श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-058
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
अट्ठावनवाँ अध्याय
काशिराज की पत्नी का विलाप करना और विनायक की सिद्धि नामक शक्ति का विशाल सेना और क्रूर नामक कालपुरुष को प्रकट करना, कालपुरुष द्वारा नरान्तक सेना का भक्षणकर उसे विनायक के पास ले आना
अथः अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
नरान्तकनिग्रहं

ब्रह्माजी बोले — इधर नरान्तक हर्षपूर्वक आधा ही मार्ग तय कर पाया था कि तबतक काशिराज की पत्नी को यह सूचना प्राप्त हो गयी कि राजा को बन्दी बनाया गया है। राजपत्नी इस बात से अतिशय शोकाकुल हो गयी और [असुरों के द्वारा किये गये विनाश से] जो बच निकले थे, वे नागरिक भी शोकमग्न हो गये । जलहीन सरोवर में स्थित मछलियों की भाँति व्याकुल उन लोगों ने अत्यधिक क्रन्दन किया ॥ १-२ ॥

शत्रुओं के द्वारा पति को बन्दी बनाये जाने से व्याकुल हुई महारानी वायुवेग से गिरे कदलीवृक्ष की भाँति भूतल पर गिर पड़ीं। उन्हें मूर्च्छा आ गयी और उनकी कान्ति नष्ट हो गयी। [कुछ समय के पश्चात् जब उन्हें चेतना हुई तो] वे सखियों के साथ विलाप करने लगीं और रोती हुई बोलीं — ॥ ३१/२

अम्बा [ राजभार्या ] बोलीं — जो शत्रुओं का मर्दन करने वाले, गजसेना के संहारक और सिंह के सदृश वीरतापूर्ण चेष्टाओंवाले थे, वे काशिराज कैसे शृगालतुल्य दैत्य के द्वारा बलपूर्वक बन्दी बनाये गये ? दैत्यसमूह के विनाशक एवं मदमत्त हजारों हाथियों के समान बलशाली मेरे स्वामी का बल कहाँ चला गया ? भगवान् महेश्वर मुझ पर किसलिये रुष्ट हो गये ? कब मैं अपने पति को देख सकूँगी ?॥ ४–६ ॥ अब मैं किस देवता का आश्रय लूँ, जो उनको शीघ्र ही मुक्त करा सके? कश्यपपुत्र विनायक के कारण राजा ने प्रबल संग्राम किया। राजा का वह सब (शरणागतरक्षण का भाव) व्यर्थ हो गया। वे [कर्तव्याकर्तव्य के विषय में ] मोहग्रस्त हो गये और बालक की बातों में आकर व्यर्थ में ही प्रबल वैरियों से विरोध कर बैठे ॥ ७-८ ॥ पति को बन्दी बना लेने वाले उस महादैत्य नरान्तक को सबके बिना अर्थात् बिना सभी साधनों से सम्पन्न हुए कौन जीत सकेगा? आज तो मुझ मन्दभागिनी के लिये यह प्रलयकाल ही आ गया है। मुझको और पृथिवी को [अकारण ही] वैधव्य क्यों प्राप्त हुआ है ? उन (राजा) – के जैसा कोई करुणासागर कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता, जो हमें शरण दे सके ॥ ९-१० ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार के राजपत्नी के शोकपूर्ण ‘उद्गार सुनकर बलवान् कश्यपपुत्र विनायक ने बड़े जोर से गर्जना की। वह गर्जनघोष ब्रह्माण्ड को फाड़ देने वाला जान पड़ता था ॥ ११ ॥ उनकी गर्जना से प्रतिध्वनित आकाश और दिशाएँ भी गरज उठीं, जिससे पर्वतों और वनों की आधारभूमि सारी पृथ्वी काँप उठी। पक्षीगण गिर पड़े और मरने लगे तथा मनुष्यों में विह्वलता छा गयी ॥ १२१/२

तदुपरान्त क्रोध से विकृत नेत्रोंवाले विनायक ने सिद्धि नामक शक्ति की ओर देखकर कहा — ‘अरे ! उस भीषण संग्राम के अवसर पर तू कहाँ चली गयी थी ?’ तब सिद्धि ने विनायक के मनोभाव को जानकर विविध प्रकार की सेनाओं को प्रकट किया ॥ १३-१४ ॥ [सिद्धि के द्वारा ] प्रादुर्भूत हुए वे हजारों वीर भयानक मुखोंवाले थे। उनके दाँत हल के समान, जिह्वाएँ सर्प जैसी और मस्तक पर्वतों के समान विशाल थे ॥ १५ ॥ वे वीर इस प्रकार से मुखों को फैलाये थे, मानो एकाएक भूमण्डल को ही निगलना चाह रहे हों। उन महाबली पुरुषों के सैकड़ों नेत्र थे और वे मुख से अग्नि- ज्वालाएँ उगल रहे थे। उनके नथुनों में प्रविष्ट होकर बड़े-बड़े हाथी भी ओझल हो जाते थे और जिनके श्वासवेग से चन्द्रमा और सूर्य भी भूतल पर गिर जाते थे ॥ १६-१७ ॥ जिनकी जटाएँ सम्पूर्ण पृथिवी को बुहार देती थीं और जिनके हाथ हजार योजन लम्बे तथा पैर दो हजार योजन की दीर्घता वाले थे ॥ १८ ॥

