे दयानिधान ! माया मोह में फंसे रहने से व्याकुल, यन्त्रस्थ के समान ऊपर नीचे दोनों ओर घूमनेवाले तथा भय से व्याकुल मुझ निरुद्देश्य चक्कर काटनेवाले की रक्षा कीजिए ॥ ३२ ॥ अनर्थ परम्परा में ही दृष्टिपात करनेवाले मूढ़ और भयदायी विषयों में ही विश्वास रखनेवाले और जागनेवालों में सोनेवाले मेरा, हे दयावान प्रभु ! उद्धार कीजिए ॥ ३३ ॥ हे कमलनयन ! मैं अतीत एवं अनागत (भूत एवं भविष्य) में होनेवाली दुःखपरम्परा में पड़कर विवश हुआ मैं आपसे विमुख होकर भयग्रस्त हूँ ॥ ३४ ॥ क्योंकि मैं मायारूपी नमकीन समुद्र के पानी को पीने में संलग्न हूँ । अतः हे कृष्ण ! आप अपने सन्निध्यरूपी सुधा समुद्र के समीप मुझे शीघ्र ही खींच लाइए ॥ ३५ ॥ आपके विरहरूप विपत्ति में पड़ा हुआ मैं जो लज्जा से जीवित हूँ उस विवर्ण मुख को, हे नाथ ! मैं आपको कैसे दिखाऊंगा ? यही विडम्बना है । अतः आप स्वयं मुझे खींच लीजिए ॥ ३६ ॥ हे प्राणनाथ । वियोग में भी मैं प्राण धारण कर रहा हूँ – यह क्या महान अनौचित्य क्या नहीं है ? मुझे तो आपके वियोग में प्राणत्याग कर देना ही उचित था । यह मुझे लज्जा नहीं प्रदान कर रहा है ? ॥ ३७ ॥ मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? किसके समक्ष मैं अपनी विपदा को कहूँ ? इस प्रकार विचार समुद्र में मेरे विचार लहरों के समान ऊपर उठते हैं और पुनः उसीमें विलीन हो जाते हैं ॥ ३८ ॥ मैं दुःख परम्परा से पीड़ित हूँ, दीन हूँ, दुःख का मारा हुआ हूँ तथा आपके परायण भी नहीं हूँ – यह सब जानकर, हे प्राणनाथ ! आप जो चाहें वही करें ॥ ३९ ॥ इसके बाद हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण के समक्ष बारम्बार प्रणाम करे । हे गिरिराज हिमालय की पुत्रि ! यह रहस्य मैंने आपसे बता दिया है । इसे किसी (अपात्र) को कभी नहीं बताना चाहिए ॥ ४० ॥ हे देवेशि ! इस प्रकार जो जितेन्द्रिय साधक त्रिकाल में भगवान् चिदानन्दधन परात्पर परब्रह्म श्रीकृष्ण की स्तुति करता है, उसके (निर्मल) चित्त में प्रेमरूपी प्रभु स्वयं आविर्भूत हो जाते हैं ॥ ४१ ॥

संस्कृत से अनभिज्ञ पाठकगण स्तोत्र का अर्थ समझकर दिन में तीन बार प्रातः, सायं एवं मध्याह्न में पाठ करेंगे तो अनन्तगुना लाभ मिल सकेगा । यह पाठ प्रतिदिन
बिना लाँघा चलना चाहिये । रोग आदि के समय अशक्ति होने पर किन्हीं सदाचारी ब्राह्मण द्वारा कराया जा सकता है । तीव्र उत्कण्ठा के साथ-साथ ब्रह्मचर्य का पालन और इन्द्रिय-संयम आवश्यक है । इससे भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा तथा उनके दिव्य प्रेम की प्राप्ति होती है ।

 

 

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