श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-063
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
तिरसठवाँ अध्याय
अणिमादि सिद्धियों की सेना का देवान्तक की सेना से युद्
अथः त्रिषष्टितमोऽध्यायः
बालचरिते शुक्रत्यागं

दूतों ने कहा — हे राजन् ! काल को भी भयभीत कर देने वाले तथा नभःस्पर्शी मस्तक वाले अनेक प्रकार के असंख्य भयंकर दैत्यों से घिरे हुए महाभयंकर दैत्य देवान्तक ने आपकी नगरी को घेर लिया है। उसे देखकर हम लोग घबराकर आपके पास चले आये हैं। अब आपको जो करना हो, वह करें ॥ १-२ ॥

ब्रह्माजी कहते हैं — [हे मुने!] दूत के मुख से [नरान्तक के आक्रमण का] सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनकर राजा काँपने लगे। वे अत्यन्त म्लान होकर शिशुओं के मध्य खेल रहे बालक विनायक के पास गये और उनसे सारा वृत्तान्त कहा — ॥ ३१/२

राजा बोले — लीलापूर्वक मनुष्य शरीर धारण करने वाले हे परमात्मन्! आपको नमस्कार है। अनेक प्रकार की लीलाएँ करने वाले हे जड़-चेतनात्मक जगत् के गुरु! आपको नमस्कार है । बालस्वरूप धारण किये हुए आपके द्वारा हम सबकी अनेक बार रक्षा हुई है; हे प्रभो ! इस समय भी आप हमारी इस देवान्तक से रक्षा कीजिये ॥ ४–५१/२

ब्रह्माजी कहते हैं — काशिराज द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जाने पर बालक [विनायक ] -ने विशाल स्वरूप बनाकर हाथ में धनुष लेकर सिद्धि – बुद्धि सहित सिंह पर आरूढ़ होकर गर्जना की, जिससे पर्वतों की गुफाएँ प्रतिध्वनित हो उठीं ॥ ६-७ ॥ अपने तेज से सूर्य को तिरोभूत करते हुए तथा मुख से अग्निकणों का वमन करते हुए उन्होंने अपने हाथों में बाण, खड्ग, परशु और धनुष को धारण किया ॥ ८ ॥

तदनन्तर वे [बालकरूपधारी भगवान् ] विनायक आकाशमार्ग से नगर के बाहर आये और उन्होंने अपने सिंहनाद से दैत्यों के मन को परिकम्पित कर दिया ॥ ९ ॥ वहाँ उन्होंने दुर्धर्ष [दैत्य] देवान्तक को तथा उस दुष्ट की सेना को देखा। उस समय वहाँ पर टिड्डियों की भाँति असंख्य दैत्य भ्रमण कर रहे थे ॥ १० ॥ उस अनेक प्रकार की सेना को देखकर विघ्नराज विनायक ने सिद्धि से कहा कि [इस सेना पर विजय पाना] अकेले के लिये साध्य नहीं है, अतः इस दैत्य पर विजय पाने के लिये तुम मेरी आज्ञा से अनेक प्रकार की अपनी सेना का निर्माण करो ॥ १११/२

ब्रह्माजी कहते हैं — [ हे व्यासजी !] तब सिद्धि ने परमात्मा विनायक के चरणकमलों में नमस्कार करके देवान्तक से युद्ध करने के लिये प्रस्थान किया और ऐसी गर्जना की, जिसकी अनुगूँज सम्पूर्ण प्राणियों और दैत्यों के लिये भयदायिनी थी ॥ १२-१३ ॥ उसके उस गर्जन की महान् ध्वनि और उसके प्रत्येक शब्द की अनेक प्रतिध्वनियों से पर्वत और वृक्ष- समूहोंसहित [पृथ्वी को धारण करने वाले] शेषनाग तथा लोक भी चलायमान हो गये ॥ १४ ॥ वे सब भी वहाँ प्रसन्नतापूर्वक आ गयीं। तदनन्तर सिद्धि ने अष्ट सिद्धियों का स्मरण किया, सबसे पहले अणिमा [नामक सिद्धि] आयी, तदनन्तर गरिमा और उसके बाद महिमा एवं लघिमा [सिद्धियाँ] भी वहाँ आयीं । तत्पश्चात् प्राप्ति, प्राकाम्य और वशित्व सिद्धियाँ भी वहाँ आयीं। उसके बाद ईशित्व [नामक सिद्धि] वहाँ आयी, तदनन्तर हाथी, घोड़े और पैदल सैनिकों के अनेक यूथों (समूहों ) – से युक्त उनकी [ विशाल ] सेना वहाँ प्रकट हो गयी ॥ १५–१७ ॥

