श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-041
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
इकतालीसवाँ अध्याय
विनायकदेव और दैत्य दुरासद का युद्ध, भयभीत दैत्य दुरासद का युद्धक्षेत्र से वापस लौटना
अथः एकचत्वारिंशोऽध्यायः
बालचरिते श्रीगणेशदुरासदयुद्धवर्णनं

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार देवी पार्वती तथा देवताओं के द्वारा भगवान् विनायक की स्तुति-प्रशंसा की जाने के अनन्तर गणेशजी बड़े ही प्रेमपूर्वक देवी पार्वती को प्रणाम करके प्रसन्न होकर उनसे बोले ॥ १ ॥

गणेशजी बोले — मैं देवताओं तथा सभी लोकों के प्राणियों का श्रेष्ठ रीति से पालन करने के लिये, दैत्य दुरासद का वध करने के लिये, पृथ्वी के भार का हरण करने के लिये तथा हे मातः ! हे सर्वज्ञे ! आपकी सेवा करने के लिये और वैदिक धर्म-कर्म की स्थापना करने के लिये अवतीर्ण हुआ हूँ, मैं जो कहता हूँ, वही करूँगा भी ॥ २-३ ॥

ब्रह्माजी बोले — विघ्नेश्वर विनायक के द्वारा ऐसा कहे जाने पर सभी देवता पुनः प्रणाम करके और स्तुति करके उन जगत् के कारण के भी परम कारणस्वरूप गणेशजी से कहने लगे — जो व्यक्ति भूमि के रजकणों की गिनती कर सके, आकाशस्थित नक्षत्रों एवं तारागणों की गणना कर सके और जो सागर के जल को माप सके, वही आपके गुणों को जान सकता है ॥ ४-५ ॥ हे विभो! आज देवताओं के नेत्रों का होना धन्य हो गया, जो कि उनके द्वारा आपके युगलचरणों का दर्शन हुआ है। आज हमारा दुःख समाप्त हो गया और हमने अपना-अपना पद भी प्राप्त कर लिया । हे अखिलेश्वर! इस दुरासद का वध करें और पृथ्वी के भार का हरण करें ॥ ६१/२

देवताओं का इस प्रकार का वचन सुनकर वे विनायक हँसने लगे ॥ ७ ॥ अपने दस हाथों में दस आयुध धारण करने वाले प्रभु विनायक कहने लगे — ‘ सब कुछ करूँगा ।’ हर्षित होकर गद्गद वाणी में इस प्रकार देवताओं से कहकर भगवान् गणेश सिंह पर आरूढ़ होकर शीघ्र ही वाराणसीपुरी की ओर चल पड़े। भगवान् शिव, पार्वती तथा सभी देवता भी उनके पीछे-पीछे गये ॥ ८-९ ॥

देवसेनासहित विनायक को वहाँ आया हुआ जानकर वीर दुरासद दैत्य नगर से बाहर चला आया ॥ १० ॥ उस दैत्य दुरासद की मन्त्रियोंसहित, नाना प्रकार के आयुधों से सुसज्जित, बादलों के समान बार-बार गर्जन करती हुई विशाल सुदृढ़ सेना को देखकर विनायक ने सभी कन्दराओं को विदीर्ण करने वाला उच्च स्वरयुक्त गर्जन किया और वे उस महादैत्य से बोले — अरे दैत्य ! अब भी तुम क्यों भ्रम में पड़े हो ? ॥ ११-१२ ॥ तुमने बलपूर्वक देवताओं तथा राजाओं पर विजय प्राप्त की है, सभी मुनियों को अपमानित किया है, अरे दुष्ट ! उस समय मैं नहीं था ॥ १३ ॥ पूर्व में तुमने निर्भय होकर बहुत से दोष-पापों का संचय किया हुआ है, अब उन सभी का फल इस समय तुम मुझ गणेश से प्राप्त करो। तुमने तीनों लोकों में रहने वाले समस्त प्राणियों को बहुत कष्ट पहुँचाया है, मैं उन्हीं को सुख पहुँचाने के लिये तथा तुम्हारे भार से पीड़ित पृथ्वी का उद्धार करने के लिये प्रकट हुआ हूँ ॥ १४-१५ ॥ अरे दुष्ट! तुम मान-सम्मान तथा दुस्त्याज्य लज्जा को छोड़कर मेरी शरण में आ जाओ, यदि तुम युद्धस्थल में जाना चाहो, तो इस समय मृत्यु को प्राप्त होओगे । भगवान् शिव से प्राप्त वरदान के प्रभाव से तुमने सम्पूर्ण त्रिलोकी को पीड़ित किया है ॥ १६१/२