उन वीरों का स्वामी क्रूर विनायक के समीप आकर पूछने लगा — ‘हे प्रभो ! मेरे लिये क्या कर्तव्य है ? प्रभो ! मैं भूखा हूँ, अतः सर्वप्रथम आप मुझे तृप्ति देने वाला भक्ष्य प्रदान कीजिये।’ इस प्रकार से निवेदन करते हुए उस वीरपुरुष से विनायक ने कहा — ॥ १९-२० ॥

‘नरान्तक के द्वारा भलीभाँति संरक्षित इस विशाल सेना का तुम भक्षण करो और उस नरान्तक को मारकर शीघ्र ही उसका मस्तक मेरे पास ले आओ। अगर तुम उसकी सेना को खाकर तृप्त न हो सके तो तुमको खाने के लिये कुछ और दूँगा ।’ कश्यपात्मजं विनायक से इस प्रकार की आज्ञा प्राप्त करके [उसने] उनको प्रणाम किया और घोर गर्जन करके नरान्तक के समीप जा पहुँचा ॥ २१–२२१/२

उसकी घोर गर्जना और वैसे [भयावह] रूप के कारण नरान्तक तथा उसके सैनिक भयभीत हो गये और वे दसों दिशाओं में भागने लगे। [तब वह क्रूर] उन सभी सैनिकों को हाथ में ले-लेकर मुख में डालने लगा। उस समय भूतल से उठती धूल के कारण कुछ भी ज्ञात नहीं हो रहा था। उस घनघोर अँधेरे में नरान्तक के सैनिक मशालों के सहारे कुछ देख पा रहे थे ॥ २३–२५ ॥ उस भयानक पुरुष कों देखकर कुछ सैनिकों ने प्राण त्याग दिये। जो मर चुके थे और जो जीवित थे, उन सभी को वह वेगपूर्वक खाता जा रहा था ॥ २६ ॥ इस प्रकार समस्त सेना का विनाश होते देख नरान्तक अपने मन में सोचने लगा कि ‘ [ अरे!] यह तो काल का भी काल आया हुआ है । अब मुझे क्या करना चाहिये, यह तो बड़ा ही बलवान् जान पड़ता है।’ ऐसा कहते हुए उसने देखा कि आधी सेना तो खायी जा चुकी है ॥ २७-२८ ॥

[ नरान्तक सोचने लगा कि अरे !] ‘यह तो प्रलयाग्नि के समान सेना का बलपूर्वक संहार करने में लगा है । [ यदि इसे रोका न गया तो ] यह इस (सेना) – को वैसे ही निश्शेष कर देगा, जैसे महर्षि अगस्त्य ने समुद्र को किया था’ ॥ २९ ॥

उस समय सभी दैत्य सैनिक भयानक चीत्कार कर रहे थे। कुछ योद्धा खा लिये गये थे और कुछ चरणों के आघात से पीस डाले गये थे । कुछ उसकी श्वासवायु के आघात से मर गये, तो कुछ ने केवल उसके भय से ही त्याग दिये। [ भागते हुए] सैनिक एक-दूसरे पर गिरते जा रहे थे ॥ ३०-३१ ॥ वे उस नरान्तक को चीखते हुए बुला रहे थे कि ‘आइये, यहाँ आइये और हमें बचा लीजिये ।’ उधर वह (विनायक का गण) हाथ के प्रहार से सैनिकों को मार- मारकर तत्काल ही उनको खाता जा रहा था ॥ ३२ ॥ असंख्य सैनिकों को खा लेने पर भी उसकी जठराग्नि शान्त नहीं हो पा रही थी । हे मुने! उस गण ने [इस प्रकार से] अश्वारोहियों, गजारोहियों, रथारोहियों और पैदल सैनिकों को खाया तथा हाथी आदि बहुत से वाहक पशुओं को मार डाला ॥ ३३१/२

