श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-051
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
इक्यावनवाँ अध्याय
काशिराज के गणपतिधामगमन का वर्णन
अथः एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
स्वानन्दभुवननामपंस्थानं

व्यासजी ने पूछा — हे भगवन् ! यह मुझे बताइये कि काशिराज ने किस रीति से विघ्नराज गणेश की आराधना की और कैसे उन्होंने चर्मदेह ( पार्थिव शरीर ) – से [गणपति के] परमोत्तम धाम को प्राप्त किया ? [गणपति की लीलाकथाओं को] सुनता हुआ मैं कभी तृप्त नहीं होता ॥ ११/२

ब्रह्माजी बोले — हे परम बुद्धिमान् ! इस पापनाशिनी कथा का तुम भली-भाँति श्रवण करो। हे महाप्राज्ञ ! जिस प्रकार आसक्तिहीन काशिराज ने स्वानन्दभुवन (गणपति धाम) को प्राप्त किया था, वह प्राचीन वृत्तान्त मैं तुम्हें बता रहा हूँ ॥ २-३ ॥

ज्ञानसिन्धु महर्षि मुद्गल से [गणपति के] माहात्म्य को जानकर वे नरेश मन, वचन तथा कर्म से गणेशजी की भक्ति में तत्पर हो गये ॥ ४ ॥ वे विनायकदेव की प्रसन्नता के लिये धेनु, गज, अश्व, भवन, अन्न आदि का दान तथा [ धर्मशास्त्रोक्त ] दशविध दान एवं और भी बहुत-से दान बारम्बार दिया करते थे। वे प्रतिदिन मिष्टान्न आदि विविध खाद्य पदार्थों तथा धन आदि से ब्राह्मणों को सन्तुष्ट करके उनसे गणेशजी के प्रति अविचल भक्ति-भाव की याचना किया करते थे ॥ ५–६१/२

[एक बार] माघमास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि और मंगलवार का शुभ अवसर उपस्थित हुआ । [राजा ने उस दिन] उषःकाल में स्नान किया और सन्ध्या-वन्दनादि नित्य कर्मों को सम्पन्न किया। तदुपरान्त राजोचित विविध वस्त्र-अलंकारादि से अपनी देह को विभूषित करके उन्होंने बन्धु-बान्धवों, ब्राह्मणों तथा समस्त प्रजाओं को बुलवाया और उन सबको [ यथायोग्य ] विविध रत्नाभूषण-वस्त्रादि से सम्मानित किया ॥ ७–९ ॥ वे नरेश सभाभवन से जाने को उद्यत उन लोगों को बार-बार रोक रहे थे और विमान के आने की दिशा में पुनः-पुनः देख रहे थे ॥ १० ॥ उधर गणेशजी ने उन महात्मा नरेश (-के परम धामगमन)-का अवसर जानकर अपने दूतों के साथ अत्यन्त ज्योतिर्मय एक विमान भेजा ॥ ११ ॥

गणेशजी ने [ दूतों से ] कहा — हे आमोद और प्रमोद! तुम लोग पृथ्वीतल पर जाओ और मेरे भक्त उन काशिराज को इस उत्तम विमान में बैठाकर यहाँ (मेरे धाम में) ले आओ ॥ १२ ॥

ब्रह्माजी बोले — तब वे दूत गणेशजी की आज्ञा प्राप्तकर और उनको प्रणाम करके उस दिव्य लोक से चल पड़े तथा वह दिव्य विमान लेकर काशिराज के समीप जा पहुँचे ॥ १३ ॥ उस [दिव्य विमान] – के तेज से हतप्रभ हुए कुछ लोगों ने उसे प्रलयकालीन अग्नि समझा और कुछ लोगों ने उस विमान को बिना बादलों के गिरती हुई बिजली मान लिया। कुछ अन्य लोग सोच रहे थे कि लगता है कि सूर्य-मण्डल ही [भूतल पर] गिर रहा है ॥ १४१/२

उस विमान में घण्टा, तुरही (एक वाद्य) आदि वाद्यों तथा गन्धर्व-अप्सराओं [-के गायन] की ध्वनि गूँज रही थी, जिसे सुनकर अन्य लोगों ने जाना कि यह तो विमान है। गणेशजी के द्वारा कृपापूर्वक प्रेषित, शोभासम्पन्न वह विमान काशिराज के सभा – प्रांगण में उतर आया ॥ १५-१६ ॥ दिव्य वस्त्रों और दिव्य आभूषणों से विभूषित प्रमोद और आमोद नामक वे दूत राजा के समीप आये। दिव्य मालाओं और अनुलेपन आदि से सुशोभित तथा दिव्य कान्ति से समन्वित वे गण कामदेव के सदृश प्रतीत हो रहे थे। राजा ने उनको गणपति का ही स्वरूप जानकर उन्हें प्रणाम किया और तत्काल राजासन पर बैठाकर उनकी पूजा की। तदुपरान्त राजा उनसे जबतक कुछ पूछते, तबतक स्वयं ही वे दूत सभी लोगों को सुनाते हुए उनसे कहने लगे — ॥ १७–१९ ॥