उस दुष्ट बुद्धि वाले दैत्य दुरासद से इस प्रकार कहकर युद्धोद्यत भगवान् गणेश ने अत्यन्त क्षुब्ध होकर प्रलयाग्नि के समान दीप्तिमान् और अग्नि की ज्वालामालाओं से सुशोभित अपने परशु नामक अस्त्र को उठाया। उस परशु की प्रभा से भगवान् सूर्य भी आच्छादित हो गये ॥ १७-१८ ॥ तदनन्तर उन्होंने यमराज के समान होकर बड़े ही वेग से उस परशु से उसके वक्षःस्थल पर प्रहार किया। उस परशु से आहत होने पर भी उसका एक रोम तक नहीं हिला । क्रोध से आँखें लाल करता हुआ तथा तीनों लोकों को मानो ग्रस लेता हुआ वह दैत्य दुरासद उन गणेश से कहने लगा ॥ १९–२० ॥

न तो देवता, न देवराज इन्द्र और न दिक्पाल ही मेरे समक्ष युद्ध के लिये आये, फिर तुम बालभाव से किस प्रकार मेरे सम्मुख आये हो? तुम मेरे सामने से हट जाओ । अरे मूर्ख! मैं यमराज से भी नहीं डरता हूँ, फिर तुम क्यों मरने की इच्छा करते हो? ॥ २११/२

ऐसा कहकर उस दुरासद ने म्यान से छुरे के समान तीक्ष्ण धारवाली तथा अत्यन्त दीप्तिमान् तलवार निकाली, जिसके आघात से पर्वत भी चूर-चूर हो जाते थे, उस तलवार से दुरासद ने गणेशजी पर आघात किया, किंतु उन्होंने अपने अंकुश से उसे रोक दिया ॥ २२-२३ ॥ वह तलवार परशु की चोट से सौ भागों में टूटकर नीचे गिर पड़ी। तलवार के टूट जाने पर महाबली दैत्य दुरासद मल्लयुद्ध के लिये आया । तब देव विनायक भी आयुधों से युद्ध करना छोड़कर उसी के समान वेग से उसके समक्ष आये । तब उन दोनों में रोमांचकारी भीषण युद्ध हुआ ॥ २४-२५ ॥ बाहुओं से, कोहनियों से तथा मुट्ठियों से वे एक- दूसरे पर आघात करने लगे, साथ ही पैरों से, जानुओं से, जंघाओं से तथा पीठ से एक-दूसरे को चोट पहुँचाने लगे। वे दोनों बार-बार महान् गर्जना करते हुए उछल- उछलकर बारी-बारी से एक-दूसरे के शरीर पर गिर रहे थे और एड़ियों के प्रहार से तथा कोहनियों के आघात से एक- दूसरे पर वार कर रहे थे ॥ २६-२७ ॥

वे दोनों अपनी जाँघों, घुटनों तथा कन्धों से परस्पर आघात कर रहे थे। युद्ध करते हुए वे धरती पर लुढ़क रहे थे और बहुत अधिक धूलिधूसरित हो गये थे ॥ २८ ॥ जब वे दोनों दूसरे पर विजय प्राप्त कर लेते थे तो ‘बहुत अच्छा, बहुत अच्छा’ – इस प्रकार से चिल्ला उठते थे। इस प्रकार बहुत दिनों तक होने वाले उनके युद्ध को देखकर देवता अत्यन्त विस्मित हो उठे ॥ २९ ॥

वे इस दैत्य दुरासद के सामर्थ्य को देखकर मन में बहुत लज्जित हो रहे थे। तदनन्तर देव विनायक ने उसके ललाट पर अपनी मुट्ठी से प्रबल आघात किया ॥ ३० ॥ इस प्रहार से वह भूमि पर गिर पड़ा और उसका मुख फूट गया। दो मुहूर्त तक वह उसी प्रकार अचल होकर भूमि पर गिरा रहा, जैसे कि वज्र के प्रहार से पर्वत गिरकर अचल पड़ा रहता है। दीर्घकालीन मूर्च्छा को छोड़कर किसी प्रकार वह उठ तो खड़ा हुआ, किंतु अपने को वह असमर्थ मानने लगा। वह बहुत व्याकुल हो चुका था ॥ ३१-३२ ॥

तदनन्तर सायंकाल होने पर वह दैत्य दुरासद अपनी सेना के बीच चला आया और वे विनायक भी युद्धभूमि से हर्षपूर्वक अपने स्थान को लौट गये। जो व्यक्ति युद्धकाल उपस्थित होने पर विनायकदेव और दुरासद के बीच हुए युद्ध के इस वृत्तान्त का श्रवण करता है, वह निश्चित ही विजय प्राप्त कर लेता है, जिस प्रकार कि विनायक ने विजय प्राप्त की ॥ ३३-३४ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन’ नामक इकतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४१ ॥

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