October 12, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-055 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ पचपनवाँ अध्याय भगवान् विनायक का अपने भक्त ब्राह्मण शुक्ल को सर्ववैभवसम्पन्न भवन प्रदान करना अथः पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः दूतमोचनं ब्रह्माजी बोले — उन ( सनक और सनन्दन) – के चले जाने के अनन्तर जब काशिराज ने विनायक को नहीं देखा तो उन नृपश्रेष्ठ को बड़ा मोह हुआ। [ उसी दशा में ] वे अश्वारूढ़ हो घर-घर भटकने लगे और कहने लगे विनायक कहाँ भोजन करने गया है, वह मुझे छोड़कर अकेला ही मिठाई खाने क्यों चला गया ? ॥ १-२ ॥ वे घर-घर जाकर पूछने लगे कि विनायक कहाँ चला गया, अभी-अभी तो भोजन करके वह बाहर आया था और खेलना चाह रहा था। तब [ पुरवासियों ने उनसे कहा कि] आप व्यर्थ में क्यों पूछ रहे हैं ? वह तो आपके ही साथ था। सभी नागरिकों के द्वारा ऐसा उत्तर दिये जाने पर वे वैसे ही विह्वल हो उठे, जैसे परिवार वाला निर्धन गृहस्थ ॥ ३–४१/२ ॥ [तभी राजा से] कुछ लोगों ने कहा कि वह विनायक तो शुक्ल के घर में खेल रहा है। तब राजा प्रसन्नतापूर्वक शुक्ल के घर जा पहुँचे, वहाँ उन्होंने बालरूपधारी विभु विनायक को उसके घर के आँगन में वृषभ पर आरूढ़ देखा ॥ ५-६ ॥ दूसरे शिव के समान प्रतीत होने वाले वृषभारूढ़ उन विनायक को देखकर राजा ने बड़े ही भक्तिभाव से प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहने लगे —॥ ७ ॥ राजा बोले — [यह उचित ही कहा गया है कि] बालक में न साधुता होती है और न ज्ञान अथवा स्नेह ही होता है । मुझे छोड़कर [अकेले-अकेले] तुमने विविध प्रकार के मिष्टान्न क्यों खाये ? ॥ ८ ॥ ब्रह्माजी बोले — राजा की इस बात को सुनकर विनायक कहने लगे — [हे राजन्!] जहाँ-जहाँ मैंने भोजन किया, वहाँ-वहाँ तुमने भी भोजन किया है। हे मन्द ! तुम मिथ्या भाषण कर रहे हो । [तुमने मुझे बालक कहा है, पर वास्तव में] बुद्धि आपकी ही बालकों-जैसी है। मेरी बात के साक्षी ये सभी लोग हैं, तुम इनसे पूछो, ये बतायेंगे ॥ ९-१० ॥ ब्रह्माजी बोले — तब विनायक की बात सुनकर लोगों ने राजा से कहा कि आपने विनायक के साथ अभी- अभी भोजन किया है। हे नृपसत्तम! आप तो वृद्ध हैं, सत्पुरुष हैं, आप मिथ्या क्यों बोल रहे हैं? तब वे ज्ञानवान् नरेश स्वाभाविक अवस्था में आकर कहने लगे — ॥ ११-१२ ॥ राजा बोले — [हे देव!] आपकी यह सर्वोत्कर्षमयी माया जानी नहीं जा सकती, यह तो योगियों को भी मोहित करने वाली है। आप धन्य हैं, क्योंकि सभी रूपों में सर्वत्र आप ही पूजित होते हैं ॥ १३ ॥ ब्रह्माजी बोले — तदुपरान्त रोमांचित शरीर वाले वे नरेश ध्यानस्थ हो गये और उस दशा में वे स्वयं ही विनायक के समान रूप वाले प्रतीत होने लगे ॥ १४ ॥ जिस प्रकार जल (-राशि ) – में गिरा हुआ जल (-बिन्दु) उस जल ( – राशि) – की समता को प्राप्त करता है, वैसे ही उन विनायक के ध्यान में तन्मय होकर राजा ने उन्हीं का स्वरूप पा लिया । तदुपरान्त वैनायकी माया के प्रभाव से वे नृपश्रेष्ठ पुनः (विनायकरूप से) भिन्न रूपवाले अर्थात् अपने स्वाभाविक रूपवाले हो गये ॥ १५ ॥ तदुपरान्त राजा ने विनायक को पालकी में बैठाया और भाँति-भाँति के बाजे बजवाते, नानाविध नृत्य- गीतादि के साथ उनको अपने महल में ले गये ॥ १६ ॥ उस समय बालरूप विनायक देवताओं के बीच में कामदेव के समान अत्यधिक शोभा पा रहे थे और उनके पीछे-पीछे पत्नी के साथ शुक्ल धीरे-धीरे भक्तिपूर्वक जा रहे थे। [ एकाएक ] बालक विनायक ने अपना मुँह घुमाकर जब शुक्ल को देखा तो उन्हें बड़ी लज्जा आयी कि अरे! बिना इसको सन्तुष्टिदायक कोई वर दिये मैं कैसे चला आया ? ॥ १७-१८ ॥ इस प्रकार मन में विचारकर उन विभु विनायकदेव ने शुक्ल को उत्तम वैभव प्रदान किया, जो सबको आश्चर्यचकित करने वाला तथा कुबेर के वैभव से अधिक श्रेष्ठ था। इधर महामना शुक्ल ने [सोचा कि लगता है ] विनायकदेव साधारण भोजन अर्पित करने के कारण मुझ पर रुष्ट हो गये हैं, यह विचारकर वे दीनभाव से पत्नी के साथ [घर] लौट आये ॥ १९-२० ॥ [वहाँ से लौटकर अपने घर के समीप में आये हुए ] शुक्ल ने जब अपनी घास-फूस की कुटिया नहीं देखी तो वे अत्यधिक चिन्तित हो उठे। उसी समय मानो [ किसी के द्वारा ] बलपूर्वक प्रेरित किये गये सेवक-सेविकाओं ने शुक्ल और उनकी पत्नी को सुगन्धित तैल का मर्दन करके स्नान कराया तथा आभूषणों एवं स्वर्णिम वस्त्रों से सुसज्जित किया ॥ २१-२२ ॥ [अपने भवन में] सब प्रकार के वैभव को देखकर वे दोनों अत्यधिक विस्मित थे । [ वहाँ की] सुवर्णमयी दीवारों में रत्न जड़े थे, स्थान-स्थान पर मोतियों- मणियों से जटित, भाँति-भाँति के चित्र-विचित्र मंच, शय्या, आसन आदि तथा स्वर्ण से निर्मित पात्र विद्यमान थे । वहाँ पर नाना प्रकार के वस्त्र, आच्छादन (बिस्तर, पर्दे आदि) तथा खानेयोग्य भाँति-भाँति के भोज्य पदार्थ थे ॥ २३–२४१/२ ॥ यह सब देखकर वे आपस में कहने लगे — [ अरे !] यह छोटा-सा घर कैसे इन्द्रभवन के जैसा हो गया ! तदुपरान्त शुक्ल ने पत्नी से कहा — ‘हे सौभाग्यशालिनि ! इस सबको तुम विनायक की ही कृपा से प्राप्त हुआ समझो। अल्पमात्र [पूजा-सत्कार ]- से सन्तुष्ट होने वाले वे महाविभु यद्यपि प्रकटरूप से तो कुछ नहीं देते, परंतु परोक्षरूप से अपने द्वारा प्रचुर मात्रा में दिये गये [धन- वैभवादि]-को भी वे थोड़ा ही मानते हैं । उन विभु को भक्तिपूर्वक समर्पित किया गया यत्किंचित् (उपहार) भी उनको अत्यधिक जान पड़ता है ॥ २५-२८ ॥ इसलिये अपने कल्याण के लिये भयवश, कामनावश, स्नेह के कारण अथवा शत्रुभाव से ही सही, उन (विनायकदेव)-का स्मरण, वन्दन, स्तवन तथा पूजन करना चाहिये’ ॥ २९ ॥ ब्रह्माजी बोले — इसके बाद (-का एक अन्य वृत्तान्त है।) नरान्तक के द्वारा प्रेरित शूर तथा चपल नामक दूत उस नगर में बहुत समय से छिपकर रह रहे थे। जिनके प्रचण्ड गर्जन से तीनों लोक पीपल के पत्ते के समान काँप उठते थे और जिनके सिर हिला देने मात्र से इन्द्रसहित सभी देवगण काँपने लगते थे। बल, पराक्रम और गर्जन में जिनकी बराबरी करने वाला त्रिलोकी में कोई भी नहीं था ॥ ३०-३११/२ ॥ [ पालकी में बैठे विनायकदेव को देखकर ] वे दोनों परस्पर कहने लगे कि डोली में बैठा हुआ यह मुनिकुमार तो मार डालने योग्य है; क्योंकि इसने पूर्व में आये हुए बलशाली दैत्यों का वध किया है। हमें उनका बदला लेना चाहिये ॥ ३२-३३ ॥ [ ऐसा निश्चय करके उन दैत्यों ने] विद्युत्-रूप धारण किया और उच्च स्वर से गरजने लगे। उनके तेज के कारण [पालकी की रक्षा में नियुक्त ] सैनिकों के नेत्र चौंधिया-से गये और वे अत्यन्त व्याकुल होकर ‘यह क्या, यह क्या’ इस प्रकार चीखने-चिल्लाने लगे ॥ ३४१/२ ॥ इसी बीच में वे दोनों दैत्य पालकी के समीप आ पहुँचे। [उन्हें देखकर] पालकी ढोने वाले [भयवश ] उन विनायक को छोड़कर भाग निकले। तब उन बलवान् दैत्यों को विनायक ने बलपूर्वक अपने हाथों से पकड़ लिया और धरती पर से उन्हें उखाड़ फेंकने के लिये वे बलपूर्वक दोनों को घुमाने लगे, फिर सहसा करुणावश दैत्यों को पुनः भूतल पर खड़ा कर दिया ॥ ३५-३७ ॥ [विनायकदेव ने उनसे कहा कि] मनुष्य को उसी का वध करना चाहिये, जो अपने से अधिक पराक्रमी हो । मच्छर को मार डालने से व्यक्ति का कौन-सा पौरुष प्रकट होगा ? ॥ ३८ ॥ तदुपरान्त विनायक ने दैत्यों से पूछा — ‘ बताओ, तुम लोग किसके दूत हो? [तुम्हें अपराधबोध नहीं होना चाहिये, क्योंकि] अपनी शक्तिभर प्रयत्न करने से भी [सफलता न मिलने पर] व्यक्ति को दोष नहीं लगता’ ॥ ३९ ॥ विनायक की इन बातों को सुनकर उनके समक्ष स्थित दैत्यों ने कहा कि आप दयासिन्धु कहे गये हैं, दीनपालक! आप तो हमारे साक्षात् पिता ही हैं ॥ ४० ॥ गर्भाधान करने वाला, उपनयन करने वाला, विद्या देने वाला, रक्षक और भरण-पोषण करने वाला — इन पाँच लोगों को तीनों लोकों में पिता कहा जाता है ॥ ४१ ॥ हे देव! हमलोग नरान्तक के द्वारा भेजे गये दूत हैं। हमने [अपने वास्तविक] स्वरूप को छिपा रखा है। हम तो आपका अपकार कर रहे थे, पर आपने कृपापूर्वक हमें बचा लिया ॥ ४२ ॥ हे सर्वज्ञ! आप अतीत, वर्तमान तथा भविष्य — सबको जानते हैं। जो-जो लोग वैरवश आपके समीप आये, वे सभी क्षणभर में आपके द्वारा मार डाले गये ॥ ४३ ॥ इसी बीच पुरवासी जन विनायक से कहने लगे — ‘देव! ये दोनों दुष्ट तो संसारको भय देनेवाले हैं, आपनेइनकी क्यों रक्षा की, इनपर किया गया उपकार तो हानिही करेगा, क्योंकि साँपको दिया गया दूध तो जहर ही बनता है’॥४४-४५॥ ब्रह्माजी बोले — तब विनायकदेव ने पुरवासियों से कहा — ‘मैं पहले ही इन्हें अभयदान दे चुका हूँ, अब इसके विपरीत व्यवहार कैसे किया जा सकता है ? ॥ ४६ ॥ यह कहकर विनायक ने उन दोनों को मुक्त कर दिया, तब काशिराज ने कहा [हे प्रभो! आपने] असंख्य अपराधों को क्षमा करके उन शत्रुओं को मुक्त कर दिया। [वास्तव में कोई] प्राणी जीवित रहेगा या मृत्यु को प्राप्त करेगा, इसमें आपकी इच्छा ही कारण है । यह कहकर विनायक के साथ काशिराज राजभवन आ गये ॥ ४७-४८ ॥ तदुपरान्त विनायक और काशिराज को प्रणाम करके और राजा तथा विविध रूपों वाले विनायक की प्रशंसा करते हुए सभी लोग अपने-अपने घर चले आये ॥ ४९ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड के अन्तर्गत ‘दूतों की मुक्ति का वर्णन’ नामक पचपनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५५ ॥ Content is available only for registered users. 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