तब इस प्रकार के कोलाहल को सुनकर उस नरान्तक ने धनुष पर बलपूर्वक प्रत्यंचा चढ़ायी और भूतल पर अपने घुटने टेक करके दोनों [कन्धों में बँधे तरकसों ] -से बाण निकालकर धनुष को खींचा तथा बाणवर्षा करने लगा ॥ ३४-३५ ॥ तब बाणवर्षा के कारण अँधेरा छा गया और [आकाश में उड़ते] पक्षी तथा बहुत-से राजसैनिक भूतल पर गिरने लगे । दैत्यराज नरान्तक के द्वारा छोड़े गये बाणों को वह पुरुष (विनायक का गण) निगलता जा रहा था। उसके रोमकूपों में असंख्य बाण प्रविष्ट होते जा रहे थे और उन (रोमकूपों) – से रुधिर बह रहा था । इसपर भी उसे अणुमात्र वेदना नहीं हो रही थी । तदुपरान्त नरान्तक ने अपने सामर्थ्य से [ बहुत सारे ] अस्त्रों को उत्पन्न किया ॥ ३६-३८ ॥

तब उस गण ने उन सभी अस्त्रों को वैसे ही निगल लिया, जैसे आजगरी (मादा अजगर) अण्डे निगल लेती है। नरान्तक के अस्त्र कुण्ठित हो गये, शस्त्र नष्ट हो गये और उसका बाण संग्रह भी समाप्त हो चुका था । तब वह बलहीन दैत्यराज भाग निकला। उसके पीछे-पीछे वह कालपुरुष भी दौड़ने लगा ॥ ३९-४० ॥ भूतल पर दौड़ते-भटकते उस दैत्य ने जब पीछा करते उस कालपुरुष को देखा, तो उसके भयवश त्वरित गति से नरान्तक स्वर्ग जा पहुँचा। जब वहाँ भी उसने अपने पीछे आते हुए [उस] कालपुरुष को देखा तो वह धरातल पर कूद पड़ा और पाताल में प्रविष्ट हो गया । पाताल में जाते हुए नरान्तक को उस कालपुरुष ने बाल पकड़कर वैसे ही खींच लिया, जैसे बिल में प्रवेश करते हुए अतीव बलवान् सर्प को गरुड़ खींच लेते हैं ॥ ४१-४३ ॥

तदुपरान्त उस बलशाली कालपुरुष ने नरान्तक से कहा —’नरान्तक! कहाँ जाओगे, तुम तो मेरे सामने ही दीख रहे हो । अरे महापापी ! तूने शिव के वरदान से मदमत्त होकर देवताओं और ऋषियों को सताया है तथा इतने मनुष्यों का संहार किया है, जिसकी कोई संख्या नहीं है ॥ ४४-४५ ॥ अरे दुष्ट! तेरा ही संहार करने के लिये विनायकदेव अवतीर्ण हुए हैं। इसलिये समग्र अभिमान का त्यागकर उनकी शरण में चला जा। उनके चरणकमल का अवलोकन करते ही तेरे सारे पाप विनष्ट हो जायँगे ‘ ॥ ४६१/२

ऐसा कहकर वह कालपुरुष दैत्यराज नरान्तक को बलपूर्वक विनायक के समीप ले आया और फिर स्वामी विनायकदेव को प्रणाम करके कहने लगा — ॥ ४७-४८ ॥

‘हे विनायक ! हे विभो ! आपके आदेशानुसार मैंने विशाल दैत्यसेना का पूर्णरूप से भक्षण कर लिया है। इस नरान्तक ने भी मुझे अत्यधिक पीड़ा पहुँचायी है, मैं इसे पकड़कर आपके पास ले आया हूँ। अब मुझे थकावट दूर करने के लिये कोई शयनयोग्य स्थान प्रदान कीजिये और सबको सुखी करने के लिये इसको मोक्ष दीजिये ‘ ॥ ४९-५० ॥

कालपुरुष के ऐसे कथन को सुनकर उससे विभु विनायक ने कहा — ‘तुम मेरे मुख के भीतर प्रविष्ट हो जाओ और इच्छानुरूप निद्रासुख प्राप्त करो।’ विनायक के मुख से निकली इस प्रकार की उत्तम बात सुनकर वह पुरुष उनके मुख में प्रविष्ट हुआ और उन्हीं के स्वरूप में विलीन हो गया। जैसे पृथिवी से उद्भूत गन्ध उसीमें लीन हो जाती है, वैसे ही विनायक से समुत्पन्न वह पुरुष उन्हीं में लीन हो गया ॥ ५१–५३ ॥

जो मनुष्य इस आदरणीय उत्तम आख्यान का भक्तिपूर्वक श्रवण करता है, वह निश्चय ही कामनाओं को सिद्ध करके अन्त में मुक्ति भी प्राप्त कर लेता है ॥ ५४ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड के अन्तर्गत ‘नरान्तकनिग्रह’ नामक अट्ठावनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५८ ॥

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