जिस प्रकार वर्षाकाल में नदियाँ सभी ओर से [ बहती हुई ] समुद्र में जाती हैं, उसी प्रकार युद्ध की लालसा वाली वह सेना दसों दिशाओं से वहाँ आ रही थी ॥ १८ ॥ वह सेना अगणित [रण-] वाद्यों की ध्वनि और वीरों की गर्जना से अत्यन्त गुंजायमान हो रही थी । भूमण्डल को ग्रास बना लेने के लिये उत्सुक कालसदृश उन वीरों को युद्ध के लिये आया देखकर देवान्तक ने अपने मन में विचार किया कि मैं तो यह सोच करके आया था कि क्षणमात्र में इस बालक को पकड़ ले जाऊँगा, परंतु अचानक यह इस प्रकार की सेना कहाँ से निकल आयी !  मैं इसकी अद्भुत सामर्थ्य देख रहा हूँ। [ अवश्य ही ] इस बालक ने माया से यह सब किया है । अब मैं या तो स्वयं मर जाऊँगा या इसे मार डालूँगा; क्योंकि जीवन का त्याग तो किया जा सकता है, परंतु यश का नहीं॥ १९-२११/२

दैत्येन्द्र के इस प्रकार कहने पर उसके सेनापतियों ने कहा — ‘हम लोग सेना के अग्रभाग में रहकर युद्ध करेंगे, आप सेना के पृष्ठभाग की रक्षा करें, विजय हमारी ही होगी।’ तब उनके वचनरूपी अमृत का पानकर हर्षित हुए देवान्तक ने कहा — ‘हे महावीरो! आप लोगों ने उचित बात कही है। [अब] आप लोग युद्ध के लिये प्रस्थान करें, मैं भी आता हूँ। मेरा आशीर्वाद है कि आप सब पुण्य कर्म करने वालों की विजय होगी ‘ ॥ २२-२४ ॥

[तदनन्तर] देवान्तक से आशीष ग्रहणकर और उसे नमस्कार कर कर्दम नामक दैत्य रथ की आकृति वाले व्यूह का भेदन करने के लिये गया। गरिमा [नामक सिद्धि] के प्रधान वीरों द्वारा निर्मित, वीरों को मोहित करने वाले अत्यन्त दुर्भेद्य चक्रव्यूह का भेदन करने के लिये दीर्घदन्त [नामक दैत्य] गया ॥ २५-२६ ॥ प्रथिमा द्वारा रक्षित व्यूह का भेदन करने के लिये तालजंघ [नामक दैत्य] प्रसन्नतापूर्वक गया । महिमा द्वारा निर्मित व्यूह के भेदन के लिये यक्ष्मा नाम का दैत्य गया। प्राप्ति द्वारा विरचित व्यूह के भेदन हेतु महान् [दैत्य] घण्टासुर गया और बलशाली रक्तकेश प्राकाम्य रचित व्यूह का भेदन करने गया ॥ २७-२८ ॥ वशितारचित श्रेष्ठ व्यूह का भेदन करने के लिये कालान्तक गया और दुर्जय नामक बलवान् दैत्य ईशिता द्वारा रचित व्यूह का भेदन करने गया ॥ २९ ॥