हे राजन्! हम लोग विनायकदेव की कल्याणकारी आज्ञा आपसे निवेदित करते हैं, उनका कथन सुनो। तीनों लोकों में तुमसे श्रेष्ठ दूसरा भक्त नहीं है, जो उन्हें प्रसन्न कर सका हो। वे अहर्निश तुम्हारा ही स्मरण करते रहते हैं और निरन्तर तुम्हारे ही गुणों का वर्णन किया करते हैं। आप धन्य हैं, पुण्यवान् हैं, आपने अपना जन्म सफल कर लिया है ॥ २०-२१ ॥ तुम्हारा अवलोकन करते ही तत्क्षण पापों का सघन अन्धकार विलीन हो जाता है। हम नहीं जानते कि तुमने पिछले जन्मों में कौन-सा तप किया है, जिसके कारण आपके महल में पधारकर साक्षात् परब्रह्म इन बालरूप विनायक ने भाँति-भाँति की लीलाएँ दिखायी हैं। इसलिये विनायकदेव और उनके भक्तों की महिमा का गोचर हो पाना सम्भव नहीं है। विनायकदेव तो सर्वदा आपका ही चिन्तन किया करते हैं ॥ २२-२४ ॥ उन्होंने तुम्हारे लिये एक वैभवपूर्ण दिव्य विमान भेजा है। हम लोग उनके आज्ञानुसार तुम्हें दिव्यलोक ले जायँगे । उन विभु ने हम लोगों से कहा है कि काशिराज को शीघ्र लिवा लाओ ॥ २५ ॥

दूतों की [ये] बातें उन नरेश ने और [साथ ही वहाँ उपस्थित] सभी लोगों ने सुनीं । [यह सुनकर] बारम्बार खुशी के आँसू बहाते हुए वे नरेश मानो अमृतसिन्धु में निमग्न-से हो गये। [इसके बाद धीरे-धीरे] अपनी स्वाभाविक अवस्था में आकर उन गणों को प्रणाम करके वे कहने लगे ॥ २६-२७ ॥

आज हमारा जन्म लेना, हमारे माता-पिता, हमारी निष्ठा, भक्ति और राज्यसम्पत्ति- ये सभी धन्य हो गये, जो कि हमने आप लोगों के अत्यन्त दुर्लभ, मंगलमय चरणयुगलों का अवलोकन किया है ॥ २८ ॥ पार्थिव नेत्रों से जिसे देख पाना सम्भव नहीं है और जो इक्षु [रस] – सागर के मध्य में स्थित है, ऐसे लोकोत्तर धाम में मुझे ले जाने के लिये मानो आप लोगों के रूप में भगवान् विनायक ही यहाँ आये हैं ॥ २९ ॥ जो सनातन परब्रह्म गुणों से परे, इन्द्रियों से अगोचर, चिदानन्दमय, विश्व की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय का कारण, अणु से भी सूक्ष्म, स्थूल से भी स्थूल, सर्वव्यापी, संगहीन, साकार होकर गुणों में बरतने वाला, [नाम-] रूपातीत होकर भी नानाविध [नाम – ] रूपों वाला और पृथ्वी का भार हरण करने के लिये उद्यत है, उसने मुझ अकिंचन पर यह महान् अनुग्रह किया है ॥ ३०-३२ ॥

इतना कहकर उन काशिराज ने [विनायकदेव को] नमस्कार किया और [ वहाँ उपस्थित] सभी (मन्त्री, प्रजाजन, स्वजन आदि ) – को [यथायोग्य ] अवलोकन, आलिंगन आदि से परितुष्ट करके दूतों को प्रणामकर कहा कि मनुष्यों के लिये दुर्लभ इस विमान पर पहले आप लोग आरोहण कीजिये, इसके बाद ही मैं आरूढ़ होऊँगा ॥ ३३१/२

राजा ने मन्त्रियों को नमस्कार किया और उनके हाथ में अपने पुत्र को सौंपकर कहा —  ‘राजधर्म के अनुसार प्रजाओं को अनुशासित करते हुए उनका पालन करना चाहिये। महर्षि मुद्गल ने जो कुछ बतलाया था, उसका मैंने आज यह प्रत्यक्ष अनुभव कर लिया है’ ॥ ३४-३५ ॥

दूतों से ऐसा कहकर वे नरेश बारम्बार सम्मानित हुए उन अधिष्ठित उस उत्तम विमान में चर्म (पार्थिव) -देह से ही आरूढ़ हुए ॥ ३६ ॥ विमान पर आरूढ़ होते ही उनकी देह सूर्य के समान तेजोमय हो गयी । तदुपरान्त उन दूतों ने काशिराज को दिव्य वस्त्राभूषणों और उत्तम गन्धानुलेपन से अलंकृत किया ॥ ३७ ॥ वे दूत राजा को लेकर वायुवेग से चल पड़े और [उन्होंने सर्वप्रथम निकटवर्ती] पापकर्मा भूत-प्रेत-पिशाचादि की आवासभूमि का राजा को दर्शन कराया ॥ ३८ ॥

वहाँ पर विकृत आकारवाले कुछ प्राणी तो ऊपर की ओर पैर किये तथा नीचे की ओर मुँह लटकाये स्थित थे। कुछ प्रेतों के पृष्ठभाग में मुख थे। कुछ प्रेतों के नेत्र उनके सिरपर लगे हुए थे और कुछ के हृदय में तथा कुछ की पीठ में नेत्र थे। कुछ पापियों का कण्ठ बड़ा ही दुबला-पतला था और कुछ विशाल उदरवाले थे। विविध रूपों वाले वे प्रेत अन्तरिक्षवर्ती लोक में बड़े कष्ट के साथ वैसे ही भटक रहे थे, जैसे खिड़की आदि से आती हुई सूर्यकिरणों में परमाणु भ्रमण-सा करते हुए प्रतीत होते हैं। यह देखकर राजा ने पूछा कि हे श्रेष्ठ दूतो! मुझे बतलाइये कि यह कौन-सा लोक है ? ॥ ३९-४१ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड के अन्तर्गत ‘विमान के आगमन का वर्णन’ नामक इक्यावनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५१ ॥

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