इन सबकी सामर्थ्य का वाणी से वर्णन करना सम्भव नहीं है। वे आठों महाबलवान् दैत्य आठों सिद्धियों द्वारा निर्मित [सैन्य] व्यूहों के साथ युद्ध करने लगे ॥ ३० ॥ [उस समय] दोनों ओर के सैनिक दूसरे पक्ष को अत्यन्त दुर्जय मानते हुए परस्पर एक-दूसरे को मार रहे थे। वे इस प्रकार बाणवर्षा कर रहे थे, जैसे बादल मूसलाधार वर्षा करते हैं ॥ ३१ ॥ वीरगण अनेक प्रकार के शस्त्रों से शत्रुओं के सिर काट रहे थे। उस समय वहाँ मारे गये हाथियों, घोड़ों और वीरों की कटी हुई जंघाओं, घुटनों, हाथों के कारण पृथ्वी [ चलने में] अत्यन्त दुर्गम हो गयी थी। कुछ वीर ढाल को आगे करके शत्रुओं के पैर तोड़ दे रहे थे ॥ ३२-३३ ॥ कुछ वीर उछलकर पर्वत की भाँति शत्रुओं पर गिरकर उन्हें चूर्ण कर डालते थे। धूल से इतना अन्धकार छा गया था कि अपने ही पक्ष के सैनिक परस्पर अपनों को नहीं जान पा रहे थे। तभी अचानक देवताओं द्वारा मारे गये बहुत-से दैत्य पृथ्वी पर गिर पड़े और वैसे ही दैत्यों के द्वारा मारे गये देवगण भयानक चीत्कार करते हुए गिर पड़े ॥ ३४-३५ ॥

वहाँ (उस रणभूमि में) शिरविहीन धड़ युद्ध कर रहे थे, जिसे देखकर अप्सराएँ प्रसन्न हो रहीं थीं । शस्त्रप्रहार से रक्तस्त्राव होने के कारण वीर योद्धा पुष्पित पलाश वृक्षों की भाँति शोभा पा रहे थे ॥ ३६ ॥ शुक्राचार्य मरे हुए दैत्यों को अपनी [संजीवनी] विद्या से पुनः जीवित कर दे रहे थे, इससे आठों व्यूहों के बलवान् देवसैनिक चिन्तित हो उठे । तदनन्तर शुक्राचार्य की इस चेष्टा को उन सबने ईशिता से कहा। तब उसके क्रोधावेशित होने पर उसके मुख से एक कृत्या निकलकर उसके सामने आ खड़ी हुई । ईशिता ने उसे आँख के संकेत से आज्ञा दी, तब वह कृत्या भार्गव शुक्राचार्य को अपने गुह्यांग में रखकर अन्तर्धान हो गयी और उन्हें ले जाकर बर्बरदेश में छोड़ दिया । इसीलिये मनीषी लोग उन्हें बर्बरदेशीय कहते हैं ॥ ३७-३९१/२

तदनन्तर (शुक्राचार्य के रणक्षेत्र से दूर चले जाने पर) देवता प्रसन्न हो गये और बलान्वित होकर ( उत्साहपूर्वक) युद्ध करने लगे। तब उनके द्वारा मारे जाते हुए दितिपुत्र (दैत्यगण) भागने लगे। उनमें से कुछ दैत्य उनकी शरण में चले गये और कुछ अणिमादि सिद्धियों द्वारा प्रादुर्भूत देवताओं एवं गन्धर्वों से ‘रक्षा करो, रक्षा करो – ऐसा कहने लगे ॥ ४०–४११/२

उस युद्ध में कभी दैत्यगण विजयी होते थे और कभी देवताओं की विजय होती थी। एक-दूसरे पर विजय पाने की इच्छा से वे युद्ध में संलग्न थे। तदनन्तर अस्त्र-शस्त्रों के युद्ध से उपरत होकर उनमें भयंकर मल्लयुद्ध होने लगा ॥ ४२-४३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत क्रीडाखण्ड में ‘शुक्रत्याग’ नामक तिरसठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६३ ॥

Content is available only for registered users. Please login or register

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.